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पैदावार की प्रचुरता

पिछले 75 साल में भारत 'शिप टू माउथ' जैसी स्थिति से बाहर निकलकर खानपान की बुनियादी वस्तुओं के मामले में कमोबेश आत्मनिर्भर हो गया

 उगता सोना पंजाब में खेत में खड़ा गेहूं किसान
उगता सोना पंजाब में खेत में खड़ा गेहूं किसान
अपडेटेड 1 जनवरी , 2023

विशेषांक : भारत की शान

कृषि क्रांति

अशोक गुलाटी, विशिष्ट प्रोफेसर, आइसीआरआइईआर

अब जब भारत अमृतकाल (2022-2047 का परिकल्पित स्वर्णिम युग) में प्रवेश का जश्न मना रहा है, यह पूछना मुनासिब होगा कि कृषि में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धियां क्या रहीं. इसमें कोई शक नहीं कि स्वतंत्र भारत के पिछले 75 साल के दौरान कृषि का भूदृश्य पूरी तरह बदल गया. सबसे बड़ा बदलाव रहा 1960 के दशक में 'शिप टू माउथ' की स्थिति से खाने की बुनियादी वस्तुओं के मामले में कमोबेश आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ निर्यात योग्य अनाजों का अतिरिक्त उत्पादन की स्थिति तक पहुंचना. यह किसी से छिपा नहीं है कि 1960 के दशक में लगातार सूखे के दो साल ने अपनी आबादी का पेट भरने की भारत की अक्षमता को जगजाहिर कर दिया था. तब उसे अमेरिका के पब्लिक लॉ 480 के तहत गेहूं के भारी निर्यात—साल में तकरीबन 1 करोड़ मीट्रिक टन (एमएमटी)—पर निर्भर रहना पड़ा था, वह भी रुपए के भुगतान पर, क्योंकि भारत के पास वैश्विक बाजार से खरीदारी करने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी. तब देश को अहसास हुआ कि अगर उसे स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र के रूप में खड़ा रहना है, तो चावल और गेहूं जैसे बुनियादी अनाजों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करनी पड़ेगी.

इसी राजनैतिक जागरूकता ने प्रसिद्ध हरित क्रांति' का मार्ग प्रशस्त किया. उस दौरान पले-बढ़े हममें से कई लोग अमेरिकी पौध प्रजनक (प्लांट ब्रीडर) नॉर्मन बोरलॉग के नाम से वाकिफ हैं, जिन्होंने मेक्सिको में गेहूं की नई बौनी किस्में विकसित की थीं. गेहूं की उन्हीं अत्यधिक उपज देने वाली किस्मों (एचवाइवी) के 18,000 टन बीज आयात करके भारत ने हरित क्रांति को अंजाम दिया. भारतीय कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने न केवल इन बीजों का आयात सुगम बनाने में बल्कि उन्हें भारतीय जलवायु के मुताबिक ढालने में बेहद अहम भूमिका अदा की. यह भारतीय कृषि की राह में पहला बड़ा मील का पत्थर था. इन दोनों शानदार वैज्ञानिकों, नॉर्मन बोरलॉग और एम.एस. स्वामीनाथन को अपने वैज्ञानिक योगदान के जरिए लाखों की लोगों की जान बचाने के लिए दुनिया भर में जाना-माना जाता है.

मगर हममें से कितने लोग अमेरिकी पौध प्रजनक हेनरी बीचेल और भारतीय कृषि वैज्ञानिक गुरुदेव खुश के नाम से परिचित हैं? ये दोनों मनीला स्थित अंतरराष्ट्रीय राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में काम करते थे और इन्होंने चावल की अत्यधिक उपज देने वाली बौनी किस्में विकसित करके चावल उत्पादन में ऐसी ही क्रांति को अंजाम दिया. दोनों को चावल की एचवाइवी विकसित करने में अपने योगदान के लिए वल्र्ड फूड प्राइज मिला. भारत पर इसके असर के कारण यह दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि थी. 1960 के दशक के उत्तरार्ध से 1980 के दशक के मध्य तक गेहूं और चावल उत्पादन की इन दो बड़ी कामयाबियों के चलते भारत में हरित क्रांति आई, जिससे बुनियादी अनाजों के मामले में हमें बेहद जरूरी आत्मनिर्भरता हासिल हो सकी. 2021-22 में भारत ने करीब 31 एमएमटी अनाजों (21 एमएमटी चावल, 7 एमएमटी गेहूं और करीब 3 एमएमटी मक्का) का निर्यात किया. भारत का चावल निर्यात वैश्विक चावल निर्यात का करीब 40 फीसद है, जो हमें इसका सबसे बड़ा निर्यातक बनाता है.

