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एयरपोर्ट: भाग्य भरोसे आसमान में

राजनीति और व्यावसायिक हितों के आगे सुरक्षा चिंताओं को नजरअंदाज किया जा रहा है. इससे जम्मू, पटना, कालीकट और मंगलौर हवाईअड्डे उड़ानों के लिए सबसे खतरनाक बन गए हैं. क्या डीजीसीए कार्रवाई के लिए एक और हादसे का इंतजार कर रहा है?

अपडेटेड 10 दिसंबर , 2012

तारीख 13 दिसंबर, 2011, सुबह 7.40 बजे: इंडिगो एयरलाइंस की उड़ान संख्या 6ई-554 पूरी तरह से भरे यात्रियों और क्रू मेंबर्स को लेकर दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाईअड्डे के रनवे 28 से आसानी से उड़ान भरती है. यह जाड़े में साफ रोशनी वाली चमकदार सुबह है. विजिबिलिटी 2 किमी से ज्यादा है यानी इससे ज्यादा दूरी तक साफ देखा जा सकता है. अपने ताकतवर दोहरे टर्बोफैन इंजन के बूते एयरबस ए320-200 पूरे 39,000 फुट की ऊंचाई तक पहुंच जाता है. कैप्टन जहाज को जम्मू की ओर मोड़ता है. सीट बेल्ट खोल देने का समय आ जाता है. यात्री एक घंटे दस मिनट की उड़ान की नीरस यात्रा के लिए ढीले होकर बैठ जाते हैं. इन यात्रियों में वैष्णो देवी की तीर्थयात्रा पर जाने वाले उत्साहित परिवार, सालाना छुट्टी बिताकर लौट रहे सेना के अधिकारी, शीतकालीन दरबार के लिए फाइलें ले जा रहे अफसर वगैरह शामिल हैं.

लेकिन विमान के कॉकपिट में तनाव है. जम्मू हवाईअड्डे पर इंस्ट्रूमेंट लैंडिंग सिस्टम (आइएलएस) के काम न करने की खबर है और मरम्मत कार्यों के लिए रनवे की लंबाई काफी कम कर दी गई है: इस 2,054 मीटर लंबी सैन्य हवाई पट्टी पर 1,700 मीटर से कम जगह ही उतरने के लिए मिल पाएगी. विजिबिलिटी कम होती जा रही है जो न्यूनतम आवश्यकता से कम हो चुकी है. गंतव्य के करीब पहुंचते हुए कैप्टन और को-पायलट अपने को एक और 'कठिन’ लैंडिंग के लिए तैयार करते हैं. गलती की कोई गुंजाइश नहीं है. सुबह 9.10 बजे विमान का रनवे पर उतरना थोड़ा झटका देने वाला रहता है. जेट की स्पीड को कम करने के लिए ब्रेक का इस्तेमाल किया जा चुका है. लेकिन पक्की सड़क खत्म होने जा रही है और कैप्टन को मैनुअल पैडलों का इस्तेमाल कर डगमगाते विमान को चिंघाड़ के साथ रोकने को मजबूर होना पड़ता है, रनवे 36 के अंत में बनी ईंटों की दीवार से बस कुछेक मीटर पहले. टायरों के तेज घिसाव से जले हुए रबड़ की तीखी गंध फैल जाती है. कुछ ही मिनटों के बाद मुस्कराते हुए यात्री जहाज से उतरते हैं, इस बात से अनभिज्ञ कि वे भारतीय विमानन के आपदा आंकड़ों में शामिल होने के कितने करीब थे.

