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दिल्ली में गबरू बाउंसरों की एक बस्ती

नाइट क्लब, डिस्को, बार और पार्टियों में बलवा करने वालों से निबटने के लिए हट्टे-कट्ठे जवान तैयार करता है दिल्ली का असोला और फतेहपुर बेरी गांव.

असोला-फतेहपुर बेरी के बाउंसर
असोला-फतेहपुर बेरी के बाउंसर
अपडेटेड 20 नवंबर , 2013
यह दृश्य है गुडग़ांव के सहारा माल में शनिवार की एक रात का. कुछ युवा शराब और तेज सेंट की गंध छोड़ते हुए माल की तीसरी मंजिल की ओर बढ़ते हैं. यहां नाइट क्लबों की पूरी एक लाइन है. इन्हीं में से एक है प्रिजन. युवाओं की भीड़ उधर बढ़ती है. लेकिन अंदर घुसने से पहले उन्हें बेहद हट्टे-कट्ठे कुछ बाउंसरों की दीवार को पार करना पड़ता है. यहां खड़े तीन बाउंसर जींस और चुस्त टीशर्ट पहने हुए हैं, उनके जबड़े मांसल और चौड़े हैं, बांहों के कसे हुए डोले बाइशेप्स भी साफ नजर आ रहे हैं. उनके पीछे एक बोर्ड लगा है, जिस पर लिखा है, ‘‘यहां ड्रग्स और हथियार लेकर आना मना है.’’ वे वहां मौजूद युवाओं के हाथों पर रबर की एक मुहर लगाकर उन्हें अंदर जाने देते हैं. अंदर एकदम हंगामे जैसा माहौल है. चिकने बदन वाले लड़के और अंग प्रदर्शन करने वाली लड़कियों का हुजूम पंजाबी पॉप गानों पर मस्ती में नाच रहा है.

बाहर तैनात बाउंसरों में एक बात समान है. वे सभी दो गांवों की एक बस्ती के रहने वाले हैं. असोला-फतेहपुर बेरी नाम की यह बस्ती दक्षिण दिल्ली के नजदीक वीआइपी फार्महाउसों वाले इलाके छतरपुर से लगी हुई है. एक ओर गंवई भारत और दूसरे ओर उभरते इंडिया के बीच जीने वाली यह बस्ती असोला-फतेहपुर बेरी दिल्ली के 135 शहरी गांवों में से एक है. यहां भैंसें कंक्रीट की मल्टी स्टोरी अपार्टमेंट के बेकार हो चुके बाथटबों में डाला गया चारा गटकती हैं. यहां आपको संकरी गलियों में ईंटों के घरों के सामने शानदार चमचमाती एसयूवी गाडिय़ां ट्रैक्टरों से गलबहियां करती मिल जाएंगी.

करीब 50,000 की आबादी वाली इस बस्ती के 200 से ज्यादा नौजवान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के नाइट क्लबों और बार में बाउंसर का काम करते हैं. इसके अलावा वे प्राइवेट कॉलेजों और बड़े व्यापारियों को भी सुरक्षा मुहैया करने का काम करते हैं. यहां की ज्यादातर आबादी पशु पालन से ताल्लुक रखने वाली गुर्जर बिरादरी की है. सुरक्षा के इस पेशे को यहां के ये नौजवान बाउंसरी बोलते हैं और इस काम को यहां बड़े सम्मान के साथ देखा जाता है. ऐसे ज्यादातर युवकों के नाम के साथ तंवर टाइटिल जुड़ा हुआ है. अपने पुरखों को ये लोग पूजते हैं लेकिन लव मैरिज या लिव इन का जिक्र करते ही उनकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं.

चालीस वर्षीय विजय तंवर उर्फ पहलवान की सुनिए, ‘‘हमें आप उस तरह के लोगों के रूप में देखिए जो सुरक्षा करते हैं और जिनके बिना आप अपना बिजनेस नहीं चला सकते है.’’ पहलवान आगे जोड़ते हैं, ‘‘हमारे जैसा स्वस्थ-सेहतमंद गांव दिल्ली में और दूसरा शायद ही हो.’’ उनका दावा है कि ‘‘हमारे लड़के बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते, न दारू-शराब को हाथ लगाते हैं और न ही अश्लील क्लिपें देखते हैं.’’ लेकिन पहलवान जी एक फिल्म को लेकर बड़े चिंतित हैं, जिसने गांव के लड़कों पर बुरा असर डाल रखा है. वे कहते हैं, ‘‘फिल्म भाग मिल्खा भाग को देखकर हमारे गांव के लड़के अपना शरीर छरहरा और सिक्स पैक बनाने के लिए पागल हुए जा रहे हैं.’’ छरहरा शब्द इस गांव में गाली की तरह है. हट्टे-कट्ठे लोगों के इस गांव में डोले नाम कमाने के टिकट की तरह हैं. एनफील्ड बुलेट इस बस्ती के न सिर्फ आधिकारिक वाहन जैसी है, बल्कि इसका इस्तेमाल शक्ति प्रदर्शन के लिए भी किया जाता है. कभी कोई भी इसे हाथों से उठाकर अपना दम साबित करने लगता है. यही कोई 100 बुलेट होंगी गांव में.

