निको स्लेट
फरवरी 1929 में, अफ्रीकी-अमेरिकी वैज्ञानिक जॉर्ज वॉशिंगटन कार्वर ने एक विशेष आहार की रूपरेखा तैयार की जिसमें गेहूं का आटा, मक्का, फल और सोयाबीन या मूंगफली से बना दूध शामिल था. इस शुद्ध शाकाहारी (वीगन) आहार के साथ, कार्वर ने ''भारत के लिए अधिक स्वास्थ्य, शक्ति और आर्थिक स्वतंत्रता'' लाने की आशा की. क्या कोई आहार वास्तव में ऐसी भव्य महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त कर सकता है? कार्वर के आहार के लक्षित प्राप्तकर्ता ने निश्चित रूप से ऐसा सोचा था. कार्वर की तरह, महात्मा गांधी एक भावुक आहार सुधारक थे, जो मानते थे कि उचित आहार का अधिकार जीवन जीने के अधिकार के मूल में था, एक अच्छे आहार का राजनीति और नैतिकता से भी उतना ही सरोकार था जितना पोषण से.
हालांकि, आहार विकल्पों को अपनी अन्य मान्यताओं के साथ जोडऩा हमेशा आसान नहीं था. दरअसल, कार्वर ने जो आहार सोचा था उसकी एक वजह यह भी थी कि गांधी ने सालों तक शाकाहारी बनने के लिए संघर्ष किया था. उनका मानना था कि दूध का सेवन अनैतिक है, लेकिन उन्होंने पाया कि इसे आहार से दूर करने से वे कमजोर हो गए और जीवन की कई जरूरतों की पूर्ति में असमर्थ हो गए. क्या एक पूर्व दास के हाथों तैयार मूंगफली का दूध गांधी को संपूर्ण आहार के लिए अपनी आजीवन खोज को पूरा करने में मदद कर सकता है?
जब मैंने गांधी के आहार का अध्ययन शुरू किया, तो मुझे दो सवालों में दिलचस्पी थी: भोजन से गांधी का क्या अभिप्राय था? और मैं उनके पाक और पोषण संबंधी प्रयोगों से क्या सीख सकता था? एक व्यक्ति जो बेहिसाब व्यस्त थे, फिर भी आहार संबंधी विषयों पर लेख, पत्र और भाषणों के लिए समय निकाल लेते थे. वे दोस्तों और अजनबियों को भोजन संबंधी परामर्श देते थे और पोषण पर विज्ञान के नवीनतम शोधों को पढऩे के लिए उत्सुक रहते थे. वे अब भी हमें क्या ये सिखा सकते हैं कि कैसे खाना चाहिए और कैसे रहना चाहिए?
पहली बात जो मेरे दिमाग में कौंधी वह यह थी कि गांधी ने शाकाहारी भोजन और साबुत अनाज, कच्चे भोजन और उपवास तक, आज के आहार-विहार से जुड़ी चीजों को उस समय ही कैसे भांप लिया था. अपने आहार से नमक और चीनी को खत्म करना, जंगली साग के लिए मजबूर करना और खुद का बादाम का दूध बनाना, गांधी आज के युग में मुझे आहार के लिए पोस्टर-चाइल्ड ज्यादा लगते हैं जबकि मैंने बचपन में स्कूल में उन्हें कट्टरपंथी उपनिवेश विरोधी कार्यकर्ता के रूप में पढ़ा था. लेकिन जैसा कि मैंने भोजन के साथ गांधी के संबंधों के इतिहास में गहराई से समझा, मुझे एहसास हुआ कि उनका आहार उनकी राजनीति से जुड़ा हुआ था. गांधी के लिए, नैतिक रूप से खाने का मतलब कुछ खाद्य पदार्थों से परहेज करने से कहीं अधिक था; इसका अभिप्राय था कि अन्याय और असमानता के खिलाफ संघर्ष के लिए हमें क्या खाना है.
