इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2024 धन्यवाद प्रस्ताव
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2024 का आयोजन 15 और 16 मार्च को राजधानी दिल्ली के ताज पैलेस में हुआ. इसमें 16 मार्च को इंडिया टुडे समूह की वाइस प्रेसिडेंट और एडिटर-इन-चीफ कली पुरी ने धन्यवाद प्रस्ताव के तौर पर श्रोताओं के सामने अपनी बातें रखीं. जिसे हम यहां आपके साथ साझा कर रहे हैं.
हम ऐसे दौर में हैं जहां भरमाने, भटकाने और ध्यान को पूरी तरह भ्रष्ट करने की एक अर्थव्यवस्था खड़ी है. सब कुछ बताओ, सार-संक्षेप, बारीकियां, ब्यौरे, और आपको मिलते हैं... 8 सेकंड. इतनी ही देर में पाठक, दर्शक, श्रोता अगली बड़ी सुर्खी की ओर स्वाइप करने में लग जाता है. ये कुछ झलकियां हैं. हम हर 5 सेकंड में 30 सेंटीमीटर स्क्रॉल कर लेते हैं. हफ्ते में आपका अंगूठा 2.7 किलोमीटर घूम चुका होता है...लाजवाब कसरत!
मैं किसी मीडिया संगठन के संचालन के लिए इससे अधिक रोमांचक लेकिन चुनौतीपूर्ण वक्त की कल्पना नहीं कर सकती. यहां दो अलग-अलग मेगा रुझान हैं, जो विपरीत दिशाओं में खींच रहे हैं.
एक, सोशल मीडिया से मिला सशक्तीकरण, जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उदारीकरण किया. इन नए उपकरणों ने भारतीय समाज के बड़े हिस्से को आवाज दी है, जो पहले अनजाने में अनसुनी रह जाती थी.
इसलिए, कई वैकल्पिक तथ्य और सत्य उपलब्ध हैं, लेकिन दूसरा मेगा रुझान यह है कि हमारे ध्यान देने की अवधि बेहद थोड़ी हो गई है. आपके पास ढेरों बारीकियां बताने को हैं, लेकिन कोई सुनना नहीं चाहता, इसलिए कोई हमेशा अनसुना और उपेक्षित महसूस करेगा.
तो, ऐसे दौर में मीडिया संगठन की भूमिका क्या है और क्या होनी चाहिए? क्या कैमरा, ट्विटर और यूट्यूब अकाउंट वाला कोई भी मीडिया संगठन है? क्या वह पत्रकार है? आजकल निष्पक्ष सूचना क्या है? किसी के लिए जो आतंकवादी है, वह दूसरे के लिए स्वतंत्रता सेनानी है, एक का सच, दूसरे का झूठ है. आप फर्क कैसे करें?
जब कोई राहगीर किसी दुर्घटना का लाइवस्ट्रीम करता है या कोई बलात्कार पीड़िता का नाम बता देता है तो हम किस नैतिक मानदंड या स्व-नियमन की बात कर रहे हैं? आप उस तथ्य के बारे में क्या कर सकते हैं कि कुछ मीडिया अब सरकार के नजरिए को तर्कपूर्ण तथ्यों और ग्राफिक्स के साथ समझाने में गर्व महसूस करते हैं, और वे सरकार के दबाव के बिना ऐसा करते हैं? क्या वे स्वतंत्र हैं? क्या वे मीडिया हैं? क्या वे प्रोपगैंडा हैं? फिर, अगर आप हमेशा सरकार विरोधी हैं, तो क्या आप स्वतंत्र हैं?
इस नई खंडित, फिल्टर की गई, बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हकीकत में मीडिया संगठनों की क्या भूमिका है, यह सवाल मुझे बहुत हैरान-परेशान करता है. मेरी समझ में, हमेशा की तरह सच्चाई कहीं बीच में है.
मेरा मानना है कि जिम्मेदार मीडिया की नई भूमिका पुल बनना है, दाएं-बाएं या वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच सेतु बनाना. हम खबरों के कबीलाकरण, हम बनाम वे के चश्मे से सहमत नहीं हैं.
