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राजनीतिकुमारों के प्रति देश के युवाओं का अविश्वास प्रस्ताव

राजधानी में बर्बर गैंग रेप के बाद देशभर में आक्रोशित युवा सड़कों पर थे, लेकिन इसी पीढ़ी से आने वाले 'कल के नेताओं’ ने इनकी सुध तक नहीं ली. क्या यह राजनीतिक कुनबों से मोहभंग की शुरुआत है.

अपडेटेड 21 जनवरी , 2013

राजधानी दिल्ली में 23 साल की एक पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए बर्बर गैंग रेप के विरोध में 22 दिसंबर को जब आक्रोशित प्रदर्शनकारी सड़क पर उतरे थे, उसके कुछ घंटे बाद ही जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक ट्वीट किया, ''2010 की गर्मियों में जब प्रदर्शन शुरू हुए, उस वक्त मैंने चुप रहकर बड़ी गलती की थी. मुझे उम्मीद है कि मेरी गलती सबक का काम करेगी.”

बदकिस्मती से उनके सबसे अच्छे दोस्त राहुल गांधी ने भी उनकी बात नहीं सुनी. उस दिन यह युवा नेता, जिसे देश का भविष्य बताया जा रहा है, गोवा में नौ महीने पहले हुई पार्टी की चुनावी हार का जायजा लेने के लिए नियमित बैठक को संबोधित कर रहा था. दिल्ली में हुए प्रदर्शन बुनियादी तौर पर युवाओं के लिए युवाओं द्वारा किए गए प्रदर्शन थे. इसके बावजूद इस देश का स्वयंभू 'यूथ आइकन’ अगले दिन 23 दिसंबर को प्रदर्शनकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ अपनी मां के घर पर हुई औपचारिक बैठक में पहली बार दिखाई दिया.

उसके बाद से हमने राहुल को न देखा है, न सुना है. उनकी यह गैर-मौजूदगी प्रदर्शनकारियों की नजरों से बची न रह सकी और दिल्ली के जंतर-मंतर पर 26 दिसंबर को हवा में यह नारा गूंज रहा था, 'हूहा हूहा राहुल गांधी चूहा.’ वहां मौजूद दिल्ली यूनिवर्सिटी की 21 वर्षीया छात्रा स्मृति कपूर ने कहा, ''हम इतनी ठंड में यहां हैं. हमारे नेता कहां हैं? छुट्टी बिताने गए हैं क्या? कौन सुनेगा हमें और उन मुद्दों को कौन सुलझाएगा जिन्हें हम उठा रहे हैं?” उसके और कई सवाल थे, लेकिन उनका कोई जवाब नहीं था.

अब तक युवा पीढ़ी का चेहरा कहे जाते रहे राहुल इस बार नदारद नौजवान नेताओं का प्रतीक बन गए. सड़कों पर फैले गुस्से और सोशल मीडिया पर जोरदार आलोचना के बीच एक भी युवा नेता ने अपनी पीढ़ी की सुध लेने की कोशिश नहीं की.

बड़े-बड़े वादे करके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने 39 वर्षीय अखिलेश यादव 15 दिसंबर को शुरू हुए दो सप्ताह के सैफई महोत्सव में व्यस्त रहे. जिस दिन लखनऊ में प्रदर्शनकारियों ने उनके दफ्तर का घेराव किया, वे अपनी पत्नी डिंपल और आला अधिकारियों के साथ सैफई में बैठे बॉलीवुड सितारों के लटके-झटके देख रहे थे. संयोग से पीडि़त लड़की का परिवार उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का रहने वाला है, लिहाजा 29 दिसंबर को लड़की की मौत के बाद उन्होंने सरोकार के नाम पर संवेदना प्रकट करते हुए 20 लाख रु. की आर्थिक मदद का ऐलान कर डाला.

इस बार के प्रदर्शनों में पूरा यूथ वोट बैंक शामिल था, इसके बावजूद किसी भी युवा नेता ने अपने घर से बाहर कदम रखने की जहमत नहीं उठाई. ट्विटर से लेकर फेसबुक तक विरोध की आवाजें उतनी ही तीव्र थीं, इसके बनिस्बत शायद ही किसी युवा आइकन ने अपने ब्रांडेड लैपटॉप पर नौजवानों से जुडऩे की कोशिश की. एक तरह से यह उपेक्षा की हद थी. एक बार को मान लेते हैं कि सड़क पर निकलने में उनकी सुरक्षा को खतरा हो सकता था, लेकिन ऑनलाइन संवाद में आखिर क्या अड़चन थी?