तीसरी और इससे भी बड़ी क्रांति दूध उत्पादन के क्षेत्र में घटी. मध्य-1970 के दशक में शुरू हुई इस क्रांति की अगुआई शुरुआत में ऑपरेशन फ्लड के तहत वर्गीज कुरियन ने की. तीन दशक बाद 2002-03 में वाजपेयी सरकार ने दूध प्रसंस्करण का उदारीकरण करके इसे निजी क्षेत्र के विशाल हाथों में सौंप दिया, जिसने इसे पूरी ताकत से आगे बढ़ाया. दूध उत्पादन क्षेत्र की 'डबल इंजन' बढ़वार इतनी अधिक है कि आज भारत में इस उद्योग का मूल्यांकन गेहूं, चावल और गन्ने के मिले-जुले मूल्यांकन से ज्यादा है. दूध की इस 'श्वेत क्रांति' की कामयाबी के पैमाने का अंदाज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1951 में, जब भारत में दूध का उत्पादन 17 एमएमटी था, अमेरिका में यह 53 एमएमटी था. मगर 2021 आते-आते, जहां अमेरिका का दुग्ध उत्पादन 102 एमएमटी के आसपास था, वहीं भारत 220 एमएमटी का आंकड़ा छू रहा है. दिलचस्प बात यह कि यह 'श्वेत क्रांति' बहुत कुछ उन छोटे किसानों की वजह से संभव हुई जिनके पास औसतन करीब 4 या 5 गौजातीय पशु (गाय और भैंस) हैं. यह नई तरह का संस्थान बनाने की 'भारत के मिल्कमैन' वर्गीज कुरियन कल्पनाशीलता का नतीजा था. उन्होंने छोटे दुग्ध उत्पादकों को दुग्ध सहकारी संस्थाओं के माध्यम से एकसाथ लाकर इस क्षेत्र को बड़े पैमाने पर संयोजित किया और फिर आधुनिक प्रसंस्करण (पाश्चुरीकरण और समरूपीकरण) और संगठित खुदरा बिक्री यानी रिटेल के जरिए भारत के बड़े शहरों जोड़ दिया.

दिलचस्प बात यह भी है कि भारत का कृषि भूदृश्य पिछले दो दशकों के दौरान और भी ज्यादा बदला है. वाजपेयी सरकार ने 2002-03 में एक और साहसी फैसला लेते हुए भारत में पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित फसल (कपास) उगाने की इजाजत दी. वर्ष 2002-03 में बीटी कॉटन की शुरुआत के साथ, भारत का कपास उत्पादन 2002-03 में 1.36 करोड़ गांठों (एक गांठ 170 किग्रा) से बढ़कर 2013-14 में 3.98 करोड़ गांठ हो गया, जो महज 11 साल में करीब 293 फीसद की बढ़ोतरी है. इसकी अगुआई मुख्य रूप से निजी क्षेत्र की बड़ी बीज कंपनियों ने की. भारत के कृषि इतिहास में इस बदलाव का कोई सानी नहीं. कपास में इस 'जीन क्रांति' ने भारत को दुनिया में कपास का सबसे बड़ा उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक बना दिया. यह चौथा बड़ा मील का पत्थर है.

2011-12 के बाद से भारतीय कृषि में तेज बदलाव आए. ध्यान देने की बात यह है कि 2010-11 से 2019-20 के दौरान भारतीय पोल्ट्री मांस का मूल्यांकन (स्थिर मूल्यों पर) प्रति वर्ष 10.4 फीसद की अभूतपूर्व दर से और मत्स्यपालन का 7.8 फीसद, दलहन का 5.7 फीसद, डेयरी का 5.5 फीसद, बागवानी का 4.9 फीसद, अंडों का 4.9 फीसद, कपास का 4.6 फीसद, गन्ने का 3.9 फीसद, तिलहन का 3.3 फीसद और अनाजों का 3.1 फीसद की दर से बढ़ता रहा है. इन सभी वार्षिक वृद्धि दरों को आबादी की वृद्धि दर के संदर्भ में देखने की जरूरत है, जो बीते सालों के दौरान धीमे-धीमे कम होकर आज 1 फीसद के आसपास है. यह साफ दर्शाता है कि देश में खाद्य और फाइबर पदार्थों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता बहुत तेजी से बढ़ रही है.

सबसे बड़ी उपलब्धि निश्चित तौर पर यह है कि देश 1960 के दशक में 'खाद्यान्न की कमी' से मोटे तौर पर 'आत्मनिर्भर' बन गया, खाद्य तेलों का क्षेत्र हालांकि अपवाद है, जिसमें अपनी खपत का 55 से 60 फीसद भारत अब भी आयात करता है. इसके बावजूद भारतीय कृषि विशुद्ध निर्यातकारी क्षेत्र है. पांचवीं बड़ी उपलब्धि यह है कि सफलता की यह कहानी भारत के छोटे किसानों ने लिखी, जिनके पास औसतन महज 1.08 हेक्टेयर (2015-16 की भूमि गणना के मुताबिक) भूमि है. इसमें विज्ञान की बड़ी भूमिका रही. 

याद रखिए कि हरित क्रांति के बीज देश के बाहर से आए और बीटी कॉटन के भी. भावी बदलाव के लिए सबक यह है कि किसानों को दुनिया भर की बेहतरीन तकनीक सुलभ होनी चाहिए. अगर ऐसा नीतिगत माहौल बनाया जाता है कि वे बेरोकटोक वैश्विक बाजारों तक पहुंच सकें, तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि भारत में कृषि का सर्वश्रेष्ठ समय अभी सामने आना बाकी है.

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