ऐसे दृश्य हर दिन कई बार दोहराए जाते हैं, न सिर्फ  जम्मू में बल्कि पटना में, जहां कई तरह की समस्याएं हैं. इसके अलावा मंगलौर और कालीकट हवाईअड्डे पर भी. मंगलौर और कालीकट हवाईअड्डे दोनों पश्चिमी घाट पर पहाड़ी चोटी को समतल कर जोखिमपूर्ण तरीके से तैयार किए गए हैं. नागर विमानन सुरक्षा सलाहकार परिषद (सीएएसएसी) के वरिष्ठ सुरक्षा विशेषज्ञ चेताते हैं कि मंगलौर हवाईअड्डे जैसा हादसा भारत में फिर हो सकता है. मंगलौर हवाईअड्डे पर 22 मई, 2010 को एयर इंडिया एक्सप्रेस की उड़ान संख्या 812, जो एक बोइंग-737 विमान थी, हवाई पट्टी से बाहर चली गई और आग लग जाने से 158 लोग मारे गए थे. इन चार हवाईअड्डों से हर साल करीब 50 लाख यात्रियों की आवाजाही होती है. चेन्नै के एक पूर्व कॉमर्शियल पायलट 64 वर्षीय ए. रंगनाथन बताते हैं, ''भारत में हवाई यात्रा करने वालों को अनिवार्य रूप से अपने भाग्य भरोसे यात्रा करनी पड़ती है.” रंगनाथन को घरेलू और विदेशी एयरलाइंस में 20,000 घंटों से ज्यादा उड़ान का अनुभव है. वे नागर विमानन मंत्रालय की ओर से मंगलौर दुर्घटना के बाद गठित सुरक्षा निगरानी संस्था सीएएसएसी के संस्थापक सदस्य हैं और भारतीय विमानन क्षेत्र में सुरक्षा के उपायों को लागू करने में कामयाबी न मिलने के बावजूद अभियान चला रहे हैं.

वर्ष 2010 के मध्य से ही लगातार कई हवाईअड्डों की जांच करने के बाद सीएएसएसी उन हवाईअड्डों पर प्रक्रियाओं को सुचारू बनाने और बुनियादी ढांचा सुधारने के बारे में कई सिफारिशें कर चुकी है जहां ''यात्रियों की सुरक्षा से खतरनाक हद पर समझौता किया जा रहा है.” मौजूदा एयरोड्रोम कोड की समीक्षा, रनवे के छोर पर सुरक्षा इलाका (आरईएसए), विमानों को उपलब्ध रनवे की वास्तविक लंबाई और यंत्रों की सहायता से लैंडिंग की संभावना पर विचार हुआ. इसके जम्मू और पटना तक बोइंग 737 और एयरबस ए320 विमानों के संचालन और कालीकट तक चौड़ी बॉडी वाले बोइंग 747 और 777 विमानों की उड़ान पर तत्काल रोक लगाने को कहा गया. सीएएसएसी ने लद्दाख के निकट सियाचिन के पास 10,046 फुट ऊंचाई पर बने दुनिया के सबसे ऊंचे सैन्य एयरबेस थोइज तक नागरिक उड़ान ले जाने पर भी ऐतराज किया.

थोइज में 3,000 मीटर की डामर की हवाई पट्टी ही है और वहां मार्किंग, एयर टावर कंट्रोल या रनवे लाइट जैसी सुविधाएं नहीं हैं. रंगनाथन ने कहा कि थोइज जैसे ऊंचाई वाली हवाई पट्टियों पर लैंडिंग के लिए आपातकालीन 'गो ग्राउंड’ प्रक्रिया की स्थापना के बिना ही उड़ानों की इजाजत दे दी गई.

खतरनाक लैंडिंग

स्थायी अवरोधों ने पटना रनवे को कागज में दर्ज लंबाई से 400 मीटर छोटा बनाया

यह बात दशकों से पता है कि पटना हवाईअड्डा जेट विमानों के उतरने के लिए सुरक्षित नहीं है. 17 जून, 2000 को एलायंस एयर की विमान दुर्घटना में 60 लोगों के मारे जाने के बाद जब एक हवाई विश्लेषण किया गया तो दोनों रनवे, 07 और 25 पर उड़ानों के रास्ते में 100 से ज्यादा अवरोध पाए गए. इनमें बिजली के खंभे, घंटाघर और पेड़ों जैसी अस्थायी बाधाएं भी थीं. इन अवरोधों से न केवल विमानों के लिए उपलब्ध रनवे की लंबाई कम हो जाती है, बल्कि इससे आइएलएस के सिग्नलों में भी बाधा पहुंचती है, जिनसे वे बेकार हो जाते हैं.

