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स्थायी विरासत

जिंदगी का कोई ऐसा पहलू नहीं जिसे गांधी के विचारों ने छुआ न हो, हमें उसमें से अपने काम की चीजें अपना लेनी चाहिए

विचारों में खोए गांधी 1947 में एक सभा में गंभीर मुद्रा मे
विचारों में खोए गांधी 1947 में एक सभा में गंभीर मुद्रा मे
अपडेटेड 1 अक्टूबर , 2019

भीखू पारेख

यह अक्सर भुला दिया जाता है कि महात्मा गांधी की उपलब्धियां किस कदर विशाल थीं. उनकी 150वीं जयंती के मौके पर उन्हें याद करना अच्छा होगा. वे पहले भारतीय थे जो भारत को वैश्विक नक्शे पर लाए और अकेले भारतीय भी जिसे दुनिया भर में जाना जाता था. वे पहले भारतीय थे जिन्होंने भारत से पहले भारत के बाहर अपनी राजनैतिक छाप छोड़ी. वे भारत के इतिहास में लोगों को अपने पीछे गोलबंद करने वाले सबसे महान नेता रहे हैं, जो लाखों आदमियों और खासकर औरतों को सार्वजनिक जीवन में लाए.

एक-चौथाई सदी तक भारतीय राजनीति में उनका इतना बोलबाला रहा कि जिसने भी उनकी नाराजगी मोल ली, उसने राजनैतिक आत्महत्या की. वे अकेले भारतीय, बल्कि वाकई दुनिया के, नेता थे जिसने कई अलग-अलग स्तरों पर जिंदगी को छुआ और उनमें से हरेक के बारे में उनके पास कहने के लिए कुछ न कुछ था, चाहे वह स्वास्थ्य हो, साफ-सफाई, बच्चों का लालन-पालन, नैतिकता, यौनिकता, धर्म, अर्थव्यवस्था या आला दर्जे की राजनीति.

आजादी के वक्त, जिसके लिए वे जी-जान से लड़े थे, चौतरफा फैली हिंसा से गांधी इतने दुखी थे कि उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज फहराने से और संदेश तक देने से इनकार कर दिया. उन्होंने खुद के लिए कोई भी राजनैतिक पद लेने से मना कर दिया और अपनी जिंदगी के आखिरी दो साल सांप्रदायिक हिंसा के जख्मों को भरने में लगा दिए. यहां तक कि जब उनके शरीर में सहने की ताकत नहीं बची, तब भी उन्होंने उपवास किए, नोआखली के गांवों की पथरीली सड़कों पर अकेले चले और पीडि़तों से गुजारिश की कि वे दयालुता और क्षमा दिखाएं. हालांकि उनकी जान को खतरा था, पर उन्होंने सुरक्षा लेने से साफ इनकार कर दिया और अपने आलोचकों को बदतरीन करने की चुनौती ही नहीं बल्कि दावत तक दी, जिनमें से एक ने ऐसा किया भी.

हालांकि, गांधी की अपनी सीमाएं थीं, पर अनेक क्षेत्रों में वे बेहद प्रेरक और शिक्षाप्रद थे और यही उन्हें 20वीं सदी के महानतम लोगों में से एक बनाता है. गांधी को अपनी ज्यादातर वयस्क जिंदगी में दमन और अन्याय झेलना पड़ा. दक्षिण अफ्रीका में फर्स्ट क्लास में सफर की जुर्रत करने की वजह से एक सर्द रात उन्हें ट्रेन से निकालकर बाहर फेंक दिया गया, गाली-गलौज करते हुए कंडक्टर ने उन्हें कोच से नीचे पटक दिया और वह तो गनीमत थी कि साथी मुसाफिरों ने उन्हें बचा लिया. प्रिटोरिया में राष्ट्रपति क्रूगर के घर के सामने से गुजरने की जुर्रत करने के लिए दरबान ने उन्हें लात मारी और नाली में गिरा दिया.

ट्रांसवाल में उन्हें 1900 के रजिस्ट्रेशन कानून का विरोध करने की वजह से गिरफ्तार कर लिया गया और आम मुजरिमों के साथ जेल की कोठरी में रखा गया, जो उनकी तरफ यौन इशारे और उनकी मौजूदगी में भद्दी हरकतें करते थे. डरबन में एक नस्लवादी श्वेत भीड़ ने उन पर पत्थर फेंके और इस कदर मारा-पीटा कि जान बचाने के लिए उन्हें नजदीक के एक पुलिस थाने में शरण लेनी पड़ी और बाद में वहां से पुलिस वाले के भेष में ही बाहर निकल सके.