इंडिया टुडे ने अगली पीढ़ी के इन सांसदों से जानने की कोशिश की कि आखिर उन्होंने प्रदर्शनकारियों को नजरअंदाज क्यों किया? उनमें कुछ ने हमारी जिज्ञासा का जवाब दिया. उनमें कांग्रेस से मिलिंद देवड़ा, प्रिया दत्त, सचिन पायलट, संदीप दीक्षित, ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा बीजेपी से अनुराग ठाकुर और वरुण गांधी शामिल हैं. राष्ट्रवादी कांग्रेस की अगाथा संगमा और सुप्रिया सुले ने भी अपनी बात रखी. कुछ नेताओं ने अपनी गैर-मौजूदगी का बचाव किया लेकिन अपने नाम को छुपाए रखने का आग्रह भी किया.

कुछ नेताओं की चमड़ी बहुत मोटी निकली, मसलन दीपेंद्र हुड्डा, दुष्यंत सिंह, जितिन प्रसाद, अजय माकन और अशोक तंवर ने बार-बार संदेश भेजने के बावजूद पलटकर कॉल करने की जरूरत नहीं समझी. कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल ने हमसे बात तो की, लेकिन उन्हें जैसे ही पता चला कि हम क्या पूछने जा रहे हैं, उन्होंने माफी मांगते हुए बाद में हमें कॉल करने को कहा. लेकिन उन्होंने हमें कॉल करने का वादा पूरा नहीं किया.

माकन ने ट्वीट किया, ''हम एक समाज के तौर पर नाकाम साबित हुए,” हालांकि वे खुद क्यों नहीं सड़क पर आए, इसका जवाब उन्होंने नहीं दिया. यह बात इसलिए भी ज्यादा मायने रखती है क्योंकि अधिकतर प्रदर्शन उनके संसदीय क्षेत्र नई दिल्ली में हुए थे.

कांग्रेस के नेताओं की ही तरह बीजेपी के युवा नेता भी प्रदर्शनों से आंख मूंदे रहे. बीजेपी की युवा इकाई के प्रमुख 38 वर्षीय अनुराग ठाकुर ने इस अवधि में अपने गृह राज्य हिमाचल में ही रहना मुनासिब समझ. हां, उनके पिता के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार को हाल के चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा है.

उन्होंने सफाई कुछ यूं दी, ''मैं तो (20 दिसंबर को) चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही हिमाचल में हूं लेकिन पार्टी की युवा इकाई के कार्यकर्ता इंडिया गेट पर मौजूद थे.” वैसे, ठाकुर 27 दिसंबर को दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का अभिवादन करने के लिए मंच पर चढ़ते देखे गए थे.

ठाकुर का कहना है कि वे प्रदर्शनों से इसलिए दूर रहे क्योंकि उन पर मामले के 'राजनीतिकरण’ का आरोप लग जाता. उनसे जब हमने पूछा कि क्या उन्होंने बलात्कार के खिलाफ कानून बनाने के लिए गठित जस्टिस जे.एस. वर्मा कमेटी को कुछ सुझाव भेजने की योजना बनाई है, तो उन्होंने कहा, ''बेशक, मैं 6 जनवरी को लौट कर आऊंगा तो उनसे मुलाकात करूंगा. वे मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं.” ठाकुर को शायद नहीं पता कि सुझाव भेजने की आखिरी तारीख 5 जनवरी है, या हो सकता है कि उन्होंने यह जानने की जहमत ही नहीं उठाई हो.

एक अन्य युवा सांसद बीजेपी के 32 वर्षीय वरुण गांधी की एक झलक हमें अगस्त, 2011 में अण्णा हजारे की दिल्ली में हुई रैली में मिली थी, लेकिन इस बार वे सिरे से गायब रहे. उन्होंने बताया कि वे प्रदर्शनकारियों से मिलना चाहते थे क्योंकि वे इस मुद्दे से सरोकार रखते हैं, लेकिन पत्नी के अस्पताल में होने के कारण ऐसा नहीं कर पाए. उन्होंने कहा, ''मैं पिता बनने वाला हूं, लेकिन उसे कुछ दिक्कतें आ रही हैं. मुझे लगातार साथ रहना होता है.”

