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भारत जोड़ो न्याय यात्रा से क्या राहुल गांधी कांग्रेस को मंजिल तक पहुंचा पाएंगे?

अब जबकि कुछ ही समय में चुनाव अभियान तूफानी गति पकड़ने वाला है, क्या वे अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा को चुनावी राजनीति के निहित स्वार्थों से इतर साफ-सुथरे उद्देश्य पर केंद्रित रख पाएंगे? या फिर क्या स्थायी तौर पर अप्रासंगिक होने का आरोप झेलने के लिए तैयार हैं?

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी
अपडेटेड 16 जनवरी , 2024

कहा जाता है कि यात्रा ही असली मंजिल है, और संभवत: इसी पर अमल करते हुए राहुल गांधी गाहे-बगाहे यात्रा के जरिए लोगों से जुड़ने की कोशिश करते हैं. भारत जोड़ो यात्रा (बीजेवाई) का दूसरा संस्करण शुरू हो चुका है. इस बार, इसे भारत जोड़ो न्याय यात्रा (बीजेएनवाई) नाम दिया गया है और यह बदलाव कुछ खास मुद्दों पर फोकस करने की रणनीति दर्शाता है—भारत के लोगों के लिए "आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक न्याय सुनिश्चित करना." राहुल की यह यात्रा 14 जनवरी से शुरू हुई, यानी अयोध्या की गहमागहमी से ठीक एक हफ्ते पहले. इसमें अधिकांश यात्रा बस से पूरी की जाएगी और बीच में कुछ-कुछ जगहों पर रुककर वे भारत जोड़ो यात्रा की तर्ज पर कुछ दूरी पैदल तय करेंगे.

सूरज की किरणों का अनुसरण करते हुए यात्रा की शुरुआत पूरब में मणिपुर से की गई, और फिर 14 राज्यों के 85 जिलों की धूल फांकता उनका कारवां 20 मार्च को पूरे धूमधाम से पश्चिम में मुंबई पहुंचेगा. इसके साथ ही राहुल देश के चारो कोनों को जोड़ने वाली यात्रा का एक चक्र पूरा कर लेंगे, जिसका एक सिरा जनवरी 2023 में श्रीनगर में उनकी भारत जोड़ो यात्रा के सफल समापन के समय खुला छूट गया था. श्रीनगर में हर तरफ जमी बर्फ के बीच ग्रे फिरन पहने राहुल गांधी का व्यक्तित्व कुछ-कुछ मसीहाई लग रहा था और बढ़ी सफेद दाढ़ी इसकी गवाही दे रही थी कि उन्होंने पांच माह चली पदयात्रा के दौरान एक लंबी दूरी तय की है.

अब जबकि कुछ ही समय में चुनाव अभियान तूफानी गति पकड़ने वाला है, क्या वे अपनी भारत न्याय यात्रा को चुनावी राजनीति के निहित स्वार्थों से इतर साफ-सुथरे उद्देश्य पर केंद्रित रख पाएंगे? क्या वे कोई गहन राजनीति कर रहे हैं या फिर क्या स्थायी तौर पर अप्रासंगिक होने का आरोप झेलने के लिए तैयार हैं? क्या नेहरू-गांधी परिवार का वंशज होना उनके लिए सब कुछ बहुत आसान करता है, या फिर यह उनके ऊपर अपेक्षाओं का एक भारी-भरकम बोझ बन चुका है? क्या पार्टी के लिए वे एक संपत्ति की तरह हैं या फिर एक बोझ बन चुके हैं?

ये तमाम सवाल राहुल गांधी को परेशान करते रहे हैं, जबकि लोकसभा में विपक्ष के मुख्य नायक के तौर पर वे बड़ी सहजता के साथ सुर्खियों का केंद्र बिंदु बनकर उभरे थे. अदाणी पर उनके सवाल सरकार को इस कदर चुभने लगे कि उसने येन केन प्रकारेण उन्हें वहां से बाहर करने में कसर नहीं छोड़ी. 12 तुगलक लेन—जहां वे 2004 से रह रहे थे—से जबरन बाहर किए जाने ने राहुल को एक ऐसा मंच मुहैया करा दिया, जिस पर वे खुद को शहीद के तौर पर पेश कर सकें. और इस सबने संभवत: उन्हें और ज्यादा मुखर तरीके से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर सामने खड़ा किया.