9 नवंबर, 2010 को अंतरराष्ट्रीय नागर विमानन संगठन (आइसीएओ) ने फैसला सुनाया कि पटना हवाईपट्टी की वास्तविक लंबाई 1,556 मीटर ही है, जबकि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआइ) और नागर विमानन महानिदेशालय (सीजीसीए) इसकी लंबाई 1,954 मीटर होने का दावा करते हैं. इस तरह यह एयरबस ए320-200 विमान की लैंडिंग की 2,480 मीटर की जरूरत से 924 मीटर छोटा और बोइंग 737-800 की लैंडिंग के लिए जरूरी 2,090 मीटर से 534 मीटर छोटा है. डीजीसीए को पटना हवाईअड्डे को नए सिरे से परिभाषित कर उसे 4सी एयरोड्रोम से 3सी घोषित करने की सलाह देते हुए आइसीएओ ने कहा कि यह सिर्फ छोटे टर्बोप्रॉप विमानों की लैंडिंग के लिए ही उपयुक्त है.

रंगनाथन का कहना था, ''गर्मियों में अगर ऊंचे तापमान और समुद्र की सतह से ऊंचाई के आधार पर गणना की जाए तो पटना हवाईअड्डे की घोषित लंबाई और कम हो सकती है और यह जेट विमानों के संचालन के लिए भारी खतरे वाला साबित हो सकता है. 16 नवंबर को इंडिया टुडे के ई-मेल के जवाब में डीजीसीए अरुण मिश्र ने दावा किया, ''85 फीसदी अवरोध (पेड़) एएआइ ने हटा दिए हैं या कम कर दिए हैं. और इस वजह से यह रनवे जेट विमानों के उतरने के लिए फिट हो गया है.” लेकिन उन्होंने स्थायी बाधाओं को स्वीकार नहीं किया और इस बात पर जोर दिया कि पटना के आइएलएस को ऐसी बाधाओं से टकराकर आने वाले सेकेंडरी संकेतों से कोई खतरा नहीं है.

ज्यादातर पायलट आपको यही बताएंगे कि पटना में बोइंग या एयरबस की लैंडिंग एक 'दु:स्वप्न’ जैसा ही है. एक पायलट ने बताया, ''पेड़ों को पार करने के बाद तेजी से नीचे आने की जरूरत की वजह से कई बार विमान खतरनाक ढंग से अस्थिर हो जाते हैं और तत्काल जमीन पर उतरने को मजबूर होना पड़ता है.”

सीएएसएसी का मानना है कि हवाई सुरक्षा की गंभीर चिंताओं पर अक्सर राजनीति और कारोबारी चिंताएं हावी हो जाती हैं. पटना के लोकनायक जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा के मामले में डीजीसीए की ओर से जारी (ए0516/12) एक नोटम (नोटिस टु एयरमेन) में एएआइ से कहा गया है कि वह 16 अगस्त से वहां बोइंग और एयरबस की उड़ानों पर रोक लगाए. लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नागर विमानन मंत्री अजित सिंह को पत्र लिखे जाने के बाद इसे वापस ले लिया गया. नीतीश ने इस प्रतिबंध को 'टालने’ का अनुरोध करते हुए 6 अगस्त के अपने पत्र में कहा था, ''स्थानीय अखबारों में छपी खबरों से ऐसा लगता है कि एएआइ ने 16 अगस्त, 2012 से संशोधित घोषित (घटाई गई) दूरी को लागू करने का निर्णय लिया है. इससे पटना से विमानों के संचालन में काफी कमी आ जाएगी और हर किसी को भारी असुविधा होगी.”

रंगनाथन और उनकी टीम का कहना है कि पटना एक बड़ी आपदा का इंतजार कर रहा है. डीजीसीए और राज्य सरकारों के दावे के विपरीत उनका कहना है कि हवाईअड्डे पर अवरोधों की संख्या में और बढ़ोतरी ही हुई है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी मौके पर वहां से जेट विमानों की उड़ान की इजाजत नहीं देनी चाहिए क्योंकि रनवे छोटा है और ''लैंड करने वाले हर विमान के एक ताबूत बनने की आशंका बनी रहती है.” यह चेतावनी उड्डयन मंत्रालय और राज्य सरकार के लिए काफी होनी चाहिए. लेकिन लगता नहीं है कि कोई सुन रहा है.