कुछ दूसरे युवा कांग्रेसी नेताओं का दावा है कि वे प्रदर्शनकारियों से मिलना तो चाहते थे लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की ओर से सकारात्मक संकेत नहीं मिले. जाहिर है, वे अपना नाम सामने नहीं लाना चाहते. आश्चर्य की बात यह है कि महिला सांसद भी इस दौरान कहीं नहीं दिखीं. कांग्रेस की 40 वर्षीया सांसद ज्योति मिर्धा को इस दौरान किसी मामले को सुलझाने के लिए अपने क्षेत्र नागौर जाना पड़ गया.

वैसे, उन्होंने जस्टिस वर्मा कमेटी को कुछ ठोस सुझाव भेजे हैं. वे खुद डॉक्टर हैं, लिहाजा उनका एक सुझाव यह है कि बलात्कार के आरोपी का बधियाकरण या रासायनिक बधियाकरण ठीक नहीं होगा क्योंकि यह प्रभावी नहीं होता. उन्होंने यह सुझाव भी भेजा है कि नाबालिग की कानूनी परिभाषा पर पुनर्विचार होना चाहिए.

फिलहाल 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को नाबालिग माना जाता है. इस बार हुए गैंग रेप में एक आरोपी नाबालिग है और इस बहाने वह कड़ी सजा से बच सकता है, हालांकि उसे सबसे ज्यादा बर्बर बताया गया है. सिर्फ इतना ही नहीं, मिर्धा ने अपने सुझावों के समर्थन में कुछ अंतरराष्ट्रीय अध्ययन की रिपोर्टें भी संलग्न की हैं जिनमें बताया गया है कि लड़के 10 साल की उम्र में और लड़कियां 6 साल की उम्र में ही वयस्क हो जाती हैं. इसके मद्देनजर कानून में यथोचित बदलाव करने की जरूरत है.

अब नतीजे चाहिए

संचार और सूचना प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री, 36 वर्षीय मिलिंद देवड़ा उन विरले युवा नेताओं में शुमार हैं जो बलात्कार की घटना के बाद से ही सोशल मीडिया पर सक्रिय रहे. उन्होंने ट्विटर पर सुझाव मांगे, लेकिन सड़क पर युवाओं के बीच आना उन्होंने उचित नहीं समझा. बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया कि नेताओं ने युवाओं की आवाज को दबाया है, लेकिन उन्होंने इसका दोषी समूचे राजनैतिक तबके को ठहराया. उन्होंने कहा, ''मैं नहीं मानता कि अपनी उम्र और लैंगिकता के आधार पर सिर्फ कुछ नेताओं को सक्रिय होना चाहिए था. सच तो यह है कि समूचा राजनैतिक तबका ही शुरुआत से युवाओं के साथ संवाद कायम नहीं कर सका.

उम्मीद है कि अब से कम-से-कम हम साथ मिलकर काम कर सकेंगे और उनके आक्रोश को उन ठोस उपायों में तब्दील कर पाएंगे जिनसे महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें और पारंपरिक मानसिकता को चुनौती दे सकें.”

कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री, 35 वर्षीय सचिन पायलट मानते हैं कि सड़कों पर उतरे लड़के-लड़कियों के गुस्से के जवाब में समूचे राजनैतिक तबके की ओर से एक 'ज्यादा सीधी-सी और संगठित प्रतिक्रिया’ आनी चाहिए थी, जिसके दीर्घकालिक नतीजे हो सकते थे. उन्होंने माना कि नेताओं को इस नितांत निर्मम घटना से सबक सीखने की जरूरत है. उन्होंने साफ-साफ कहा, ''युवाओं को ठोस कार्रवाई चाहिए, उन्हें ऐसी राहत और संतोष चाहिए जो साफ-साफ दिखाई दे, और वे चाहते हैं कि यह जल्द-से-जल्द हो. हमें उनकी बात रखनी चाहिए और नतीजे देने चाहिए.”