इसका मतलब सिर्फ मध्यम मार्ग अपनाना नहीं है, मेरा मानना है कि हमें पक्षपातपूर्ण ध्वनियों के बंद कमरों में छेद करने के नए-नए तरीके तलाश करने की जरूरत है, ताकि उनमें अंटे लोग दूसरी तरफ की हल्की रोशनी देख सकें, जिससे विविध तरह की राजनैतिक ध्वनियों को सुनें-समझें.
वजह यह कि बेहद ध्रुवीकृत तथ्य भले सोशल मीडिया एल्गोरिदम के माफिक हो, न्यूज रूम को सहज कर दे और सीमा-रेखाओं को मोटी कर दे, लेकिन वह हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने की मदद नहीं करता.
येल और बर्कले के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि एकदम वफादार समाचार ऑडियंस भी भिन्न तथ्यों और नजरियों को जानकर अपना मन बदल सकती है. हमारी पूरी कोशिश अपने ऑडियंस को अतिवाद से रचनात्मक असहमति की ओर ले जाने की है.
मेरी पूरी टीम आखिरी बिंदु तक बहस करती है और, बतौर एग्जीक्यूटिव एडिटर-इन-चीफ मुझे खूब मजा आता है पूरी दृढ़ता से विचार रखने वाले, बहस को अंत तक खींचने वाले, विद्रोही स्वभाव वाले, तीखे सवाल करने वाले, हल्ला-हंगामा करने वालों से भरे न्यूज रूम में.
ये सभी अच्छे पत्रकार के लक्षण हैं. हम सवाल पूछने से नहीं डरते. हमारा न्यूजरूम असहमति का अड्डा है, आप चाहें तो कह सकते हैं, असहज शांति छाई रहती है, और मैं उसका कोई और स्वरूप नहीं चाहती. मुझे लगता है कि यह हमें बेहतर बनाता है, जितने अधिक नजरिए, उतना बेहतर. उससे हमारी स्टोरियां अधिक संतुलित बनती हैं.
मुझे अस्वीकार में कुछ सिर हिलते दिखाई दे रहे हैं. आशंकित? आप सही हैं. इस देश का हर मीडिया सही है. फैसला करने से पहले इस पर विचार अवश्य करें.
मीडिया विपक्ष की भूमिका नहीं निभा सकता, ऐसा करने की उम्मीद करने से गोदी या मोदी मीडिया के अनुचित आरोप लगते हैं. अगर विपक्ष बिखरा, लुंजपुंज है तो इसके लिए मीडिया को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. अगर दूसरे पक्ष का वजूद नहीं है तो हम उसे भी उतनी ही मजबूती से पेश नहीं कर सकते.
इस बॉक्सिंग मैच में हम पर्यवेक्षक हैं, खिलाड़ी नहीं. अगर कोई पक्ष कमजोर है या ठीक प्रदर्शन नहीं कर पाता है, तो हम रिंग में नहीं कूद सकते. यह डर नहीं है, यह नियमों, भूमिकाओं और क्षमता का मामला है. हम माध्यम हैं, संदेश नहीं.
दूसरे, मीडिया के रूप में हमारी भूमिका आपको सूचना के प्राथमिक स्रोत के जितना करीब हो सके, ले जाना है, छह डिग्री नहीं, बल्कि दो डिग्री फर्क के साथ. हमारा फोकस हमेशा यह होता है कि सीधे घटना-स्थल या जमीन से या न्यूजमेकर से आप तक आखिरी जानकारी पहुंचे, और संप्रेषण और अनुवाद में न्यूनतम त्रुटि रहे.
इसलिए, जैसे ही हम चुनाव मोड में आते हैं और हम खबरों को बेहद नशीले और विषाक्त रंग में देखते हैं, तो खबर के अपने स्रोत और अपने लीडर को समझदारी से चुनें.
जिम्मेदार मीडिया की नई भूमिका दाएं-बाएं या दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच पुल बनाने की है. अपनी ऑडियंस को अतियों से रचनात्मक असहमति की ओर ले जाने की है. बेहद ध्रुवीकृत तथ्य सोशल मीडिया एल्गोरिदम के माफिक हो सकता है, लेकिन देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए नहीं.