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बिहार के बिमहास में चल रही 'दीदी की रसोई' रख रही है मरीजों के जायके का खयाल

बिहार की यह खास रसोई, जिसका संचालन इसका निर्माण करने वाली ग्रामीण महिलाएं करती हैं, कई समुदायों का उत्थान कर स्वास्थ्य और खुशहाली को बढ़ावा दे रही है.

 कोइलवर में बिहार इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड अलाइड साइंसेज में दीदी की रसोई चलाती महिलाएं
कोइलवर में बिहार इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड अलाइड साइंसेज में दीदी की रसोई चलाती महिलाएं
अपडेटेड 1 फ़रवरी , 2024

हवा में हर तरफ ग्रिल्ड चिकन की सुगंध फैली है. बड़े-बड़े बर्तनों में मशरूम और दाल पकाई जा रही हैं. शेफ की टोपी पहने एक दर्जन से अधिक महिलाएं 1,000 वर्ग फुट की रसोई में काम करने में व्यस्त हैं, कुछ बर्तनों में पकते व्यंजन चला रही हैं, तो कुछ चपाती बना रही हैं. एक तरफ विशाल कड़ाही में पापड़ तले जा रहे हैं. 

दोपहर का एक बजा है और यह लंच का समय है. एप्रन पहने महिलाओं की एक टोली ट्रॉलियों पर खाने की थालियां लेकर कभी अंदर आ रही है तो कभी बाहर जा रही है. रसोई के बाहर एक अन्य समूह कैंटीन की व्यवस्था संभालने में व्यस्त है.

यह सारा नजारा राजधानी पटना से करीब 40 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित भोजपुर जिले के कोइलवर में बिहार इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड अलाइड साइंसेज (बिमहास) के विशाल परिसर में कैंटीन का है. आप चाहें तो यहां समोसे, मैगी या मटन का भी लुत्फ उठा सकते हैं. कैंटीन तकरीबन हर समय ही डॉक्टरों और मरीजों के तीमारदारों से भरी रहती है, वहीं मरीजों के लिए उनके वार्ड तक स्वास्थ्यकर और पौष्टिक भोजन पहुंचाया जाता है.

'दीदी की रसोई' में आपका स्वागत है, जो बिहार सरकार के ग्रामीण विकास विभाग के अधीन काम करने वाली ग्रामीण आजीविका संवर्धन सोसाइटी जीविका की एक पहल है. जीविका के मुख्य कार्यकारी और 2011 बैच के आईएएस अधिकारी राहुल कुमार का कहना है कि इस पहल से न केवल मरीजों और उनके तीमारदारों को सुविधा मिली है, बल्कि 'दीदियों' को भी फायदा हो रहा है.

जीविका ने इन महिलाओं को जहां आजीविका का एक स्रोत मुहैया कराया है, वहीं, अस्पताल में सुविधाओं की कमी का अंतर भी पाट दिया है. इन महिलाओं में अधिकांश ऐसी हैं जो पहली बार कमाई कर रही हैं. राहुल कुमार बताते हैं, "इस पहल के तहत अस्पताल जगह मुहैया कराते हैं और हम महिला समूहों को पूरी तरह सुसज्जित रसोई और कैंटीन सौंपकर व्यवसाय शुरू करने के लिए बुनियादी ढांचा देते हैं."

इस मॉडल को सिर्फ बिमहास ही नहीं, पूरे राज्य में अपनाया गया है. अभी बिहार के सभी 38 जिलों में सक्रिय ऐसे महिला समूहों की संख्या 117 पर पहुंच चुकी है जो सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, बैंकों और अन्य संस्थानों में भोजन उपलब्ध कराने के उद्यम में लगे हैं. 2018 में शुरू की गई इस परियोजना में 1,700 से अधिक महिलाएं हैं, जिन्हें होटल प्रबंधन और कैटरिंग में अनुभवी सलाहकारों की मदद से उद्यम के गुर सिखाए जाते हैं.

180 बेड वाले बिमहास में दो पालियों में काम कर रहे 25 महिलाओं के समूह का अस्पताल में भर्ती मरीजों और उनके तीमारदारों से एक तरह का भावनात्मक जुड़ाव भी हो जाता है. इस समूह की प्रमुख 32 वर्षीया कविता देवी कहती हैं, "आमतौर पर मरीजों को अस्पताल का खाना कतई नहीं भाता." लेकिन बिमहास से ठीक होकर जाने वाले मरीज और उनके तीमारदार अमूमन 'दीदी' को शुक्रिया कहने कैंटीन आते हैं. 

पड़ोस के ही कुलहड़िया गांव में रहने वाली कविता का दिन सूरज उगने से पहले ही शुरू हो जाता है. वे सबसे पहले अपने दो बच्चों—10 वर्षीय बेटे, नौ वर्षीया बेटी के लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन तैयार करती हैं, जिनके अंग्रेजी-माध्यम स्कूल की फीस वे अपनी कमाई से भरती हैं. उनके पति एक फैक्ट्री में काम करते हैं. वे सुबह 6 बजे बिमहास पहुंच जाती हैं और आठ घंटे की शिफ्ट पूरी कर दोपहर बाद घर लौटती हैं.

हालांकि कविता प्रति माह 6,000 रुपए कमाती हैं लेकिन उनके ग्रुप का टर्नओवर एक करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है. इस वित्त वर्ष के अंत में लाभ और अर्जित बैंक ब्याज को 25 महिलाओं के बीच समान रूप से वितरित कर दिया जाएगा. कविता को उम्मीद है कि मुनाफा कुल टर्नओवर का कम से कम 30 फीसद होगा यानी, दीदियों को अब एक अच्छे-खासे बोनस का इंतजार है.

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