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श्रीलंका का राष्ट्रपति चुनाव वहां के लोगों के लिए 'करो या मरो' का सवाल कैसे बन गया है?

श्रीलंका 21 सितंबर को राष्ट्रपति चुनाव में उतरने के लिए कमर कस रहा. 2022 के आर्थिक पतन से अब भी वह पूरी तरह उबर नहीं पाया है. ऐसे में यह चुनाव उसके लिए निर्णायक अवसर

एसजेपी के पार्टी कार्यकर्ता 22 अगस्त को रैली में एस. प्रेमदास का स्वागत करते हुए
एसजेपी के पार्टी कार्यकर्ता 22 अगस्त को रैली में एस. प्रेमदास का स्वागत करते हुए
अपडेटेड 17 सितंबर , 2024

दुनियाभर में श्रीलंका की पहचान बन चुका हिंद महासागर की लहरों से घिरा कोलंबो का गाल फेस आजकल एक अजीब-सी शांति से भरा है. समुद्र तट पर हर तरफ परिवार के साथ आए लोगों की भीड़ है, लोग बॉल से खेलते नजर आते हैं और खाने-पीने की दुकानों पर बिक रही फ्राइड फिश का लुत्फ भी उठा रहे हैं.

लेकिन करीब दो साल पहले जुलाई 2022 में यह अरागालया (सिंहली भाषा में इसका आशय होता है संघर्ष) बना हुआ था, जहां हर तरफ बस आक्रोश से भरे लोगों का जमावड़ा दिख रहा था. आर्थिक बदहाली से गुस्साए लोग राजपक्षे बंधुओं के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे.

उस समय महंगाई दर 100 फीसद से ऊपर पहुंच चुकी थी. गाड़ियों के लिए ईंधन उपलब्ध नहीं हो पा रहा था, और अनाज तथा उर्वरक संकट झेल रहा श्रीलंका आर्थिक कंगाली के कगार पर पहुंच गया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे और राष्ट्रपति पद पर आसीन उनके छोटे भाई गोटाबाया दोनों को न केवल इस्तीफा देना पड़ा बल्कि बेकाबू भीड़ के आवासीय परिसरों में घुसने के बाद तो सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा.

हालांकि, उसके बाद राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने कमान संभाली. हालात काबू में लाने के लिए उन्हें कुछ कठोर कदम उठाने को बाध्य होना पड़ा था. देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए उन्होंने अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से 2.9 अरब डॉलर का कर्ज और भारत से करीब 4 अरब डॉलर की उदार वित्तीय सहायता ली.

भारत का यह दक्षिणी पड़ोसी वैसे अब भी आर्थिक दृष्टि से फिसलन भरी जमीन पर ही खड़ा है. यही वजह है कि 21 सितंबर को प्रस्तावित राष्ट्रपति चुनाव संकट में घिरे श्रीलंका के लिए निर्णायक मोड़ साबित होने जा रहा है. चुनाव में स्पष्ट नतीजा इस द्वीप राष्ट्र के लिए खुद को फिर से पटरी पर लाने का एक आखिरी मौका हो सकता है.

दो दर्जन अन्य लोगों के साथ विक्रमसिंघे ने भी राष्ट्रपति पद पर अपनी दावेदारी जताई है. लेकिन सियासी परिदृश्य में अवसरवादी गठबंधनों का बोलबाला है, जिनमें शामिल नेता समय-समय पर अपनी निष्ठाएं बदलते रहे हैं, जिस वजह से उन्हें फुदकते मेंढक तक कहा जा रहा है.

राष्ट्रपति खुद असामान्य स्थितियों में घिरे हैं. वे यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के प्रमुख हैं लेकिन 2020 के प्रधानमंत्री चुनाव में उनका गुट सिमटकर रह गया था, जब पार्टी में उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे सजित प्रेमदास ने समागी जन बलवेगाया (एसजेबी) नाम से एक राजनैतिक गठबंधन बनाया.

