
जस्टिस हिमा कोहली की मां पिछले महीने नहीं रहीं. उन्हें अमेरिकी वकील-लेखक अर्ल स्टैनले गार्डनर के उपन्यास बेहद भाते थे, जो आपराधिक मामलों और कोर्टरूम ड्रामे पर ही होते थे. युवावस्था में इन्हीं किताबों ने धीरे-धीरे हिमा की दिलचस्पी अदालती मसलों में जगा दी.
भाई-भतीजावाद और पुरुष वर्चस्व होने की वजह से लंबे समय तक आलोचनाओं का सामना करने वाली न्यायिक प्रणाली में जस्टिस हिमा कोहली ने रूढ़ियों को तोड़ा है. 2019 में विभाजन के बाद संयुक्त आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट से अलग कर बनाए गए तेलंगाना हाईकोर्ट में उन्होंने 7 जनवरी, 2021 को पहली महिला चीफ जस्टिस का पद संभाला. सात महीने बाद प्रोन्नत होकर सुप्रीम कोर्ट आ गईं और इस तरह शीर्ष अदालत में जगह बनाने वाली 11 महिला न्यायाधीशों में शुमार हो गईं.
महिला सशक्तीकरण की पुरजोर समर्थक जस्टिस कोहली हमेशा इस पर जोर देती रही हैं कि महिलाओं के लिए नए अवसर उपलब्ध होने चाहिए. उन्होंने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान कहा, ''न्यायपालिका, चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट अथवा जिला अदालतें, में महिलाएं एक ही समय पर एक न्यायाधीश और एक महिला होने की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं.'' एक अन्य मौके पर उन्होंने बौद्धिक संपदा क्षेत्र में रूढ़िवादिता खत्म करने की जरूरत बताई. उन्होंने कहा, ''अब समय आ गया है कि हम लैंगिक नजरिए से देखें, महिलाओं के बौद्धिक संपदा अधिकारों के लिए खड़े हों, और पूरी दुनिया को शक्तिशाली संदेश भेजें कि हम समाज में उनके अमूल्य योगदान को पहचान और स्वीकार रहे हैं.''
दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज की छात्रा रहीं न्यायमूर्ति कोहली ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से इतिहास में पीजी डिग्री ली है. पिता के ऐतराज के बावजूद उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से कानून की डिग्री हासिल की. 1984 में उनका दिल्ली बार काउंसिल में बतौर वकील पंजीकरण हुआ, 2006 में वे दिल्ली हाईकोर्ट की अतिरिक्त न्यायाधीश बनीं. साल भर बाद उन्होंने स्थायी न्यायाधीश के तौर पर शपथ ग्रहण की.
बतौर न्यायाधीश जस्टिस कोहली हमेशा जनकल्याण के लिए मजबूती से खड़ी होती रही हैं. दिल्ली हाइकोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई मामले निबटाने वाली पीठ की अध्यक्षता की. इनमें पहले ही जमानत पा चुके कैदियों की हिरासत की जांच का आदेश देना और नाबालिगों की पहचान छिपाना आदि शामिल है. 2020 में जस्टिस कोहली ने एक समिति का नेतृत्व किया, जिसने कोविड-19 महामारी को लेकर दिल्ली सरकार के कदमों की निगरानी की, और साथ ही निजी प्रयोगशालाओं को टेस्टिंग की अनुमति नहीं देने के लिए केंद्र के साथ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की भी आलोचना की.
सुप्रीम कोर्ट में वे कई अहम मामलों की सुनवाई वाली पीठ का हिस्सा रहीं, जैसे अमेजन और फ्यूचर रिटेल केस, समलैंगिक विवाह अधिकार, महाराष्ट्र के विधायकों की अयोग्यता और दिल्ली सरकार और एलजी के बीच झगड़ा.
सिद्धांतों पर अडिग न्यायाधीश

सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत होने वाली गुजरात की पहली महिला जज न्यायमूर्ति बेला माधुर्य त्रिवेदी ने संविधान में अधिष्ठापित मूल सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध निर्भीक जज के रूप में पहचान बनाई है. गांधीवादी सिद्धांतों की अनुयायी और अदालत की कार्यवाही में अक्सर महात्मा गांधी को उद्धृत करने वाली न्यायमूर्ति त्रिवेदी अदालत के कामकाज के संचालन में नैतिकता और शिष्टाचार पर भी जोर देती हैं.
निष्पक्षता के प्रति उनका सरोकार तब भी स्पष्ट था, जब सुप्रीम कोर्ट की जज के रूप में पिछले दिसंबर में उन्होंने उन याचिकाओं की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया, जिनमें 2002 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान बिलकीस बानो बलात्कार मामले में ताउम्र कारावास के सजायाफ्ता 11 दोषियों को समय से पहले रिहा करने के गुजरात सरकार के फैसले को चुनौती दी गई थी. राज्य की मूल निवासी होने के नाते वे इस मामले की निर्णायक नहीं बनना चाहती थीं.
गुजरात के पाटण में 10 जून, 1960 को जन्मीं न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने वडोदरा के एम.एस. विश्वविद्यालय से कॉमर्स में स्नातक किया, और फिर 1983 में वकील के रूप में नाम लिखवाया. बारह साल बाद, जुलाई 1995 में उन्हें अहमदाबाद की सिटी सिविल और सेशन कोर्ट में जज के रूप में नियुक्त किया गया, जहां उनके पिता भी जज थे.
न्यायमूर्ति त्रिवेदी को 2011 में पहले गुजरात हाइकोर्ट के अतिरिक्त जज के रूप में नियुक्त किया गया और फिर उनका तबादला राजस्थान कर दिया गया, जहां वे स्थायी जज बनीं. 2016 में उन्हें फिर गुजरात भेजा गया, जहां वे अगस्त 2021 में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किए जाने तक रहीं. वे उन कुछ न्यायाधीशों में से हैं, जो ट्रायल कोर्ट से शीर्ष कोर्ट तक पहुंचे.
न्यायमूर्ति त्रिवेदी तीन जजों की उस पीठ में शामिल थीं, जिसने नवंबर 2021 में बॉम्बे हाइकोर्ट के उस विवादास्पद फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें 'यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012' के तहत यौन हमले के लिए 'त्वचा से त्वचा' का संपर्क जरूरी ठहराया गया था. एक साल बाद वे पांच जजों की उस संविधान पीठ का भी हिस्सा थीं, जिसने आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को 10 फीसद आरक्षण देने वाले 103वें संविधान संशोधन की वैधता पर मोहर लगाई थी.
गुजरात हाइकोर्ट में उनके कार्यकाल के दो और मामले संवैधानिक और गांधीवादी सिद्धांतों के प्रति न्यायमूर्ति त्रिवेदी की प्रतिबद्धता दर्शाते हैं. मसलन, महामारी के दौरान वे दो जजों की उस पीठ का हिस्सा थीं, जिसने कोविड-19 के मामले में अहम फैसला दिया. पीठ ने वह याचिका खारिज की, जिसमें कहा गया था कि कोविड दिशानिर्देश पारसी रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करने के विरुद्ध हैं, इन पर रोक लगाई जाए. फैसले में कहा गया कि धर्म को मानने, आचरण करने, उसका प्रचार करने और धार्मिक मामलों को संभालने के मूलभूत अधिकार भी जनस्वास्थ्य, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन हैं.''