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मुनव्वर राणा: जिसने किया 'अपनी शाइरी' लिखने का मुश्किल काम

जिनकी शाइरी किसी दरवेश के हुजरे में सुलगते लोबान की खुशबू की तरह हमेशा बाक़ी रहेगी

दिवंगत शायर मुनव्वर राणा
मुनव्वर राना
अपडेटेड 1 फ़रवरी , 2024

महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यों न हो,
आंखों से बहने दीजिए पानी ही क्यों न हो!!

अपनी ग़ज़ल के इस मतले को अपने तमाम चाहने वालों के लिए वसीयत करके उर्दू के नामवर शाइर मुनव्वर राना बीती 14 जनवरी को लखनऊ में इंतकाल कर गए. वो एक लंबे अर्से से बीमार थे. राहत इंदौरी साहब के बाद ग़ालिबन मुशाइरों का वो आख़िरी जादू थे जो हमने अवाम पर चलते देखा है. साल 2006 की बात है जब मैंने पहली बार उनका ये शेर सुना था कि:

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में,
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है.

शेर सुनते ही ख़याल शेर की आधुनिक संरचना की तरफ गया. शेर का मज़मून तो नया था ही, जिन अल्फ़ाज़ के सहारे इस मजमून में जान डाली गई थी, वो भी ग़ज़ल की परंपरागत शब्दावली से भिन्न थे. मुझे यहां मीर साहब की एक बात याद आ गई जो उन्होंने रासिख़ अज़ीमाबादी का एक शेर पढ़ कर रासिख़ से कही थी कि "मिज़ाज मुबारक हो!"

दरअस्ल ये मिज़ाज ही है जो किसी शाइर को भीड़ से अलग करता है और उसकी अपनी शिनाख़्त क़ाइम करता है. एक ऐसी शिनाख़्त जो उसके दौर पर उसकी मुहर बन कर हमेशा के लिए उसका नक़्श छोड़ जाए. मुनव्वर राना के पास अपने लब ओ लहजे, अपने मिज़ाज और अपने शे’री शऊर की एक ऐसी ही मुहर थी जिसका मुशाइरों की दुनिया में उनके रहते कोई बदल न था. मिसाल के तौर पर उनका ये शेर देखिए जो बेबाकी से मुशाइरों की दुनिया का सच हमारे सामने लाता है:-

अजब दुनिया है नाशाइर यहां पर सर उठाते हैं,
जो शाइर हैं वो महफ़िल में दरी-चादर उठाते हैं.

ये 'बेबाकी' उनके कलाम में जा ब जा उनका सिग्नेचर बनकर मौजूद है. 

26 नवंबर, 1952 को रायबरेली में जन्मे मुनव्वर राना की ज़िदगी का बेश्तर हिस्सा लखनऊ और कलकत्ता में गुज़रा. वो शाइरी में वाली आसी जैसे मोतबर शाइर के शागिर्द रहे और उनका लखनऊ वो लखनऊ था जिसकी अदबी फ़िज़ा  में इरफ़ान सिद्दीक़ी, आबिद सुहैल, कृष्ण बिहारी नूर, राम लाल और नैयर मसूद जैसे बड़े नाम सांस ले रहे थे. अपनी पहली ही किताब में मुनव्वर राना ने ऐलान कर दिया था कि:

अहद ए नौ तेरे मीर हैं हम लोग,
आप अपनी नज़ीर हैं हम लोग.
वक़्त की सीढ़ियों पे लेटे हुए,
इस सदी के कबीर हैं हम लोग.

इस क़लंदर सिफ़त शाइर ने सिर्फ़ शाइरी ही नहीं, अपनी नस्र से भी अपने क़लम का लोहा मनवाया. उर्दू और हिंदी में बराबर पढ़े, चाहे और सराहे गए मुनव्वर राना ने तक़रीबन डेढ़ दर्जन किताबें लिखी हैं जिनमें बग़ैर नक़्शे का मकान, चेहरे याद रहते हैं, सफ़ेद जंगली कबूतर, जंगली फूल,कहो ज़िल्ले इलाही से, सुख़न सराए और मीर आ कर लौट गया मुख्य हैं.

2014 में उन्हें उनकी किताब शहदाबा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनकी दो किताबों को तो ख़ैर ऐसी शोहरत मिली जैसी कम किताबों को नसीब होती है, पहली है मुहाजिरनामा और दूसरी है मां. ख़ास तौर पर मां के हवाले से जो शाइरी उन्होंने की है, उसने अवाम के साथ उनका एक गहरा जज़्बाती रिश्ता क़ाइम कर दिया बल्कि उनके इस शेर ने तो शोहरत की सारी हदें तोड़ कर आवाम के सीनों में घर कर लिया है कि:-

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई/ मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई.

वो एक रुझान साज़ शाइर थे. उनका रंग न तो उनके उस्ताद का रंग था, न उनके दौर के दूसरे शाइरों का. मुशाइरे में उनकी मौजूदगी मुशाइरे को मुतास्सिर करने की हद तक अहम होती चली गई थी. उनका जाना उर्दू दुनिया के लिए यक़ीनन एक ऐसे शाइर का जाना है जिसने बक़ौल जावेद अख़्तर 'अपनी शाइरी की.'

ग़ौरतलब है कि अच्छी शाइरी करने से कहीं मुश्किल है 'अपनी शाइरी करना.' कुछ निशस्तें ख़ाली हो जाएं तो भरने में तारीख़ के कई सफ़हात मुड़ जाते हैं और फिर भी लगता है कि जाने वाले की जगह शायद ही कोई ले सके. मुशाइरों की दुनिया में ऐसी ही एक जगह मुनव्वर राना साहब के जाने से ख़ाली हुई है, उन्होंने ख़ुद कहा है कि:

अब तेरे बुलाने से भी हम आ नहीं सकते,
हम तुझसे बहुत आगे ज़माने निकाल आए

अलविदा राना साहब! आपकी शाइरी किसी दरवेश के हुजरे में सुलगते लोबान की वो ख़ुशबू है जो अवाम के बीच आपकी याद बनकर हमेशा बाक़ी रहेगी.

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