सुप्रीम कोर्ट अपने साथ बदले की राजनीति के राहुल के आरोप को सही ठहराता, इससे पहले चार महीने संसदीय निर्वासन के दौरान भी खबरों में रहकर वे भाजपा को गाहे-बगाहे असहज करते रहे. मसलन, जब वे जून में तीन दिन के लिए मणिपुर पहुंचे और प्रभावित क्षेत्र तक पहुंचने के लिए उन्होंने सड़क मार्ग को चुना. मैतेई-कुकी में बंटे राज्य में दोनों ही पक्षों के पीड़ित लोग पूरे उत्साह और गर्मजोशी के साथ उनसे मिले. राहुल ने मोहब्बत की दुकान की जो शब्दावली गढ़ी है, उसके बीच यह साफ नजर आया कि रक्तरंजित माहौल के बीच भी इसके लिए कितनी जगह है.

फिर, सोशल मीडिया भी है, जिसने संसदीय निर्वासन के दौरान राहुल की राजनैतिक गतिविधियों को सुर्खियों में बनाए रखने में पूरा साथ निभाया. विभिन्न वीडियो में राहुल कभी चांदनी चौक के फूड स्टॉल में नजर आए तो कभी कुली, मैकेनिकों, किसानों, ट्रक ड्राइवरों से घिरे दिखे. विदेशों में उनके भाषण कई अलग वजहों से सुर्खियों में रहे. अमेरिका में भी वे अपनी सड़क यात्रा का मोह नहीं छोड़ पाए और एक भारतीय चालक के ट्रक में सवारी करने में सफल रहे.

146 सांसदों के निलंबन ने लगभग पूरे विपक्ष को राहुल गांधी के साथ एकजुट कर दिया

इस सबके बीच अनवरत यात्री के पीछे मीलों लंबी कतार में चलती भीड़ ने यही आभास कराया, मानो अपने लोकप्रिय नेता के राज्याभिषेक की तैयारी कर ली हो. मई में कर्नाटक की जीत ने यह धारणा मजबूत की और यही वजह है कि विपक्ष भी कांग्रेस को केंद्रीय भूमिका सौंपने को प्रेरित हुआ. दूसरी तरफ, अपनी आम छवि के विपरीत राहुल गांधी ने संभावित सहयोगियों को साधने और एक मंच पर लाने के लिए खासी मेहनत की, जिनमें ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे सहयोगी भी शामिल थे, और एक महागठबंधन अस्तित्व में आया. यह अलग बात है कि इस गठबंधन का नाम कुछ लोगों के लिए काफी अजीब है. यह राहुल के ही दिमाग की उपज था और इसने भाजपा को इस कदर बेचैन कर दिया कि उसने एक समय देश के नाम को बदलने पर भी विचार कर डाला. 

बहरहाल, हिंदी पट्टी के तीन राज्यों की हालिया चुनावी हार फिर एक विरोधाभास की तरह सामने आई. हां, तेलंगाना जरूर कर्नाटक के रंग में रंगा नजर आया लेकिन क्या राहुल फैक्टर इतना मजबूत है कि उत्तरी क्षेत्र में कोई बड़ा असर डाल सके? कांग्रेस ने अपने कथित लोकतंत्र-विरोधी, सांप्रदायिक और पूंजीपति-समर्थक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ अपनी समावेशिता, समानता और न्यायप्रियता वाली जो तस्वीर पेश की है, क्या उससे उन करीब 200 अति-महत्वपूर्ण लोकसभा सीटों पर कोई फायदा उठा पाएगी, जहां उनके बीच सीधा मुकाबला तय है?

उन्हें लगातार निशाना बनाए जाने का दांव भाजपा सरकार पर भारी पड़ सकता है, क्योंकि इसकी वजह से यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि विपक्ष को चुप कराने और असहमतियों को दबाने के लिए न्यायपालिका और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. शीत सत्र में 148 विपक्षी सांसदों के सामूहिक निलंबन का अभूतपूर्व फैसला—जिसमें राहुल भी शामिल थे—भी उस छवि को कुछ खास नुक्सान नहीं पहुंचा पाया.

लेकिन क्या इसकी अनुगूंज दूरदराज के उन इलाकों तक गहराई से समा पाई है जहां जाति जनगणना को मुख्यधारा का मुद्दा बनाने का राहुल का विचार भी ठीक से अपनी जगह नहीं बना पाया है? यही नहीं, स्थिति कुछ ऐसी बनी, जहां ममता और केजरीवाल ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम प्रस्तावित कर दिया, जो राहुल के वीटो को ही इंगित करता है. अब आगे क्या? अगर कांग्रेस अपने ही ढर्रे पर चलती रही तो जाहिर है कि कुछ उत्तर अनसुलझे ही रह जाएंगे.

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