गलती के लिए कोई गुंजाइश नहीं

जम्मू जैसे सैन्य एयरबेस पर नागरिक उड़ानों के लिए सुविधाओं का अभाव है

विमानन क्षेत्र पर निगरानी रखने वाली संस्था ने जम्मू से जेट विमानों की उड़ान पर भी इसी तरह का प्रतिबंध लगाने की मांग की है. यह मूल रूप से एक सैन्य एयरबेस है और रनवे की लंबाई 2,054 मीटर है. किसी भी छोर पर न तो आरईएसए है और न ही अनिवार्य 60 मीटर की पट्टी. इस हवाईअड्डे की सुरक्षा और भी दांव पर लगी है क्योंकि रनवे के दोनों तरफ साइड पट्टी भी नहीं है और रनवे 36 के लिए आइएलएस लोकलाइजर जिस जगह लगाया गया है वह आइसीएओ के नियमों और एएआइ के मैनुअल के मुताबिक नहीं है. इसे एक ईंट की दीवार और कंटीले तारों से अलग किया गया है और एक व्यस्त आम सड़क के पास है. इंडिगो एयरलाइंस के एक वरिष्ठ पायलट बताते हैं, ''आइएलएस से निकले संकेत आसपास के निर्माण से विचलित हो जाते हैं और हवाईअड्डे पर पहुंचने वाले विमान इससे भ्रमित होते हैं.”

अंत की 60 मीटर की पट्टी और 90 मीटर के आरईएसए के बाद संशोधित करने पर इस हवाईअड्डे के रनवे की लंबाई सिर्फ 1,700 मीटर रह जाती है. छोटे रनवे के अलावा जम्मू में पक्षियों की भारी मौजूदगी एक अलग समस्या है. इसके अलावा पायलटों ने जम्मू एयरफील्ड के ऊपर कई बार ''अप्रत्याशित ड्रोन गतिविधि (बिना चालक वाले छोटे विमान) की भी शिकायतें की हैं. इसके अलावा वहां आसपास उड़ान भी सीमित ही की जा सकती है क्योंकि पड़ोसी पाकिस्तान अपने हवाई क्षेत्र का उल्लंघन सहन नहीं कर सकता.”

इन असल समस्याओं को जानने के बावजूद मिश्र जम्मू हवाईअड्डे पर कोई रोक लगाए जाने के इच्छुक नहीं दिखाई देते. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सुरक्षा के लिहाज से जरूरी अतिरिक्त क्षेत्र न होने की समस्या जल्दी ही हल हो जाएगी क्योंकि एएआइ को वन भूमि मिलने वाली है. तब तक पायलट और यात्रियों को हर दिन मौत से बचने के लिए भगवान से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि जम्मू के लिए जेट विमानों की उड़ानें बेरोकटोक जारी हैं.

खतरनाक फिसलन

कालीकट हवाईअड्डे पर रबड़ का मोटा जमाव लैंडिंग में बड़ी समस्या

9 जुलाई, 2012 को भारी वर्षा के दौरान कालीकट में उतरते समय एयर इंडिया एक्सप्रेस बोइंग 737-800 तेजी से फिसला और संभलते-संभलते भी यह कई रनवे लाइटों को तोड़ चुका था. हालांकि, यात्रियों को कोई चोट नहीं लगी, लेकिन इसने सुरक्षा संबंधी कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए. 2010 में मंगलौर में हुई विमान दुर्घटना की कहानी दोहराए जाने का अंदेशा था यहां. अगस्त, 2011 में क्लीन एयर साइंटिफिक एडवाइजरी कमिटी (कसाक) के सदस्य अरुण राव की जांच से मालूम हुआ कि कालीकट का एयरफील्ड बोइंग 747 और 777 और एयरबस ए 330 जैसे विशाल आकार के विमानों के लिए सही नहीं है. ये विमान उस हवाईअड्डे की सुविधा का इस्तेमाल सिर्फ  इसलिए कर रहे हैं क्योंकि नागर विमानन महानिदेशक (डीजीसीए) ने इसे 4ई कोड के एयरक्राफ्ट के लिए लाइसेंस दे रखा है. उसके बाद 2012 में रंगनाथन के कराए गए

सर्वे में सुझाव दिया गया कि पहाड़ी क्षेत्र के बीच बसे इस हवाईअड्डे को एक श्रेणी नीचे 4सी में डाल दिया जाए और अगल-बगल 150 मी और दोनों सिरों पर 240 मी का रनवे और सेफ्टी एरिया दिया जाए—दोनों ही अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बफर हैं. 