प्रिया दत्त ने बातचीत को अपने तक सीमित रखा. इस 44 वर्षीया सांसद ने बलात्कार पीड़िता के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए 22 दिसंबर को अपने क्षेत्र में बांद्रा स्थित कार्टर रोड पर जनयात्रा आयोजित की थी. वे कहती हैं कि महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और हिंसा के मामले का बहुत पहले हल निकाल लेना चाहिए था. वे कहती हैं, ''हमारे मन में कानून का भय होना चाहिए. महिलाओं के खिलाफ  किए गए अपराधों में सजा की दर अधिक होनी चाहिए. कोई ऐसा तरीका होना चाहिए जिससे पीडि़ता नहीं बल्कि बलात्कारी खुद को कलंकित महसूस करे.”

गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे प्रदर्शन स्थल पर इसलिए नहीं गए क्योंकि खुफिया ब्यूरो ने अंदेशा जताया था कि इंडिया गेट पर मौजूद भीड़ का एक छोटा-सा हिस्सा इसका फायदा उठाकर हालात को बदतर बना सकता था. उन्होंने एक इंटरव्यू में दावा किया था कि वे इस गुस्से को समझ सकते हैं क्योंकि वे तीन बेटियों के पिता हैं. उनकी सबसे छोटी बेटी, 32 वर्षीया प्रणिति शिंदे उत्तरी सोलापुर से विधायक हैं. उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र में 26 दिसंबर को एक बलात्कार पीड़िता को गोद लिया था. उनके मुताबिक उनके पिता के अधिकार क्षेत्र में जो कुछ भी था, उन्होंने किया. वे चाहती हैं कि बलात्कार विरोधी कानून में संशोधन का काम जल्दी पूरा करवाएं. जाहिर है, वे देश के आम लोगों की ख्वाहिश को आवाज दे रही हैं.

प्रदर्शनकारियों को फ्लैश मॉब (अचानक उमड़ी भीड़) करार देने वाले पी. चिदंबरम जैसे घुटे हुए नेताओं को भी प्रतिक्रिया देने में बड़ी हुज्जत करनी पड़ी. उन्होंने स्वीकार किया कि सरकार को पता ही नहीं है कि ऐसी भीड़ से कैसे निपटा जाता है. एक प्रेस ब्रीफिंग में 26 दिसंबर को उन्होंने कहा था, ''फ्लैश मॉब नई परिघटना है. कभी तो वे नाचने-गाने के लिए इकट्ठा होते हैं, तो कभी प्रदर्शन करने के लिए आ पहुंचते हैं. हमें इस पर ध्यान देना होगा. मैं नहीं समझता कि इनसे निपटने की हमारी पूरी तैयारी है. हमें एसओपी (इनसे निपटने की मानक प्रक्रिया) बनाने की जरूरत है.”

कुछ सांसदों ने इस घटनाक्रम से जुडऩे की कोशिश भी की तो वे विवाद में आ गए. इंडिया गेट पर 22 दिसंबर को प्रदर्शन शुरू होने के एक दिन बाद ही सही, वहां पहुंचने वाले 48 वर्षीय संदीप दीक्षित इकलौते नेता थे. उनके मुताबिक, एक दिन पहले वे किसी पारिवारिक शादी में बाहर गए हुए थे.

उन्होंने बताया, ''मैं सीधे एयरपोर्ट से वहां पहुंचा, लेकिन धक्का-मुक्की करके मुझे भगा दिया गया. कोई सार्थक संवाद नहीं हो सका.” वे दोबारा दोपहर में वहां गए. प्रदर्शनकारी बिखरे हुए थे, उनका कोई संगठित समूह नहीं था. उन्होंने दावा किया, ''मैं बात भी करता तो किससे? आखिरकार, मैंने प्रदर्शनकारियों के एक समूह को अपने घर पर बुलाया. उनसे मैं लगातार संपर्क में हूं” लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि सरकार युवा प्रदर्शनकारियों से संवाद कर पाने में नाकाम रही है. उन्होंने कहा, ''यह संवाद के विभिन्न माध्यमों से जुड़ी नई पीढ़ी है, इसलिए सरकार को भी उनसे बात करने के लिए साइबर वर्ल्ड के इस्तेमाल पर गौर करना चाहिए.”

