अपू्र्वानंद
बुराई की एक अजीब फितरत है कि उसे अच्छाई के तौर पर याद रखा जाए. हत्यारे चाहते हैं कि उनके शिकार उन्हें प्यार करें और उन्हें उनके मुक्तिदाता के तौर पर देखा जाए. हिटलर ने यहूदियों और दूसरे विरोधियों पर मौत और बर्बादी का कहर बरपा दिया, लेकिन उसे बच्चों और मुस्कराती युवतियों के साथ तस्वीरें खिंचवाना अच्छा लगता था. उसके प्रशंसक मानना चाहेंगे कि उसमें विरली मानवीय खूबियां थीं, उसे संगीत पसंद था.
क्या यह पाखंड था कि उसके संगीत के संग्रह में यहूदी संगीतकार भी थे, फिर भले ही उसने ऐलान किया हो कि यहूदी कला जैसी कोई चीज नहीं थी! स्तालिन के एक अनुयायी ने अपने हीरो की मेरी आलोचना पर मुझे फटकारा कि वह इतना संवेदनशील था कि घास के उगने की आवाज भी सुन सकता था! अपराधी शिक्षाशास्त्रियों के तौर पर याद रखा जाना चाहते हैं और सामूहिक हत्यारे कला संग्राहकों के तौर पर इतिहास में दर्ज होना चाहते हैं!
इस लिहाज से बुराई कभी मुकम्मल नहीं हो सकती क्योंकि वह मानवीय गुणों से खाली होते हुए भी उसी मानवता की तलाश करती है. जैसा कार्ल जुंग कहते हैं, ''अपनी बुराई की सापेक्ष प्रकृति को पहचानना मनुष्य की संभावनाओं के दायरों के भीतर ही है, लेकिन चरम बुराई के चेहरे को टकटकी लगाकर देखना उसके लिए भयावह और झकझोरने वाला अनुभव है.''
इसी रोशनी में हमें भारतीय जनता पार्टी के 'गांधी संकल्प यात्रा' निकालने के फैसले को देखने की जरूरत है, जो ''स्वच्छता, अहिंसा, स्वदेशी, स्वराज और सादगी'' के उनके विचारों का प्रचार-प्रसार करने के लिए उनकी जयंती 2 अक्तूबर से निकाली जाएगी. गौर कीजिए, इस फेहरिस्त में सांप्रदायिक सद्भाव या हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं है, न ही यह जातिगत भेदभाव के खिलाफ लडऩे की बात करती है, जो गांधी के सामाजिक और राजनैतिक कार्यक्रम की दो मुख्य बातें थीं.
अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा को शामिल करने की तो उम्मीद ही बेकार है, जो स्वतंत्र भारत के बनने के शुरुआती महीनों में गांधी के लिए गहरी आस्था की बात थी. तादाद में बनिस्बतन कम मुस्लिम और ईसाई समुदायों और यहां तक कि गैर-हिंदुस्तानियों को भी बराबरी का राजनैतिक दर्जा देने पर जोर देने की वजह से ही आखिरकार गांधी की हत्या हुई.
भाजपा के नए नेतृत्व के हाथों गांधी को अपनाने या हड़पने के आक्रामक कदम को लेकर लोगों ने हैरानी जताई है. क्या पार्टी बदल रही है? स्वच्छता अभियान को अपना ध्वजवाहक कार्यक्रम बनाने की लाल किले से की गई प्रधानमंत्री की घोषणा ने उन लोगों को भी अचरज में डाल दिया जो मानना चाहते थे कि मुसलमानों को गालियां देकर और लोगों को बांटकर अपना करियर बनाने वाला नेता सत्ता हासिल करने के बाद राजनेता बनने की अभिलाषा कर रहा है. उन्होंने उन्हें समझने की वकालत की. छह साल ने दिखा दिया कि गांधी की यादों की संगत भी भाजपा की राजनीति को नहीं बदल पाई.