रंगनाथन बताते हैं, ''इसे शुरू करने के बाद 747 जैसे भारी विमान को उड़ान भरने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. उन्होंने आगे कहा कि खस्ताहाल तारकोल का रनवे जिसमें टायरों का बड़ा कबाड़ इकट्ठा हो गया है, उस पर बारिश और विमानों के उड़ानों से फैली धूल से जमीन पर फिसलन भर जाती है और इसकी घर्षण क्षमता कम हो जाती है. विमान के तेज गति से ज्यादा आगे निकल जाने की संभावना बढ़ जाती है.” दिलचस्प बात है कि इंडिया टुडे के सवाल पर डीजीसीए नजर चुराते दिखे. मिश्र की दलील है, ''बी-747 और 777 विमान काफी समय से कालीकट से उड़ान भर रहे हैं.” उनके जवाब पर अमेरिका स्थित हवाई सुरक्षा के शीर्ष विषेशज्ञ ने नाम न छापने की शर्त पर प्रतिक्रिया दी, ''लगातार किए जा रहे असुरक्षित व्यवहार को सुरक्षित का नाम नहीं दिया जा सकता.” वे भारत सरकार के साथ किसी विवाद में नहीं उलझना चाहते.

खतरे को न्यौता दे रहे हवाईअड्डे

मंगलौर में अब भी अग्निशामक क्षमताओं और बचाव के पर्याप्त साधन मौजदू नहीं

ज्यादातर यात्रियों को पता भी नहीं कि 2010 जैसी विमान दुर्घटना 25 जून, 2011 को फिर घटने वाली थी. एयर इंडिया का एक्सप्रेस बोइंग 737-800 रनवे से लगभग बाहर चला गया था. सालभर पहले हादसे का शिकार बने जहाज की तरह कैप्टन ने थ्रौटल (इंजन में भाप के प्रवाह को रोकने वाला वाल्व) खोल दिया ताकि विमान को सुरक्षित रोकने में सफलता मिले. उसी समय सह-पायलट ने बुद्धिमानी का परिचय देते हुए विमान को तेजी से पीछे किया और रनवे के ठीक किनारे विमान को रोक लिया. 2012 में ही 14 अगस्त को एयर इंडिया का दूसरा एक्सप्रेस रनवे पर उतरने की बजाए इसे तेजी से छूता हुआ आगे निकल गया और वापस दूसरी बार में ही उतरने में कामयाब हुआ. विमान को नुकसान पहुंचा, लेकिन सौभाग्य से यात्री सुरक्षित थे.

हैरत की बात है कि विमान दुर्घटना के दो साल बाद भी न मंत्रालय, न ही डीजीसीए या एएआइ ने समाधान की दिशा में कोई कदम उठाए. निराश रंगनाथन ने पूर्व विमानन सचिव और कसाक अध्यक्ष नसीम जैदी को 20 मई, 2012 को बताया, ''डीजीसीए ने हमारे किसी सुझाव पर अमल नहीं किया.”

मंगलौर में अब भी अग्निशामक क्षमताओं और बचाव के पर्याप्त साधन मौजूद नहीं हैं. फिलहाल चार रोजेनबॉर क्रैश टेंडर्स और एक टैट्रा वाहन हैं जो हवाईअड्डे को आग से सुरक्षित रखते हैं. लेकिन पतली सड़क से जुड़ी वह पहाड़ी ढलान अब भी सुरक्षा सुविधा से वंचित है. रंगनाथन का कहना है कि मंगलौर में हवाईअड्डे के नजदीक के घनी आबादी वाले इलाके बचाव और अग्निशामक सहायता पहुंचाने में बाधा खड़ी करते हैं. यही वजह है कि कसाक ने रेसा के लिए कम-से-कम 240 मी का सुझव दिया है. इसका मतलब है कि रनवे छोटा हो जाएगा और एयरलाइनों पर बोझ संबंधी पाबंदियां लगेंगी. ''एएआइ ने जुलाई, 2010 में कसाक के साथ हुई बैठक में इसके लिए प्रतिबद्धता जताई थी. लेकिन कुछ हुआ नहीं. राजनैतिक और वाणिज्यिक सरोकार उनसे ज्यादा अहम बन गए हैं.”

