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अब शान की नई सवारी बनती साइकिल

दुर्घटना के खतरे के बावजूद साइकिल सवार मस्ती और फिटनेस के लिए सड़कों पर आ रहे हैं. शहरी भारत में साइक्लिंग में दिलचस्पी धीर-धीरे बढ़ रही है.

अपडेटेड 4 नवंबर , 2013
अल्ताफ मखियावाला दिल्ली में रहते हैं और रोजाना निजामुद्दीन स्थित अपने घर से लोदी एस्टेट के अपने यूनीसेफ के ऑफिस तक अपनी डाहोन ईको 3 फोल्डेबल साइकिल से जाते हैं. मखियावाला तीन साल से साइकिल से आ-जा रहे हैं. उन्हें दिल्ली वालों की घूरती नजरों की आदत पड़ गई है.

लोग अकसर ट्रैफिक लाइट पर कार का शीशा उतारकर पूछते हैं कि कैसे कर लेते हो. 32 वर्षीय मखीवाला को यूरोप में पढ़ते समय साइकिल चलाने का चस्का लगा था. वे कहते हैं, “मैं ट्रैफिक नियमों का पूरी तरह पालन करता हूं, लाइट्स पर रुकता हूं, हाथ से सिग्नल देता हूं और जिधर मुडऩा है, उसके हिसाब से दाईं या बाईं तरफ धीरे-धीरे चलता हूं.”

शहरी भारत में साइक्लिंग में दिलचस्पी भले ही धीरे-धीरे बढ़ रही हो, लेकिन हमारे देश में पहली साइकिल 1890 में आ गई थी. हीरो साइकिल्स के मैंनेजिंग डायरेक्टर पंकज मुंजाल बताते हैं कि उन दिनों ‘रेले’ और ‘हरक्यूलिस’ जैसी विदेशी साइकिलें 45 रु. में मिला करती थीं. 1919 में शिमला के मॉल रोड पर पहली बार हुई एक घंटे की साइकिल रेस को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी.

भारत के पहले ओलिंपिक खिलाड़ी सोहराब एच. भूत ने 1920 में भारत की राष्ट्रीय साइक्लिंग फेडरेशन की स्थापना की. 1950 के दशक में जब भारतीय साइकिल कंपनियों का विस्तार हुआ और साइकिलें सस्ती हुई, तब कहीं जाकर आम आदमी को इसकी सवारी करने का मौका मिला.

यह तब की बात है, जब कार सर्वसुलभ नहीं थी. अब तो समाज में अपनी हैसियत की परवाह भी बहुत-से लोगों को इस पर्यावरण मित्र सवारी को अपनाने से रोकती है. 43 वर्षीय अनिल उचिल कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन प्रोफेशनल हैं. उन्होंने 2010 में मुंबई में ‘साइकिल टू वर्क’ की शुरुआत की. साइकिल चलाने के मामले में उचिल हैसियत वाली बात से सहमत हैं, लेकिन उनका कहना है कि इंपोर्टेड महंगी साइकिलों के आने से माहौल काफी बदला है.

1993 से साइकिल से अपने ऑफिस जाने वाले उचिल कहते हैं, “आज शहरों में औसतन एक साइक्लिस्ट जो बेहतरीन साइकिल चला रहा है, उसकी कीमत 20,000 रु. से कम नहीं है. लेकिन मेरा सारा ध्यान मध्यम आय वर्ग पर है, जो शायद इतनी महंगी साइकिल खरीदना अफोर्ड नहीं कर सकता. मैं साइकिल से जुड़ी झूठी अकड़ को भी कम करने की कोशिश कर रहा हूं. मेरा संदेश सीधा-सा हैः ‘आप कोई भी साइकिल चलाएं, बस उसे मेन्टेन करें और उसकी सवारी करें.”

दरअसल अभी हमारे देश में साइकिल के शौकीनों की राह इतनी आसान भी नहीं है. इसके लिए सिर्फ सड़कों पर जबरदस्त भीड़, खराब सड़कें और साइकिल सवारों के लिए अलग रास्ते की कमी ही जिम्मेदार नहीं है. पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में तो शहरों में साइकिल चलाने पर कई तरह की पाबंदी लगा दी गई है.

कोलकाता में 2008 से 38 सड़कों पर साइकिल चलाना मना है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो इस साल से नियम और सख्त कर दिए हैं. 24 मई को ममता ने शहर की 174 सड़कों पर साइकिल बंद करवा दी. इनमें से 42 सड़कों पर साइकिल चलाना बिल्कुल मना है, जबकि बाकी सड़कों पर रात 11 बजे से सुबह 7 बजे तक साइकिल नहीं चला सकते.

साइकिल चलाने वाले इस पाबंदी से बहुत नाराज हैं और उन्होंने 8 सितंबर को साइकिल सत्याग्रह और 5 अक्तूबर को चक्र सत्याग्रह के जरिए अपना विरोध दर्ज किया. हाल ही में कोलकाता म्युनिसिपल डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक शहर में रोजाना साइकिल पर 25 लाख फेरे लगाए जाते हैं. साइकिल के शौकीनों के एक ग्रुप राइट टू ब्रीद के संस्थापक 39 वर्षीय गौतम श्रॉफ कहते हैं, “भारत के शहरों में जहां, सड़कों पर भारी भीड़ है, प्रदूषण बढ़ रहा है और ईंधन के दाम आसमान छू रहे हैं, वहां साइकिल चलाने पर प्रतिबंध बहुत बेतुका है.