गांधी ने अपने इन और ऐसे ही दूसरे अनुभवों पर गहराई से सोच-विचार किया और पूछा कि यह सारा दमन तथा अत्याचार क्यों हुआ और उसमें पीडि़त की क्या भूमिका थी. वे इस नतीजे पर पहुंचे कि दमन के पीडि़त भी कतई निर्दोष नहीं थे. दरअसल, अपने दमन में उनकी मिलीभगत थी. अंग्रेजों ने भारतीयों की ही मदद से भारत पर हुकूमत की. जलियांवाला बाग नरसंहार में भारतीय सैनिकों ने ही अपने साथी भारतीयों पर गोलियां चलाईं. गांधी और भी आगे गए और उन्होंने दलील दी कि यह सारी ताकत आखिरकार पीडि़त की मदद से ही हासिल हुई, जिसके बगैर वे खोखले होते.

चूंकि साधारण आदमियों और औरतों के भीतर इस किस्म की ताकत मौजूद थी, इसलिए जरूरत इस बात की थी कि वे अपनी आजादी की खातिर यह ताकत दिखाएं और अपने मालिकों को सहयोग देने से इनकार करें. उनमें से ज्यादातर डर या घबराहट की वजह से ऐसा नहीं कर पा रहे थे. दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को झिड़कते हुए गांधी ने कहा कि जो खुद कीड़ों-मकोड़ों की तरह व्यवहार करते हैं, उन्हें कुचले जाने पर दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए.

दूसरे संदर्भ में उन्होंने हिंदुस्तानियों से यह भी कहा कि वे 'खुद अपने खिलाफ बगावत करना' सीखें. गांधी के लिए साहस आत्म-सम्मान से बंधा था और महान मानवीय गुण था. ताउम्र उनकी चिंता यह थी कि अन्याय के शिकार लोगों के आत्म-सम्मान को कैसे जगाएं. जैसा कि नेहरू ने कहा था, उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने भारत को जकड़े हुए डर की चादर हटा दी और उसके भयभीत और संकोची लोगों को ताकत दी.

एक और क्षेत्र जिसमें गांधी ने गहरी बातें कहीं, अहिंसा के उनके आचरण से जुड़ा है. उनके तईं इसे गलत समझा गया था कि केवल नुक्सान न पहुंचाना ही अहिंसा है. अगर एक जानवर किसी असाध्य बीमारी से मर रहा है और उसकी जिंदगी के कुछ ही घंटे बाकी हैं, तो जानलेवा इंजेक्शन देकर उसकी जिंदगी को खत्म करना प्रेम का कृत्य है. इसमें हिंसा है, पर यह हिंसक कृत्य नहीं है. जैसा कि गांधी ने एक बार कहा था, अहिंसा का सही अंग्रेजी अनुवाद 'नॉन-वायलेंस' नहीं बल्कि 'करुणा' या 'प्यार' है.

कई दूसरे पहलुओं में भी गांधी ने अहिंसा की अवधारणा को विस्तार और गहराई दी. भारतीय परंपरा में नुक्सान को इस तरह परिभाषित किया जाता है जिसमें न केवल शारीरिक नुक्सान बल्कि पीड़ा या क्लेश के मनोवैज्ञानिक, नैतिक और दूसरे रूप भी शामिल हैं. गांधी ने इस व्यापक परिभाषा को न केवल स्वीकार किया बल्कि इसका विस्तार भी किया. उनकी राय में कोई किसी पर गोलियां चलाकर या लंबे समय तक उसे जिंदगी की बुनियादी जरूरतों से वंचित रखकर नुक्सान पहुंचा या मार सकता है. चाहे कोई 'एक झटके में' मारे या 'थोड़ा-थोड़ा करके', नतीजा वही होता है और इसलिए उसमें शामिल व्यक्ति हिंसा का दोषी है. दूसरों को बेइज्जत करना, नीचा दिखाना या अपमानित करना, आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाना, कठोर शब्द बोलना, कड़े फैसले थोपना, गुस्सा और मानसिक क्रूरता भी हिंसा के रूप हैं.

गांधी का अहिंसा का विचार सत्याग्रह  के आचरण पर आधारित था, जिसमें दूसरे को खुद अपनी पीड़ा के जरिए बदला जाता है. इसे उन्होंने 'आत्मा की चीर-फाड़' कहा था. सत्याग्रही जिसे सत्य या न्यायसंगत मांग समझता है, उसके आधार पर अपना रुख तय करता है, पर साथ ही अपने संघर्ष की रोशनी में अपने विचारों को बदलने की संभावना को भी खुला रखता है. वे अपने विरोधी की बेहतर प्रवृत्तियों को जगाते थे, उसकी अंतरात्मा को कुरेदते थे, उसके दिलो-दिमाग को खोलते थे और न्यायसंगत समाधान की खोज और प्राप्ति में उसके सहयोग की मांग करते थे.