नेशनल एविएटर्स गिल्ड के सेवानिवृत अध्यक्ष और जेट एयरवेज के पूर्व सीनियर पायलट 66 वर्षीय गिरीश कौशिक को हवाईअड्डों की हकीकत को नजरअंदाज करने के डीजीसीए के रवैए पर कोई हैरत नहीं होती. वे कहते हैं, ''ऐसा लगता है कि ये नियामक (डीजीसीए, एएआइ) एयरलाइन प्रबंधनों के हितों की सेवा के लिए बने हैं. सच उनकी अपनी अक्षमता की पोल खोल देगा इसलिए वे पूरी कोशिश करते हैं कि जनता को जानकारी न मिले या जानबूझकर गलत सूचना देते हैं.” उनका अनुभव भी अलग नहीं. पायलट ने मुंबई की श्रेणी 3 के इंस्ट्रुमेंटल लैंडिंग सिस्टम (आइएलएस) के हर बारिश में बेकार हो जाने के संबंध में लिखे गए ढेरों शिकायती पत्रों के कूड़े के डब्बे में फेंके जाने की बात याद करते हुए बताया,  ''डीजीसीए शिकायत को इतने दिन तक दबा देती है कि लोग हारकर मामले को छोड़ देते हैं.” आइएलएस लगाने का कोई फायदा नहीं अगर यह बारिश के मौसम के दौरान धुंधले आसमान में उड़ान भरने में मदद करने के लिए उपलब्ध न हो.

एयर इंडिया के एक अनुभवी पायलट का कहना है कि ''अगर हमारे नियम और आइसीएओ के दिशानिर्देश लागू कर दिए जाएं तो भारत के 90 फीसदी हवाईअड्डे बंद हो जाएंगे. हमारा काम यह देखना है कि विमान ने कितनी दूर उड़ान भरी, सुरक्षा के बारे में फैसला नेता और मैनेजर करते हैं.” उन्होंने हाल में हज के लिए ठसाठस भरी एयरबस ए-330 की श्रीनगर से सऊदी अरब की उड़ानों का जिक्र करते हुए कहा, ''हो सकता है राजनैतिक तौर पर जम्मू  और दिल्ली के लिए यह सही हो, लेकिन एयर इंडिया और डीजीसीए की ओर से यह खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना फैसला था.” रंगनाथन का कहना है कि दोहरी नीति पर चल रहा डीजीसीए आंखें मूंदकर बैठा है और विमानों में दुर्घटनाओं के कारण आए हुए नुकसान को 'चूक’ कहकर या नजरअंदाज करते हुए साफ बच निकलना चाहता है. हालांकि मिश्र इससे सहमत नहीं. नियामक ने ऐसी कई चूक को आइसीएओ की वेबसाइट पर दुर्घटनाओं की फेहरिस्त में डाला है. (बॉक्स देखें).

हवाई सुरक्षा विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि बार-बार इस तरह की घटनाओं का होना, कार्रवाई करने में डीजीसीए की लापरवाही भारतीय विमानन की अंतरराष्ट्रीय रेटिंग पर असर डाल सकती है. अमेरिकी फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन भारत को श्रेणी एक से निचली श्रेणी दो में लगभग डालने ही वाली थी जिसका नतीजा होता कि हिंदुस्तानी विमानों को ज्यादा ऊंचे बीमा प्रीमियम भरने पड़ते, साथ ही अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के विस्तार में रोक लगा दी जाती. श्रेणी दो उन देशों पर लागू होती है जो अक्सर आइसीएओ मानकों का उल्लंघन करते हैं. स्पष्ट है कि विमान से नियमित यात्रा करने वाले मध्यमवर्गीय हिंदुस्तानियों के अंदर सुगबुगाती चिंता टिकटों की बढ़ती कीमतें ही नहीं, बल्कि सुरक्षित हवाई यात्रा भी है.

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