ज्योतींद्र जैन
उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में जब भारत में दृश्य छवि (विजुअल इमेज) के बड़े पैमाने पर उत्पादन की प्रौद्योगिकियों (जैसे लिथोग्राफी) का आगमन हुआ, तब देश में राष्ट्रवादी उत्थान और स्वतंत्रता आंदोलन का भी उदय हो रहा था. तस्वीरों के व्यापक प्रसार का फायदा स्वतंत्रता आंदोलन के विचारों और संदेशों को व्यापक स्तर पर फैलाने में मिला. संदर्भों और वास्तविकता के चित्रण ने औपनिवेशिक सबक को पारंपरिक रूप से सपाट और आदर्शित कल्पना को अधिक मूर्त आकृतियों से संपन्न किया, जिसने तुरंत जनता को आकर्षित किया. इसके अलावा, 1850 के दशक से भारत में फोटोग्राफी का आगमन—राष्ट्रवादी नेताओं को दृश्य पहचान और आराध्य सरीखा स्थान प्रदान करने के लिए कलाकारों के जरिए नियोजित यथार्थवादी चित्रण की शक्ति के साथ-साथ पूरे भारत में आम जनता के बीच स्वतंत्रता के लिए बड़े पैमाने पर जुनून और उत्साह का संचार हुआ.
महात्मा गांधी की लोकप्रिय छवियों का ढेर—जिसमें उनके निजी जीवन की तस्वीरों के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन के उनके नेतृत्व के सभी पहलुओं का भी छायांकन शामिल था—उनकी लोकप्रिय छवि निर्माण का विषय बन गया, जिसने उन्हें किसी पौराणिक देवता सरीखा प्रतिष्ठित किया.
19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में सबसे प्रसिद्ध लिथोग्राफिक प्रेसों में कलकत्ता स्थित चोर बागान आर्ट स्टूडियो और कलकत्ता आर्ट स्टूडियो शामिल थे; पूना स्थित चित्रशाला प्रेस; बॉम्बे—और उसके बाद कुर्ला-लोनावला स्थित रवि वर्मा प्रेस और कुछ हद तक बाद की अवधि में शुरू हुआ मथुरा का बृजबासी प्रेस जिसकी कई और स्थानों पर शाखाएं भी थीं. इनमें से, चित्रशाला और बृजबासी प्रेस ने राष्ट्रवादी और हिंदू-राष्ट्रवादी कल्पना के उत्पादन के साथ खुद को मजबूती से जोड़ा.
इनके अलावा, कई छोटे और क्षेत्रीय लिथो प्रेस पूरे भारत में खुल रहे थे जो सस्ते पोस्टर, कैलेंडर, उत्पादों के लेबल और अन्य प्रचार सामग्री बना रहे थे और जिसने दृश्य छवि को आम आदमी के हाथों तक पहुंचाया जो पहले कभी नहीं हुआ था. इसने धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, राष्ट्रवादी और औपनिवेशिक आधुनिकता सभी के बीच एक तारतक्वय स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
महात्मा की जिन छवियों का चयन करके यहां प्रस्तुत किया गया है, वे महात्मा गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़ रहे भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ भारत में शुरू हुई छपाई क्रांति के परिदृश्य से निकली थीं. ठ्ठ
'असहयोग वृक्ष और महात्मा गांधी',
एन.डी. सहगल ऐंड संस, लाहौर से 1930 के दशक में प्रकाशित
इस प्रिंट से पता चलता है कि महात्मा गांधी अपने आश्रम के बाहर एक लाक्षणिक वृक्ष के नीचे बैठे थे, जिसे 'दमन की नीति' से नीचे खींचे जाने की कोशिश के दौरान एक काल्पनिक 'संघठन की देवी' ने संभाल रखा था. पेड़ को फलयुक्त दिखाया गया है—जिसमें असहयोग आंदोलन के नेताओं के चित्र हैं. महत्वपूर्ण संस्थाएं, घटनाएं और उस दौर के व्यक्तियों, जैसे कि परिषद कक्ष, स्वराज्य आश्रम, एक जेल जिसके ऊपर ब्रिटिश झंडा है, हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का प्रतिनिधित्व और दादाभाई नौरोजी और तिलक, कस्तूरबा, आदि जैसे नेताओं की आवक्ष प्रतिमाएं पेड़ के आसपास दिखाई गई हैं. यह उल्लेखनीय है कि इसका सभापतित्व श्री कृष्ण कर रहे हैं जो भारत माता (एक साड़ी पहने महिला के रूप में चित्रित) की बैठी हुई आकृति के पीछे खड़े हैं और भगवद् गीता से एक श्लोक का उच्चारण कर रहे हैं जो इस बात का संकेत देता है कि भारत में जब कभी भी धर्म की हानि होगी तो वे अवतार लेंगे
चित्र 2 और 3: महात्मा गांधी और अन्य के साथ कोलाज, अलग-अलग दृश्य स्रोतों से कटआउट और शेखावाटी, राजस्थान के नाथद्वारा से प्राप्त एक बैकग्राउंड पेंटिंग, 1930
चित्र 2 ध्यानमग्न मुद्रा में गांधी की एक प्रिटेंड तस्वीर से तैयार कटआउट है. गांधी एक ग्रामीण परिवेश में किसी हवेली के बाहर ध्यान लगाए बैठे हैं और पीछे खड़े भगवान राम उन्हें आशीर्वाद (दूसरे प्रिंट से प्राप्त) दे रहे हैं.