नील लॉ (दाएं से तीसरे) अपने साथी साइकिल सवारों के साथ

लंदन जैसे कई बड़े यूरोपीय शहरों ने साबित कर दिया है कि इन सब समस्याओं का जवाब साइकिल ही है.” वे एक एनजीओ स्विच ऑन की सचिव एकता जाजू के साथ मिलकर साइकिल पर पाबंदी के विरोध का नेतृत्व कर रहे हैं. साइकिल टूर्स का आयोजन करने वाली कंपनी हिमालयन ट्रेलवेज के मालिक 46 वर्षीय नील लॉ उनसे सहमत हैं. वे कहते हैं, “कोलकाता की 60 फीसदी आबादी साइकिल चलाती है. इस पाबंदी का असर हम सब पर पड़ेगा.”

उनकी लड़ाई साइकिल सवार को सड़क पर जगह दिलाने की है. आइडी स्पोट्र्स के चेयरमैन और एमडी अखिल खान का कहना है कि दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्पोर्ट साइक्लिंग दुनियाभर में सड़कों पर जगह मांग रहा है. आइडी स्पोट्र्स, महाराष्ट्र साइक्लिंग एसोसिएशन, पर्यटन मंत्रालय, यूनियन साइकिलिस्ट इंटरनेशनल और साइकिलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के साथ मिलकर गोदरेज इऑन टूर द इंडिया के दूसरे संस्करण का प्रचार कर रहा है, जो टूर द फ्रांस की तर्ज पर हो रहा है.

फिल्म अभिनेता जॉन अब्राहम इस आयोजन के ब्रांड एम्बेसडर हैं. अखिल खान कहते हैं, “आज राजनेताओं से लेकर आम आदमी तक हर कोई साइकिल चलाता है.” अब लोग शर्मिंदा होने की बजाए अपनी साइकिल शान से दिखाते हैं. इस बदलते रुख का श्रेय कुछ हद तक सलमान खान जैसे अभिनेताओं को भी जाता है, जिन्हें साइकिल का अनौपचारिक ब्रांड एम्बेसडर माना जाता है.

40 वर्षीय जॉन अब्राहम भी अखिल खान की जबान बोलते हैं. महंगी मोटरसाइकिलों के शौकीन जॉन का कहना है कि भारत के बाजार में जल्द ही और भी कई तरह की फैंसी साइकिलें दिखाई देंगी. साइकिल के शौकीन सुविधाओं की कमी के कारण हार नहीं मानने वाले हैं. जॉन कहते हैं, “पहले लोग कहा करते थे कि भारत में मैराथन का अभ्यास नहीं किया जा सकता क्योंकि यहां की सड़कें बहुत खराब हैं.

लेकिन आज हर जगह लोग मैराथन का अभ्यास करते दिखाई देते हैं. अब यह शहरी भारत की सोच का हिस्सा हो गया है. यही बात साइकिल पर भी लागू होती है. साइकिल का शौक जगाना होगा.”

देश में साइकिल के शौकीनों की तादाद बढ़ती जा रही है. 27 वर्षीय सुहेल अहमद ने दो साल पहले 5 दोस्तों के साथ मिलकर एक साइक्लिंग ग्रुप शुरू किया था. धीरे-धीरे लोग जुडऩे लगे. वे सवाल करने लगे कि किस तरह की साइकिल उनके लिए ठीक रहेगी. अहमद ने महसूस किया कि बाजार में जानकारी की कमी है.

उन्होंने चूजमाइबाइसिकल.कॉम नाम से एक वेबसाइट शुरू की, जो नए लोगों को अपने लिए सही साइकिल चुनने में मदद करती है. अहमद ने बताया कि अब इस वेबसाइट को और अपग्रेड किया जा रहा है ताकि इसका इस्तेमाल आसान हो जाए. वे साइकिल के शौकीनों की बढ़ती तादाद को देखकर बहुत खुश हैं.   

लेकिन साइकिल सवारों की हिफाजत के मोर्चे पर भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. खासकर महिलाओं के लिए भारत में साइकिल चलाना लोहे के चने चबाने की तरह है. 40 वर्षीया वासु प्रिमलानी पर्यावरण विशेषज्ञ, कॉमेडियन और ट्राइएथलीट हैं, जो दुनिया की सबसे कठिन रेसों में से एक आयरनमैन, 2014 के लिए तैयारी कर रही हैं. उनका कहना है कि महिलाओं को दिल्ली की सड़कों पर जगह पाने के लिए रोजाना जूझना पड़ता है.

वे कहती हैं, “इस देश में साइकिल लेन तो मजाक हैं और साइकिल चलाने वालों को रोज ही ड्राइवर टक्कर मारकर चले जाते हैं. शायद वे दिखाना चाहते हैं कि सड़क के मालिक वे ही  हैं.” नेशनल साइक्लिंग कोच रूमा चटर्जी को जून में नोएडा में एक तेज रफ्तार गाड़ी ने रौंद दिया था.

पर्यावरण आंदोलनकारी सुनीता नारायण भी साइकिल चलाते समय एक कार से चोट खाकर इलाज करा रही हैं. तेज गाड़ी चलाने वालों के अलावा सड़क के गड्ढे भी कम नहीं हैं. बस की सवारियां पान थूक देती हैं. पैदल चलने वाले तंज कसते हैं और लावारिस जानवरों का डर भी रहता है.

प्रिमलानी ने बताया कि उन्हें 12 बार कुत्तों ने काटा है पर उन्होंने हार नहीं मानी. उनका कहना है, “यह अपनी सेहत, अपने माहौल के प्रति मेरी प्रतिबद्धता है और इसका सरोकार नई चीजों की तलाश से है.”  
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