प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 14 जुलाई को उन छात्रों के आक्रोश को भड़का दिया जो 1971 के मुक्ति संग्राम सेनानियों के परिवारों—यहां तक कि उनके नाती-पोतों—के लिए सरकारी नौकरियों में निर्धारित कोटे का विरोध कर रहे थे. उन्होंने छात्रों को 'रजाकार’ तक कह डाला, जो 1971 के दौरान पाकिस्तान के समर्थक रहे थे.
जब सरकारी विश्वविद्यालयों के छात्रों के साथ निजी विश्वविद्यालयों के छात्र भी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनने लगे तो आंदोलन को दबाने के लिए सरकार ने परिसर और ऑनलाइन दोनों ही तरह की कक्षाओं पर पाबंदी लगा दी. सरकार को शायद सोशल मीडिया पर जेन-जी की सक्रियता का ख्याल नहीं आया. उसने न छात्रों की मुश्किलों को समझा और न ही उनके क्रोध, ऊर्जा और संकल्प को ही ध्यान में रखा.
पुलिस और सत्तारूढ़ अवामी लीग कार्यकर्ताओं के अलावा इसकी युवा और छात्र इकाई जुबा लीग और छात्रो लीग के सदस्यों ने ढाका और अन्य जगहों पर कॉलेज परिसरों में प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. 18 जुलाई को धानमंडी जंग के मैदान में तब्दील हो गया. बेशक, छात्र तब तक गुस्से में भरे बांग्लादेश की आवाज बन चुके थे, और पुलिस और मास्टेनोक्रेसी यानी सत्ता मद में चूर अवामी लीग के दमन का शिकार बन रहे थे.
प्रदर्शनकारियों और उनके आसपास मौजूद लोगों को बड़ी संख्या में मारा जाने लगा था. युवा पुरुष-महिलाएं, लड़के-लड़कियां, और यहां तक कि ढाका में खिड़कियों और छतों से झांकते बच्चे भी निशाना बन रहे थे. रोड नंबर 9/ए स्थित मेरे अपार्टमेंट वाले ब्लॉक के बाहर छोटी-सी गली में भीषण लड़ाई छिड़ी थी. आंसू गैस के गोले, रबर की गोलियां, ग्रेनेड और गोला-बारूद दागे जाने से पूरा इलाका दहल उठा था. डेटा सेवाएं अवरुद्ध होने से हम हालात से अनजान और हैरान थे.
बस यही लग रहा था कि हालात और बिगड़ने वाले हैं. स्पष्ट तौर पर लीग विरोधियों, जिनमें कट्टरपंथी समूह भी शामिल हैं, ने छात्र आंदोलन का लाभ उठाना शुरू कर दिया. भारी हिंसक दूसरा चरण निश्चित तौर पर एकदम सुनियोजित था, जिसमें गरीबों-बेरोजगारों की भीड़ शामिल थी. शेख हसीना ने निर्विवाद रूप से बांग्लादेश में प्रभावशाली बुनियादी ढांचा और आर्थिक विकास किया लेकिन निचले स्तर तक इसका फायदा नहीं पहुंचा, जबकि निरंकुशता और भ्रष्टाचार ने बुरी तरह प्रभावित किया. सरकार विरोधी हिंसा की आग भड़की. दंगाइयों ने सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना शुरू कर दिया, सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ताओं और पुलिसवालों को भी शिकार बनाया गया. 19 जुलाई की मध्यरात्रि से कर्फ्यू और देखते ही गोली मारने के आदेश लागू कर दिए गए. सेना उतार दी गई.
एक हफ्ते बाद मैं एक बड़े व्यवसायी के ढाका स्थित आवास पर रात्रिभोज पर गया था. वहां एक प्रमुख अखबार के संपादक भी हमारे साथ मौजूद थे. सेना की तैनाती को इस बात का संकेत बताया गया कि भारत हसीना का समर्थन कर रहा है. 'टिकाऊ सत्ता’ की बात हो रही थी, जिसमें शेख हसीना की बहन रेहाना के आगे आने की संभावना थी, जिसका उनके टेक्नोक्रेट बेटे और ब्रिटेन में सांसद बेटी की तरफ से समर्थन किया जा रहा था.