जन्म से वैष्णव, गांधी की भगवान राम में गहरी आस्था जगजाहिर है. यह कोलाज राजस्थान के शेखावाटी के एक वैष्णव अग्रवाल की हवेली में है.
चित्र 3 में महात्मा गांधी, भारत माता और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के झंडे की छवियां हैं, जिसे विभिन्न प्रिटेंड स्रोतों से प्राप्त किया गया है और जलयुक्त तथा वनाच्छादित परिदृश्य में दर्शाया गया है. अग्रभाग में, गांधी एक बकरी (यहां हिरण या बारहसिंगा का भ्रम होता है) को देख रहे है, जबकि पृष्ठभूमि में भारत माता और कांग्रेस के ध्वज हैं
बकरी के साथ महात्मा गांधी के लगाव से सभी परिचित हैं. अपनी आत्मकथा में, एक युवा लड़के के रूप में बकरे का मांस खाने के अपने प्रयोग के बारे में लिखते हैं, जिसका उन्हें इतना पछतावा हुआ कि उन्होंने लिखा, ''ऐसा लगा जैसे एक जीवित बकरा मेरे अंदर मिमिया रहा था...'' भारत और विदेशों में ऐसी अनगिनत कलाकृतियां और तस्वीरें हैं जिसमें गांधी बकरियों के साथ नजर आते हैं.
‘महात्माजी की बकिंघम पैलेस में राजा-बादशाह से भेंट’,
श्याम सुंदर लाल, कानपुर द्वारा1930 के दशक के आरंभ में मुद्रित और प्रकाशित
यह प्रिंट महात्मा गांधी और किंग जॉर्ज पंचम की ऐतिहासिक मुलाकात का एक काल्पनिक दृश्य है, क्योंकि इस घटना की कोई वास्तविक तस्वीर सामने नहीं आई है. उपस्थित व्यक्ति (बाएं से दाएं) सरोजिनी नायडू, क्वीन मैरी, सम्राट जॉर्ज पंचम, पंडित मदन मोहन मालवीय और महात्मा हैं. यहां पोशाकों से जुड़े दो विवरण ध्यान देने योग्य हैं: गांधी के अनौपचारिक कपड़ों को लेकर अंग्रेजों की आपत्ति के बावजूद वे अपने उसी सामान्य परिधान में पैलेस में गए, जबकि सरोजिनी नायडू को अपने खादी के वस्त्रों से कन्नी काटते हुए एक पारंपरिक रेशमी साड़ी पहने दिखाया गया है. गांधी से हाथ मिलाने के लिए आगे की ओर झुकते हुए सम्राट जबकि गांधी ने उनके उत्तर में
अपनी तरफ से वैसा हाव-भाव नहीं दर्शाया. रानी की तुलना में अधिक भव्य राजसी सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है.
ऐसी संभावना है कि यह कलाकार की अपनी कल्पना की उपज रही होगी.