उन्होंने यूएनपी के अधिकांश सदस्यों को अपने पाले में किया और साथ ही कुछ छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन भी कर लिया. सियासी खेल ने कुछ ऐसी करवट ली कि विक्रमसिंघे को संसदीय चुनाव में अपनी सीट पर तो हार का सामना करना पड़ा. लेकिन आनुपातिक प्रतिनिधित्व कोटे से यूएनपी के एकमात्र सांसद बने और फिर 2022 में राजपक्षे बंधुओं के समर्थन से राष्ट्रपति पद पर पहुंच गए.

सत्तारूढ़ श्रीलंका पोडुजना पेरुमना (एसएलपीपी) की कमान राजपक्षे बंधुओं के हाथों में थी. एसएलपीपी ने 2020 के संसदीय चुनाव और 2019 के राष्ट्रपति चुनाव दोनों में शानदार बहुमत से जीत हासिल की थी. लेकिन आर्थिक मोर्चे पर राजपक्षे बंधुओं की गलतियां काफी भारी पड़ गईं. अमीरों के लिए करों में कटौती से जहां राजस्व में गिरावट आई, वहीं रातोरात रासायनिक उर्वरकों पर पाबंदी ने कृषि पैदावार पर गंभीर रूप से असर डाला. कोविड के कारण श्रीलंका में पर्यटन क्षेत्र तबाह हो गया.

छह बार प्रधानमंत्री पद पर काबिज रह चुके विक्रमसिंघे को पूरा भरोसा है कि आईएमएफ की शर्तों के मुताबिक परोक्ष करों में वृद्धि और साहसिक आर्थिक सुधार वाले कदमों के साथ सख्त राजकोषीय नीतियां लागू कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की अपनी कोशिशों की बदौलत वे अपना पहला राष्ट्रपति चुनाव जीतेंगे. एक कुशल प्रबंधक माने जाने वाले विक्रमसिंघे निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे हैं और हालात स्थिर करने तथा आर्थिक विकास के वादे पर जोर दे रहे हैं.

विक्रमसिंघे ने इंडिया टुडे से कहा, ''बनना या बिगड़ना, निर्धारित करने में यह चुनाव निर्णायक साबित होगा. यही श्रीलंका का भविष्य तय करेगा. इससे ही तय होगा कि लोगों की स्थिति बेहतर होगी या फिर सब कुछ बिखरकर रह जाएगा. हम 2022 जैसी स्थिति में पहुंचेंगे या फिर हालात उससे भी बदतर होंगे.''

उन्हें दोनों पक्षों से समर्थन की उम्मीद है: अपनी पार्टी यूएनपी के सदस्यों से और एसएलपीपी के अधिकांश सांसदों से भी. 2020 में उनकी पार्टी का मुकाबला एसएलपीपी के साथ ही था लेकिन अब वह उस पर ही दांव लगा रहे हैं क्योंकि राजपक्षे बंधु अब सियासी परिदृश्य से बाहर हैं.

हालांकि, राजपक्षे परिवार की राजनैतिक प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए महिंदा के 38 वर्षीय बेटे नमल ने एसएलपीपी के झंडे तले चुनाव लड़ने का फैसला किया है. इससे जहां विक्रमसिंघे के वोट कट सकते हैं, वहीं राजपक्षे के संसदीय चुनाव की दौड़ में शामिल होने की संभावना भी कायम रह सकती है, जो इसके बाद ही संभावित है.

विक्रमसिंघे का समर्थन न करने के संबंध में एसएलपीपी के महासचिव सागर करियावासम कहते हैं, ''राष्ट्रपति एक नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में विश्वास करते हैं जबकि हम एक राष्ट्रवादी अर्थव्यवस्था चाहते हैं. हमें उनका समर्थन करना हो तो बीच का रास्ता निकालना होगा. लेकिन उन्होंने हमारे अधिकांश सदस्यों को अपने पक्ष में कर लिया है, फिर भी हमें विश्वास है कि हमारा समर्थन आधार नहीं छीन पाएंगे.''