लेकिन हालात बदलने के साथ ही यह सब बेमानी हो गया. ठीक उसी तरह जैसे शेख हसीना सरकार ने कोटा रद्द करने को लेकर कोर्ट पर दबाव डाला और पूर्व की तमाम हत्याओं के बाद यही माना गया कि छात्र, उग्र लोग और उत्साहित विपक्ष भी पीछे हट जाएगा. लेकिन असर उलट रहा.
इस सबके बीच, भारत के प्रति भ्रष्ट, भाई-भतीजावाद प्रेरित, अहंकारी, निरंकुश सरकार के नेताओं को बचाने की धारणा कायम रही. 5 अगस्त को हसीना के दिल्ली के पास हिंडन एयरफोर्स बेस पहुंचने के साथ ऐसी धारणाओं को और बल मिला. उनके देश छोड़ने के बाद दंगाइयों ने धानमंडी में रोड नंबर 2 पर स्थित पूर्व भारतीय उच्चायोग परिसर को आग के हवाले कर दिया. उसे 2010 में इंदिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर फिर से विकसित किया गया था.
बांग्लादेश में भारत को लेकर काफी खराब धारणा बनी है, खासकर 2022 के बाद से जबसे उसने जी-2-जी नजदीकी को बढ़ाया है. जी-2-जी यानी दोनों देशों की सरकार के बीच मधुर संबंध भले ही बढ़े हों लेकिन भारत-बांग्लादेश में पी-2-पी यानी दोनों देशों के लोगों के बीच परस्पर संबंधों में अविश्वास एक बड़ी समस्या बन गया. भारत के सत्ताधारी विचारक और विदेश नीति के जानकार इसकी अनदेखी ही कर सकते थे क्योंकि उन्होंने तो प्रधानमंत्री तक आसान पहुंच के कारण अपनी आंखें ही मूंद ली थीं.
विशेष तौर पर व्यापार, संपर्क और पर्यटन क्षेत्र में प्रभावशाली कार्यक्षमता बढ़ने के साथ विकसित मजबूत द्विपक्षीय संबंधों के बावजूद अविश्वास की एक भावना बनी हुई है. द्विपक्षीय संबंधों में यह बाधा दूर करने के लिए भारत को यह स्वीकारने की जरूरत है कि बांग्लादेशी 1971 के बाद से काफी आगे बढ़ चुके हैं. जरूरत इस बात की है कि उनकी भावनाओं को अधिक सम्मान मिले, अनावश्यक कोई धारणा न बनाई जाए, बेहतर संचार के साथ व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाए, व्यापार में रियायतें दी जाएं और नदी जल साझा करने जैसे जटिल मुद्दों को सुलझाया जाए.
बहरहाल, प्रदर्शनकारी छात्रों और छात्र नेताओं ने इस सबके बीच काफी बुद्धिमत्ता दिखाई. राष्ट्रपति और सैन्य सेवा प्रमुखों के साथ बातचीत के दौरान उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे न तो इमरजेंसी घोषित किए जाने के पक्ष में हैं और न ही सैन्य शासन चाहते हैं. यह देश दोनों ही दौर की भयावहता झेल चुका है. छात्रों ने अंतरिम सरकार के नेतृत्व के लिए अर्थशास्त्री मुहम्मद यूनुस को चुना. बांग्लादेशी राष्ट्रपति को सिर्फ उन्हें शपथ दिलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. छात्र 15 वर्ष पहले सत्ता से बाहर कर दी गई बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के फिर से उभरने को लेकर सतर्कता बरत रहे हैं क्योंकि उसके भी राज में मास्टेनोक्रेसी पनपी थी. कट्टरपंथी इस्लामवादियों पर भी कड़ी नजर है, जो बीएनपी के साथ मिलकर लोकतंत्र में बाधक बन सकते हैं.
एक महीने से भी कम समय में छात्रों ने विघटनकारी तत्वों से पुनर्निर्माणकर्ता तक का सफर तय कर लिया है. प्रशासक, नेता, नीति-निर्माता और शिक्षक भी अब उनसे सीख रहे हैं.
—सुदीप चक्रवर्ती (यूनिवर्सिटी ऑफ लिबरल आर्ट्स बांग्लादेश (यूएलएबी), ढाका में दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के निदेशक)