यह किसी को नहीं पता कि गांव में बाउंसर बनने की दौड़ कब शुरू हुई. विजय पहलवान एक बार फिर यहां नुमायां होते हैं. उन्होंने सफेद रंग की एक टीशर्ट पहनी है, जिस पर लिखा हैः ‘‘डोंट आस्क मी हू पिकासो इज.’’ वे करीब 15 साल पहले का एक वाकया बताते हैं. एक दिन वे गांव के अखाड़े में मिट्टी में सने हुए कसरत कर रहे थे तभी एक पब का मालिक उनके पास आया. उसने 10,000 रु. दिए और दिल्ली में शादी के एक समारोह की सुरक्षा के लिए पांच लड़के मुहैया कराने को कहा. शौकिया तौर पर पहलवानी करने वाले लोगों के छोटे-से समूह को लुभाने के लिए यह वाकई बड़ी रकम थी. ये लोग खेती या फिर छोटी-मोटी सरकारी नौकरियां करते रहे हैं.
गांव के अखाड़े में लड़के इस तरह बनते हैं जवान
नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था में तेजी आने के बाद दिल्ली में मॉल खुलने लगे और उनके साथ नाइट क्लबों और बार की भी भरमार होने लगी. इनकी सुरक्षा के लिए मालिकों को मरियल सुरक्षा गार्डों की जगह ताकतवर लोगों की जरूरत थी. असोला-फतेहपुर बेरी के नौजवानों ने इसी मांग को पूरा करने का काम किया. अखबारों के वर्गीकृत विज्ञापनों में अब तो अक्सर बाउंसरों की जरूरत बताई जाती है. शादियों, फिल्म की शूटिंग, मॉल, स्कूल, कॉलेज और अस्पतालों में सुरक्षा के लिए बाउंसरों की मांग बढ़ती जा रही है. ‘‘बाउंसरी’’ का काम पाने के लिए बस एक ही शर्त है, और वह यह है कि शरीर मजबूत-गठीला होना चाहिए और साथ ही उस युवक का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए. एक बाउंसर को रोज 1,500 रु. मिल जाते हैं. विजय पहलवान के पास लड़के आते हैं और उनका पैर छूकर उनसे करियर की सलाह मांगते हैं. विजय कहते हैं, ‘‘मैं उन्हें पहले बारहवीं तक पढ़ाई करने और फिर इस करियर की ओर गंभीरता से ध्यान देने की सलाह देता हूं.’’

दिल्ली में जमीन-जायदाद की कीमतों में तेजी आने से भी इस गांव के लड़कों की चांदी हो गई है. पांच साल में जमीन की कीमत तीन गुना बढ़ गई है. फतेहपुर बेरी में एक एकड़ जमीन की कीमत 15 करोड़ रु. तक पहुंच गई है. कई गांवों ने अपने चरागाहों को फार्महाउस बनाने के लिए बेच दिया है और उन पैसों को ट्रांसपोर्ट के बिजनेस में लगा दिया है या फिर वे प्रॉपर्टी एजेंट का काम करने लगे हैं. कुछ लोग जिम का रास्ता पकड़ लेते हैं, ताकि बाउंसर का काम कर सकें.
दिल्ली अर्बन आर्ट कमीशन के पूर्व अध्यक्ष के.टी. रवींद्रन फतेहपुर बेरी और असोला को दिल्ली के प्राचीन गांवों के तौर पर देखते हैं, जो अब तेजी से शहर के विस्तार का हिस्सा बनते जा रहे हैं, लेकिन वहां का सामाजिक रहन-सहन अब भी ग्रामीण है. वे कहते हैं, ‘‘बाउंसर जैसे चलन एक नई उप-संस्कृति का प्रतीक हैं, जो पैसों के इर्द-गिर्द पनपती है.’’ गांव के आसपास के भाटी क्षेत्र के बीजेपी पार्षद करतार सिंह तंवर कहते हैं, ‘‘अगर यहां के युवक सेहत और फिटनेस में रुचि ले रहे हैं, तो यह बहुत अच्छी बात है.’’
(बाएं से) बाउंसर कुलदीप, विक्रम शर्मा और विक्रम तंवर
गांव में दशक भर पहले जहां अखाड़ा हुआ करता था, वहां अब 3,000 वर्गफुट का जिम बन गया है, जहां कसरत करने के तरह-तरह के उपकरण रखे हुए हैं. इसका दरवाजा सुबह चार बजे ही खुल जाता है और रात को 10 बजे बंद होता  है. इस जिम के मालिक राज तंवर कहते हैं, ‘‘हमारे लड़के दिल्ली में सबसे चुस्त-दुरुस्त हैं. जब आपके सामने आपसे दोगुने शरीर का कोई आदमी खड़ा हो तो आप उससे लड़ाई मोल लेने से पहले दो बार सोचेंगे.’’