गांधी का जन्म शाकाहारी परिवार में हुआ था. युवा के रूप में, उनका मानना था कि अंग्रेजों को मांस खाने के कारण ही भारत पर विजय प्राप्त करने की शक्ति मिली थी. अगर उन्हें मजबूत होना है तो उन्हें भी मांस खाना होगा. चुपके से, एक दिन उन्होंने बकरे के मांस के कुछ टुकड़े खाए थे. वह एक दु:स्वप्न जैसा था. बाद में उस बात को याद करते हुए उन्होंने कहा था, ''जब भी मुझे नींद का झोंका आता, ऐसा लगता जैसे जीवित बकरा मेरे अंदर मिमिया रहा था, और मैं पश्चाताप से भर उठता.'' लंदन में कानूनी पढ़ाई शुरू करने से पहले, गांधी ने मां से वादा किया कि वे ''शराब, महिलाओं और मांस'' को नहीं छुएंगे. इंग्लैंड में, उनके भीतर पहली बार शाकाहार पर वास्तव में पूर्ण विश्वास उपजा था.
हालांकि वे बचपन के अधिकांश समय में मांस से परहेज करते थे, लेकिन यह केवल लंदन ही था जहां उन्होंने नैतिक कारणों से मांस न खाने का निर्णय किया था. इस प्रक्रिया में, उन्होंने पहला राजनैतिक कारण पाया: शाकाहार. लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी के सदस्य के रूप में, गांधी ने सार्वजनिक भाषण के अपने डर पर काबू पा लिया और पहली बार किसी मुद्दे के लिए संघर्ष करने वाले एक कार्यकर्ता बने. या यों कहें, वे कई मुद्दों पर आधारित संघर्षों के प्रणेता बन गए. शाकाहारी समुदाय ने कई प्रकार के समाज सुधारकों को आकर्षित किया और गांधी ने शाकाहार को कई सुधारवादी कारणों और अहिंसा की व्यापक संकल्पना से जोडऩा सीखा.
गांधी केवल मांस को खारिज करने से संतुष्ट नहीं थे. जैसे-जैसे शाकाहार के प्रति उनका विश्वास गहराता गया, वे इस बात से जूझते रहे कि क्या उन्हें न केवल मांस बल्कि अंडे और दूध का सेवन भी बंद करना चाहिए. अंतत: उनका इरादा पक्का हुआ कि उन्हें पूर्ण शाकाहारी बनना चाहिए. लेकिन दूध छोडऩा मांस से परहेज की तुलना में बहुत कठिन था. दशकों तक, उन्होंने एक ऐसा शाकाहारी आहार खोजा जो दूध की बराबरी कर सके. जब तक कार्वर ने उनके लिए मूंगफली के दूध का नुस्खा तैयार किया, गांधी उससे पहले ही घर में बादाम का दूध तैयार करने में कुशल हो चुके थे.
लेकिन मूंगफली का दूध असंतोषजनक साबित हुआ, शायद इसलिए क्योंकि उसे पचाने में उन्हें मुश्किल होती थी. आखिर, गांधी ने कुछ गैर-गांधीवादी काम किया. उन्होंने कभी भी दूध नहीं पीने की कसम खाई थी, लेकिन यह तय किया कि उनकी प्रतिज्ञा में बकरी का दूध शामिल नहीं है. बकरी के मांस से लेकर बकरी के दूध तक, गांधी का शाकाहारी रास्ता घुमावदार था, अक्सर निराशाजनक, लेकिन अंतत: भोजन के साथ उनके आजीवन संघर्ष के सबसे बड़े सबकों में से एक साबित हुआ: कि कोई भी पूर्ण आहार प्राप्त नहीं कर सकता है.
गांधी ने आज के कई सबसे लोकप्रिय आहार सिद्धांतों, विशेष रूप से कैलोरी परहेज और फलों, सब्जियों और बादाम वाले उच्च आहार का अभ्यास किया. उनकी व्यक्तिगत और आध्यात्मिक वृद्धि उनके आहार विकास से गहराई से जुड़ी हुई थी. आहार से उनके प्रयोगों ने हमें बहुत कुछ सिखाया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें बस एक सामान्य पाठों तक समेट दिया जा सकता है. आहार संबंधी सवालों का सरल समाधान प्रस्तुत कर देने की फूड पंडितों की प्रवृत्ति से गांधी या तो विस्मय में पड़ जाते या चिढ़ जाते या शायद दोनों ही भावों से भर जाते.