अगाथा संगमा ने बताया कि 29 दिसंबर को वे जंतर-मंतर पर मोमबत्ती लेकर पहुंची थीं, लेकिन किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया. एनसीपी की 32 वर्षीया सांसद ने इंडिया टुडे  को बताया, ''मैं वहां थी. संघर्ष को समर्थन देने के लिए मैं वहां नेता नहीं, बल्कि एक महिला की हैसियत से गई थी.” संगमा ने वहां युवाओं से बात भी की. उन्होंने कहा कि युवा सांसदों को ''महिलाओं की प्रतिष्ठा और सुरक्षा को लेकर ज्यादा मुखर और उनके बारे में सोचने वाला बनना होगा.” एनसीपी की ही सांसद, 43 वर्षीया सुप्रिया सुले ने इस बात से इनकार किया कि युवा नेता आगे नहीं आए. उन्होंने कहा, ''मुझे नहीं लगता कि वे नदारद थे. हर कोई अपने तरीके से काम करता है.”

याचना नहीं, हक का जवाब देना होगा

मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री, 56 वर्षीय शशि थरूर ने इस दौरान एक ट्वीट करके विवाद पैदा कर दिया कि अगर लड़की के माता-पिता को आपत्ति न हो तो उसका नाम सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि उसके 'अस्तित्व’ को दोबारा स्थापित किया जा सके और नए बलात्कार विरोधी कानून का उस पर नामकरण करके पीडि़ता को सम्मान दिया जा सके. प्रदर्शनों की शुरुआत से ही थरूर लगातार इस बारे में ट्वीट कर रहे थे, हालांकि वे 22 दिसंबर से तिरुअनंतपुरम में ही रहे.

उन्होंने बताया कि वे 27 दिसंबर को वहां हुए एक कैंडल मार्च और विरोध बैठक में गए थे. उन्होंने बताया, ''मैं वहां के प्रदर्शनकारियों से संपर्क में था. मैंने उनसे उनकी चिंताओं और आकांक्षाओं के बारे में पूछा कि सरकारी कार्रवाई के संदर्भ में आखिर वे क्या चाहते हैं? इस बातचीत ने प्रदर्शनों में व्याप्त तनाव को काफी हद तक दूर करने का काम किया.” थरूर ने माना कि दिल्ली में भी शुरू से ही यदि ऐसा किया जाता, तो इसका असर वैसा ही होता.

दरअसल, युवा नेता अपनी पीढ़ी से कटे हुए हैं और ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी राजनैतिक विरासत बहुत पुरानी पड़ चुकी है. लोकसभा में कम-से-कम 80 फीसदी युवा नेता राजनैतिक परिवारों से आते हैं.  उन्होंने कभी ऐसे भारत को नहीं जाना जो अपना हक मांगता हो. वे हमेशा हाथ जोड़े याचना में खड़े भारत को देखने के आदी रहे हैं.

याचक मुद्रा वाले इसी भारत की एक तस्वीर हमें 2 जनवरी को ऊर्जा राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के 27, सफदरजंग रोड स्थित सरकारी आवास पर देखने को मिली, जहां ग्वालियर से आए लोगों का हुजूम उनके इंतजार में खड़ा था. एक बूढ़ा शख्स गांव में सड़क की मांग करने आया था, जबकि एक अन्य व्यक्ति उस अस्पताल की शिकायत करने आया था जहां उसके भतीजे का इलाज चल रहा है. दोनों फरियादी सिंधिया से एक पीढ़ी पहले के बुजुर्ग थे, फिर भी अपना काम करवाने के लिए वे उनके पैरों पर गिर पड़े. सिंधिया के मुताबिक, प्रदर्शन के दौरान वे ग्वालियर में थे और वहां उन्होंने प्रदर्शन में हिस्सा लिया था. उन्होंने दावा किया, ''अगर मैं यहां होता, तो किसी भी आक्रोशित नागरिक की ही तरह मैं भी अपनी प्रतिक्रिया देता.”

एक राजनैतिक टीकाकार कहते हैं कि राजनीति में तथाकथित यूथ ब्रिगेड ''की उम्र भले कम हो, लेकिन उनकी सोच पारंपरिक ही है.” इस बार के प्रदर्शनों ने दिखा दिया कि हिंदुस्तान को अब एक नई किस्म की राजनीति और नए किस्म के नेताओं की जरूरत है.

अपने हक की मांग को लेकर युवाओं की आवाज बुलंद होने के मद्देनजर अब यह जिम्मेदारी युवा नेताओं के ऊपर है कि वे सदियों पुराने शासक भाव को छोड़कर जमीनी नेता की भूमिका में जनता के बीच आ जाएं.

—साथ में राहुल जयराम और किरण तारे

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