जो लड़के बाउंसर का काम करते हैं, वे अपनी शिफ्ट के अनुसार जिम में कसरत के लिए जाते हैं. उनकी टाइमिंग देखकर आपको पता चल जाएगा कि वे किस जगह काम करते हैं. जैसे जो लोग दिन में ड्यूटी करते हैं, वे बहुत सुबह ही जिम आ जाते हैं और जो रात की ड्यूटी करते हैं, वे दोपहर के समय आते हैं क्योंकि रात की ड्यूटी के बाद उन्हें देर तक सोना पड़ता है. हर बाउंसर रोज अपने खाने पर करीब 300 रु. खर्च करता है. उसके खाने में एक पूरा उबला हुआ चिकेन, 10 अंडों की जर्दी, दर्जन भर केले और 10 लीटर दूध शामिल है. एक बाउंसर महीने में करीब 30,000 रु.-50,000 रु. की कमाई करता है.

बाउंसर नरेंद्र तंवर को ही लें. छह फुट लंबे और 105 किलो वजन वाले 35 वर्षीय नरेंद्र 200 किलो तक वजन उठा सकते हैं. उन्हें एंपल नाम से बुलाया जाता है. वे मशहूर व्यापारी करण सिंह तंवर के बॉडीगार्ड्स में हैं. करण सिंह तंवर 2009 के विधानसभा चुनावों में दिल्ली के सबसे अमीर उम्मीदवार थे. एंपल अपने कमर में खोंसी हुई .32 प्वाइंट की लाइसेंसी पिस्तौल निकालते हुए कहते हैं, ‘‘मैं आठवीं में फेल हो गया था. लेकिन आज मैं हर महीने 30,000 रु. कमाता हूं और हथियार साथ लेकर चलता हूं.’’
नीरज तंवर गांव के अपने जिम में 19.5 इंच के डोले निकालते हुए
सेहत और फिटनेस पर टिका यह पेशा तभी तक चल सकता है, जब तक एक बाउंसर का शरीर मजबूत बना हुआ है. इसीलिए उम्रदराज हो चुके बाउंसरों ने एजेंसियां चलानी शुरू कर दी हैं. विजय पहलवान को ही लीजिए. उन्होंने स्टार्म ग्रुप नाम से एक बाउंसर एजेंसी शुरू कर दी है. एक अन्य पूर्व बाउंसर विनोद तंवर गुडग़ांव में अपने चार नाइटक्लब चला रहे हैं, जिनके नाम हैं द एंपायर, इग्नाइट, लूसिया और पॉवरप्ले. सभी लड़के बाउंसर के लिए जरूरी नियमों का पालन करने का दावा करते हैं. ये नियम हैं-लड़ाई खुद शुरू न करना, गाली दिए जाने पर प्रतिक्रिया न करना, जज्बात काबू में रखना, तभी लड़ाई करना जब जान खतरे में पड़ जाए.

हालांकि कभी-कभी ये नियम टूट जाते हैं. अगस्त, 2011 में ऐसी ही एक घटना हुई थी, जब सहारा मॉल के तीन पबों में काम करने वाले बाउंसरों ने गुडग़ांव में चकरपुर गांव के लड़कों की पिटाई कर दी थी. बाउंसरों का कहना है कि शराब के नशे में धुत लड़कों ने आपे से बाहर होकर खुद उनसे मारपीट शुरू कर दी थी. दोनों पक्षों ने अपने-अपने साथियों को उस मारपीट में बुला लिया था. लेकिन फतेहपुर बेरी के बाउंसर जीत गए. एक स्थानीय बाउंसर राकेश तंवर के शब्दों में, ‘‘हमारे 18 बाउंसरों ने सैकड़ों गांववालों को धूल चटा दी.’’

इस घटना के बाद पुलिस ने गांव पर रेड डाल दी और कई बाउंसरों को गिरफ्तार कर लिया गया था. छह पबों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए और उन्हें प्राइवेट सुरक्षा गार्ड रखने के लिए कहा गया. वे पब कुछ महीने बाद फिर से खुल गए और बाउंसर भी वापस काम पर रख लिए गए. इस पर किसी तरह की आपत्ति नहीं जाहिर की गई. सहारा मॉल में बीच-बीच में एकाध झगड़ा हो ही जाता है. इस साल फरवरी में कुछ बाउंसरों ने छह अफगानों के साथ मारपीट की थी. इन झगड़ों ने बाउंसरों को सोचने पर मजबूर किया है. उनका कहना है कि वे गांव के सभी लड़कों को बाउंसर समाज नाम के एक ही छाते के नीचे लाने की कोशिश कर रहे हैं, जो इसके सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करेगा.

पर हर कोई इस काम को सम्मानजनक नहीं मानता. गांव के पास एक स्कूल में बाउंसर का काम करने वाले 27 वर्षीय कुलदीप तंवर कहते हैं, पैसा मिलता है, लेकिन कुश्ती वाली बात नहीं है...उम्मीद है अगली पीढ़ी तरक्की करे, जब हमारे यहां के बच्चे भी डॉक्टर, इंजीनियर और वकील बनेंगे.’’ जाहिर है तब शरीर नहीं, बल्कि दिमाग दमदार होगा.
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