अलबत्ता 75 वर्षीय विक्रमसिंघे 60 की लपेट वाले दो उम्मीदवारों के साथ अपने सबसे कड़े मुकाबले में घिरे हैं. एक यूएनपी के उनके पूर्व सहयोगी सौम्य और शालीन 57 वर्षीय सजित प्रेमदास हैं जो लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के ग्रेजुएट और पूर्व राष्ट्रपति आर. प्रेमदास के बेटे हैं. वे तमिल अल्पसंख्यकों सहित तमाम राजनैतिक रंगतों की नुमाइंदगी करने वाली 30 से ज्यादा पार्टियों के ताकतवर गठबंधन की अगुआई कर रहे हैं.

एनपीपी अलायंस के राष्ट्रपति उम्मीदवार, जेवीपी नेता अनुरा कुमार दिसानायके

दूसरे हैं 58 वर्षीय अनुरा कुमार दिसानायके, जो मार्क्सवादी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) और नेशनल पीपल्स पावर (एनपीपी) गठबंधन दोनों के प्रमुख हैं. प्रेमदास और दिसानायके दोनों बड़े बदलावों का सूत्रपात करने, भ्रष्टाचार पर लगाम कसने और रहन-सहन के स्तर में सुधार लाने के मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं. प्रेमदास कहते हैं, ''हम न तो अति दक्षिणपंथी, नव-उदार आर्थिक नीतियों में यकीन करते हैं जिसका नतीजा क्रोनी कैपिटलिज्म के रूप में सामने आया, और न ही अति वामपंथी समाजवादी तौर-तरीकों में. हम मध्यमार्गी दूरदृष्टि प्रदान करेंगे.''

दूसरी तरफ दिसानायके राज्यसत्ता के अंधाधुंध सुधारों में यकीन करते हैं, जिनमें राष्ट्रीय एकता और सामंजस्य को बढ़ावा देने के लिए नया संविधान भी शामिल है. उनकी एनपीपी को मध्य-वाम सामाजिक लोकतांत्रिक गठबंधन गढ़ते देखा गया है और उन्हें अरागालया (2022 का जनविद्रोह और उसमें शामिल लोग) का काफी कुछ समर्थन मिलने की संभावना है. एनपीपी विचारक और सांसद हरिणी अमरसूरिया कहती हैं, ''श्रीलंका सत्ता पर कुलीनों के कब्जे से पैदा बदइंतजामी और भ्रष्टाचार की वजह से ढह गया. हमारी अर्थव्यवस्था डगमगाती बुनियाद पर खड़ी है, हम आयात पर निर्भर हैं, जिसमें मैन्युफैक्चरिंग तो तकरीबन मटियामेट ही हो गई है.''

मुकाबला कांटे का है, जिसमें जनमत सर्वेक्षण बता रहे हैं कि 30 फीसद से ज्यादा मतदाता ढुलमुल हैं. श्रीलंका में राष्ट्रपति प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से यानी सीधे चुना जाता है, जिसमें उम्मीदवार को जीतने के लिए 51 फीसद वोटों की जरूरत होती है. अगर कोई स्पष्ट विजेता नहीं उभरता है तो दूसरी और तीसरी वरीयता के वोटों से फैसला करने की व्यवस्था है.

अंदेशा इस बात का है कि अगर किसी भी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो इसका नतीजा कमजोर राष्ट्रपति की शक्ल में सामने आ सकता है, जिसके लिए जोखिम भरे आर्थिक सागर में देश की नैया खेना मुश्किल होगा. भारत चाहता है कि श्रीलंका में स्थिरता बनी रहे; वह सांस रोककर नतीजों पर नजर गड़ाए है.

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