यह पहली बार नहीं है जब भाजपा और उसकी मातृ संस्था आरएसएस गांधी के साथ लीला रच रहे हैं. आरएसएस ने गांधी को अपनी प्रात: स्मरणीयों की सूची में उनकी हत्या के बाद ही शामिल कर लिया था. ऐसा करना इसलिए जरूरी था क्योंकि उसे गांधी की जान लेने वाली हिंसा में सहभागी के तौर पर देखा जा रहा था. अटल बिहारी वाजपेयी के मातहत भाजपा ने 'गांधीवादी समाजवाद' का नारा अपनाया था. बाद में उसने इस मील के पत्थर को तो चुपचाप एक तरफ किनारे कर दिया, लेकिन वक्त-वक्त पर वह गांधी के पास लौटकर आती रही. मोदी के मातहत भाजपा जिस आक्रामकता से गांधी को हड़पने की कोशिश कर रही है, वह नई जरूर है, पर इस हुकूमत की फितरत के अनुरूप ही है.
इससे ज्यादा बेमेल जोड़े की कल्पना नहीं की जा सकती. दोनों में अकेली साझा चीज हिंदू होना ही दिखाई देती है, जिसके प्रतिनिधित्व का आरएसएस दावा करता है. मगर यह समझना मुश्किल नहीं है कि हिंदू धर्म से उसका नाता उपयोगितावादी है, आस्था की बात नहीं. न ही वह कोई आध्यात्मिक ढोंग करता है. यह सत्ता हासिल करने और उसे अपनी मुट्ठी में रखने का बिल्कुल सेक्यूलर, दुनियावी औजार है. आरएसएस और भाजपा के लिए हिंदू धर्म एक जनसांख्यिकी विचार है, जो खुद को हिंदू मानने वाले लोगों की बहुसंख्या को लामबंद करने में उसकी सहायता करता है.
गांधी के लिए यह बेहद निजी चीज थी, राजनैतिक सत्ता के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चीज कतई नहीं. आरएसएस और भाजपा के लिए रामायण, महाभारत और गीता ऐतिहासिक दस्तावेज हैं; गांधी के लिए वे काव्य हैं! आरएसएस और उसके सहयोगी राम के सटीक जन्मस्थान को 'फिर से हासिल' करने के लिए मस्जिद को ढहा देंगे; गांधी के लिए राम ऐतिहासिक शख्सियत कतई थे ही नहीं. इन मामलों में उनकी स्पष्टता चौंकाने वाली है. राजेंद्र प्रसाद ने जब उन्हें गोवध पर कानूनी पाबंदी लगाने की मांग के बारे में बताया, तब जवाब में उन्होंने साफ मना कर दिया, क्योंकि भारत में ऐसे भी लोग हैं जिनके लिए गोमांस खाना निषिद्ध नहीं है.
आरएसएस के लिए भारत मुख्यत: हिंदुओं की धरती है. मुसलमानों और दूसरों को इस धरती पर बाद में आने वाले या बाहरी माना जाता है, जिन्हें हिंदू रहन-सहन के तौर-तरीके स्वीकार करने होंगे. गांधी के लिए यह अस्वीकार्य था. उन्होंने अपने 'रचनात्मक कार्यक्रम' में छात्रों से कहा था, ''आप दूसरों को वंदे मातरम गाने या यहां तक कि राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए भी कतई मजबूर नहीं करेंगे.''