गांधी ने बार-बार अपना विचार बदला. वे अपने आहार से जूझते रहे और उनके वे संघर्ष ही मेरे लिए उनकी आहार विजय की तरह आकर्षक बन गए. उनका आहार और राजनीतिक संघर्ष आपस में जुड़े हुए थे. उन्होंने एक युवा के रूप में नमक की प्रशंसा की, जीवन के मध्य में इसे पूरी तरह से बंद किया और फिर आयु बढऩे पर इसका संतुलित सेवन करने लगे. नमक तो उनके सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़ा था जिसमें उन्होंने नमक बनाया था. भोजन में नमक की सही मात्रा कितनी होनी चाहिए, इसको लेकर अगर उनके अंदर लंबा विचार मंथन न चला होता तो शायद उन्होंने कभी भी 'नमक यात्रा' की कल्पना न की होती.
इसी तरह, कच्चे भोजन और जंगली भोजन में उनकी रुचि, पोषण और राजनैतिक दोनों कारणों से थी. उन्होंने बार-बार बिना पके भोजन खाने के प्रयोग किए, या जिसे वह ''महत्वपूर्ण भोजन'' कहा करते, क्योंकि यह सादगी के प्रति उनके प्रेम की झलक देता था. उन्होंने माना कि खाना पकाने की प्रक्रिया में पोषक तत्व खो जाते थे. उन्होंने लिखा ''गरम करने मात्र से विटामिन ए नष्ट हो जाता है,'' लेकिन कच्चे, जंगली साग के प्रति उनका प्यार भी इस भावना से प्रेरित रहा है कि इस तरह भारत के ग्रामीण गरीबों को पोषण के टिकाऊ और किफायती स्रोत मिल सकते हैं.
सबसे कठिन क्या है? यह व्यक्ति की आहार बाधाओं और अपने स्वाद पर निर्भर करता है. मुझे नमक में कटौती करना अपेक्षाकृत आसान लगता है—हालांकि मैंने कभी गांधी की तरह, पूरी तरह से परहेज करने की कोशिश नहीं की. मैं अधिकांश प्रसंस्कृत मिठाइयों की जगह फल पसंद करता हूं और इसलिए मैं परिष्कृत चीनी की गांधी की अस्वीकृति से बहुत परेशान नहीं हूं (हालांकि जब मुझे डार्क चॉकलेट की पेशकश की जाती है, तो मैं गांधी की उस बात को आसानी से भूल जाता हूं कि ''चॉकलेट में मृत्यु की राह खुलती है''). मेरे लिए, सबसे बड़ा संघर्ष है—कम खाना. नियमित रूप से उपवास के अलावा, गांधी आंशिक नियंत्रण के मास्टर थे.
हम गांधी के जन्म की 150वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, उस मौके पर यह पूछना उचित है कि हम गांधी से, उनकी विरासत और उनके आहार से क्या सीख सकते हैं. जैसा कि कार्वर के लिए उनकी प्रशंसा स्पष्ट करती है, गांधी ने खुद कई लोगों के साथ ही साथ अपनी गलतियों से भी बहुत कुछ सीखा. उनका आहार जुड़ाव का एक स्वरूप था. शायद यही गांधी के आहार से सीखने लायक सबसे बड़ा सबक है. सही खाने और सही जीवन जीने के हमारे संघर्ष में, हम कभी अकेले नहीं पड़ते.
निको स्लेट कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं और गांधीज सर्च फॉर द परफेक्ट डायट: ईटिंग विद द वर्ल्ड इन माइंड तथा लॉर्ड कॉर्नवालिस इज डेड: द स्ट्रगल फॉर डेमोक्रेसी इन युनाइटेट स्टेट ऐंड इंडिया पुस्तकों के लेखक हैं.
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