हालांकि, गांधी बहुत धार्मिक व्यक्ति थे, वे किसी कट्टरपंथी या धर्मांध व्यक्ति से सबसे ज्यादा अलग भी थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है और उसे खुद को मानवीय तर्क और अनुभव की कसौटी पर कसना ही चाहिए. यह कभी पूर्ण इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति एक खास भाषा में, इतिहास के खास पड़ाव पर हुई और उसकी तरह-तरह की व्याख्याएं की जा सकती हैं. चूंकि ऐसा है इसलिए हर धर्म सम्मान का अधिकारी है. साथ ही, वह दूसरों से भी बहुत कुछ सीख सकता है और इसलिए दूसरे धर्मों के साथ उसे विनम्रता से पेश आना चाहिए.

खुद गांधी ने इसकी शानदार मिसाल पेश करते हुए दूसरे धर्मों से, खासकर ईसाइयत से, खुलकर उधार लिया और उसे खूबसूरती से हिंदू धर्म में मिला लिया. गांधी का मार्गदर्शक सिद्धांत यह था कि उदात्त विचारों को सभी दिशाओं से अपने पास आने दो. वे अपनी रक्षा के लिए दीवारों वाले घर में तो रहना चाहते थे, पर उसकी खिड़कियां पूरी खुली रखकर, ताकि विचारों के ताजा झोंके आते रहें. गहरे अर्थ में गांधी बहुसांस्कृतिकता या संस्कृतियों के साथ रचनात्मक संवाद के पहले सिद्धांतकार और साधक थे. धर्म की फितरत को समझने का उनका तरीका कट्टरपंथ से महफूज रखता है और हमारी मुश्किलजदा दुनिया के लिए बेहद प्रासंगिक है.

गांधी का राजनैतिक नेतृत्व का विचार भी इतना ही लुभावना और प्रेरक है. राष्ट्रीय आंदोलन के नेता होने के नाते वे इस बात को लेकर बेहद सतर्क थे कि नेता से क्या अपेक्षाएं की जाती हैं और उसकी ताकत की सीमाएं क्या हैं. जब उन्हें लगा कि उनका असहयोग आंदोलन गलत दिशा में चला गया और हिंसक हो उठा है, तब उन्होंने इसे हिमालय जैसी भारी भूल बताया और वापस ले लिया. इतिहास में ऐसा कोई दूसरा नेता खोज पाना मुश्किल है जिसने खुलेआम अपनी गलती मानी हो और सुधार की कोशिश की हो. सांप्रदायिक हिंसा को लेकर भी गांधी ऐसा ही सोचते थे, खासकर 1946 और 1948 के बीच. उन्हें लगता था कि उन्होंने इस पर शायद पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है.

छोटे से छोटे गलत फैसले के लिए खुद को तकलीफ देने वाले शक्चस होने के नाते गांधी ने इसकी निजी जिम्मेदारी ली और हिंसा के खिलाफ अपनी लड़ाई में अपनी जान तक झोंक दी. नेता होने के नाते उन्हें लगता था कि अपने साथियों से बहुत आगे कदम नहीं बढ़ाना उनका कर्तव्य है, उनके सोचे-समझे फैसले के खिलाफ जाने की तो बात ही छोड़ दें. यह भी एक वजह थी कि वे देश के बंटवारे के खिलाफ 'आमरण अनशन' के अपने आधे-अधूरे वादे पर आगे नहीं बढ़े, खासकर तब जब उनके तकरीबन तमाम वरिष्ठ साथी बंटवारे को स्वीकार कर चुके थे.

गांधी की अपनी सीमाएं थीं. जैसा कि नेहरू ने लॉर्ड माउंटबैटन से कहा था, गांधी इतने मनुष्य थे कि संत नहीं हो सकते थे. ब्रह्मचर्य पर उनके विचार विश्वास की परीक्षा लेते थे और यौनिकता को पशुवत आवेग मानने का उनका विचार इसकी समृद्ध नैतिक और भावनात्मक क्षमता को नजरअंदाज कर देता है. अहिंसा की परम शक्ति में उनका विश्वास भोला-भाला था. जैसा कि मार्टिन बुबर और दूसरों ने बताया है कि सत्याग्रह की दिशा में उनके पहला कदम उठाने से पहले ही नाजियों ने गांधी को निपटा दिया होता.

उन्हें बुराई की फितरत और गहराई के बारे में सीमित समझ थी और उसकी मौजूदगी से वे हक्का-बक्का महसूस करते थे. इन और ऐसी ही निजी और दार्शनिक सीमाओं के बावजूद गांधी के विचारों में हमें रास्ता दिखाने की क्षमता है. उनके जीवन में, जिसे उन्होंने अपना संदेश कहा था, दुर्लभ गहराई और भव्यता थी. उनकी 150वीं जयंती पर हमें कृतज्ञता के साथ उनके विचारों का अध्ययन करना चाहिए और उनकी जो भी गहरी बातें हमें प्रासंगिक और भरोसे के लायक लगें, उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए.

भीखू पारेख यूनिवर्सिटी ऑफ हल, यूके, में पोलिटिकल फिलॉसफी के एमेरिटस प्रोफेसर और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य हैं

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