तो, गांधी वह सब कुछ थे जिसके आरएसएस खिलाफ है. फिर आरएसएस गांधी की संगत पर दावा करने की कोशिश क्यों करता है? मेरी राय में एक तो यही है कि वह दोनों के बीच समानता पैदा करना चाहता है. वह गांधी को राष्ट्र निर्माताओं के देवकुल में ऊंचे आसन से नीचे उतारकर अपने स्तर पर लाना चाहता है. दोनों के बीच लगाव और प्रशंसा के भाव का दावा मनगढ़ंत और खामख्याली है, मगर इसे आगे बढ़ाना आरएसएस के लिए जरूरी है. यह उसके कार्यकर्ताओं को हीनता ग्रंथि से निजात दिलाने में मदद करता है—उस हीनता ग्रंथि से, जिससे वे गांधी के सामने हमेशा ग्रस्त रहते हैं. गांधी भारतीय जनमानस में गहरे पैठे हुए हैं और उनका कद छोटा करना जरूरी है.
भाजपा गांधी को अपना बनाने के लिए इसलिए भी आतुर है क्योंकि वह भारत-विचार को परिभाषित करने वाली पार्टी के तौर पर दिखाई देना चाहती है. मगर जैसा कि अली खान महमूदाबाद लिखते हैं, ''इस विचार का स्रोत आजादी की लड़ाई और संविधान के निर्माण में है. भाजपा के पास ऐसे कोई पूर्वज या वंशावली नहीं है जो इस विचार की उसकी मिल्कियत को विश्वसनीय बना दे, लिहाजा उसके लिए सर्वव्यापी गांधी और संविधान निर्माता आंबेडकर को हड़पना जरूरी हो गया है. और लड़ाकूपन के लिए भगत सिंह को भी.''
उधर गांधी के खिलाफ निंदा का अभियान भीतर ही भीतर अबाध जारी है. यह आरएसएस और भाजपा के दोहरे चरित्र के बिल्कुल अनुरूप है. हाल ही में वाहनों के ऊपर 'मैं भी गोडसे' स्टिकरों के नमूदार होने को और नाथूराम गोडसे को ऊंची पदवी पर बिठाने के बावजूद साध्वी प्रज्ञा को मिले लोकप्रिय जनादेश को कतई नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. या क्या उनके ठीक इसी रुख की वजह से उन्हें वोट मिला?
अलबत्ता यह सच है कि सेक्यूलर पार्टियों ने भी गांधी के विचार, उनके राजनैतिक आचरण का अनुकरण नहीं किया और उन्हें हमारे सामूहिक जीवन में महज एक आनुष्ठानिक उपस्थिति में तब्दील कर दिया गया. हमारे स्कूलों और जन संस्कृति ने भी गांधी को बेमतलब बना दिया है. उन्हें लाइफस्टाइल गुरु, फीलगुड मौजूदगी बना दिया गया है—कुछ ऐसा जो वे कदापि नहीं थे. वे ताउम्र लोकप्रिय विश्वासों को चुनौती देते रहे और लोगों को अपने रवैयों पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर करते रहे.
तो भी उन्हें ऐसे संत में बदल दिया गया जिसके कोई दुनियवी सरोकार नहीं थे. राजनैतिक गांधी को तो हमारे राजनैतिक तबके ने बहुत पहले ही तिलांजलि दे दी थी. अहिंसक गांधी न केवल ब्रिटिश बल्कि कई हमवतनों के लिए भी धमकी भरी मौजूदगी थे. अब हमारे सामने जिस अहिंसक गांधी को पेश किया जाता है, वे गैर-असहमत गांधी हैं जो राज्य की तमाम हिंसा को स्वीकार कर लेते हैं.
इस द्वेषी बहुसंख्यकवाद के शिकंजे से गांधी को केवल तभी छुड़ाया जा सकता है जब उनकी राजनीति को फिर से जिंदा किया जाए. यह असहमति की राजनीति है, जो मानवीय साहस के साथ की जाती है, और जिसे कभी-कभी खुद अपने लोगों के खिलाफ जाना होता है. अगर हम इस रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं हैं, तो भाजपा और आरएसएस के हाथों गांधी के हड़पे जाने पर विलाप करने का कोई मतलब नहीं है.
अपूर्वानंद साहित्यिक आलोचक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं
***