ताश के पत्ते (अगला और पृष्ठभाग),
बीसवीं सदी के आरंभ का
कार्ड के अगले हिस्से में गांधी के चित्र के रूप में हुकुम का इक्का, जो ताश पत्तों के पदानुक्रम में सर्वोच्च होता है, को एक अंडाकार फ्रेम के अंदर रखा गया है जिस पर 'महात्मा गांधी' (ऊपर) और 'बेलगाम 1924' (नीचे) छपा हुआ है. पृष्ठभाग पर भारतीय तिरंगा, अशोक स्तंभ पर बना जो कि भारत का राष्ट्रीय चिन्ह है और 'वंदे मातरम' और 'जय हिंद' जैसे नारों के साथ दर्ज है.
यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय नेताओं की अगुआई में स्वदेशी और सत्याग्रह जैसे मुख्यधारा के प्रतिरोध आंदोलनों के अलावा दृश्य प्रतीकों को ताश के पत्तों जैसी क्षेत्रीय लोकप्रिय चीजों पर दर्शाया गया, यह बताता है कि संदेश बहुत जमीनी स्तर तक पहुंचा था.
चित्र (ऊपर) का ऊपरी आधा हिस्सा उन यूरोपीय पेंटिग्स से प्रभावित है जिसमें यीशु के स्वर्गारोहण का चित्रण किया गया है
'हमारे रक्षक',
मुद्रक, कलाकार और प्रकाशक की जानकारी नहीं है, बीसवीं सदी के मध्य की छवि
चित्र 6 की अवधारणा के समान, इस तस्वीर की शैली रविशंकर रावल या कानू देसाई जैसे गुजराती गांधीवादी कलाकारों की कलात्मक प्रस्तुति से मिलती-जुलती है और संभवत: इसे बृजबासी से प्रकाशित किया गया है.
'गांधी का स्वर्गारोहण',
ए.एस. बृजबासी द्वारा मुद्रित और प्रकाशित, 1948
यह मुद्रण नाथद्वारा के कलाकार नरोत्तम नारायण शर्मा की एक पेंटिंग पर आधारित है. पूरी रचना आंशिक रूप से गांधी के अंतिम संस्कार के वास्तविक दृश्य पर आधारित है और आंशिक रूप से कलाकार और प्रकाशक की कल्पना से उपजी है. अत्यधिक नाटकीय परिदृश्य में गांधी के दाह संस्कार को अग्र भाग में प्रदर्शित किया गया है जिसमें पंडित नेहरू और सरदार पटेल महात्मा को श्रद्धांजलि दे रहे हैं. मध्य भाग में स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य प्रतिष्ठित नेता दिखते हैं. चित्र के ऊपरी आधे हिस्से में गांधी को हाथ जोड़े हुए आकाश की ओर बढ़ता दिखाया गया है. उसके ऊपर उन्हें एक विमान (एक दिव्य वाहन) में बैठा दिखाया गया है, जिसे दो सफेद कबूतर खींच रहे हैं. विमान के दोनों तरफ भारतीय राष्ट्रीय ध्वज और साड़ी में सजी पंखयुक्त परी दिखती है. छवि का ऊपरी हिस्सा स्पष्ट रूप से पुनर्जागरण काल के बाद के यूरोपीय चित्रों से प्रभावित है जिनमें यीशु को पृथ्वी से स्वर्ग में निवास करने वाले एक देवता के रूप में प्रस्थान का चित्रण किया गया है.
ये तस्वीरें भारत में स्वाधीनता आंदोलन के साथ-साथ छपाई क्रांति के उभार का परिणाम हैं
कोलाज अमूमन सांस्कृतिक शक्ति के प्रसार के वाहक बने, तस्वीरों और स्थान को कालातीत ढंग से पेश करने के लिए अक्सर पौराणिक मिथकों से जोड़कर जादुई संदेश दिया जाता था
ज्योतींद्र जैन राष्ट्रीय शिल्प संग्रहालय के पूर्व निदेशक और जेएनयू में स्कूल ऑफ आर्ट्स ऐंड एस्थेटिक्स के प्रोफेसर रहे हैं. उन्होंने कई किताबें लिखी हैं, जिनमें कालीघाट पेंटिंग: इमेजेज फ्रॉम अ चेंजिंग वर्ल्ड और इंडियन पॉपुलर कल्चर: 'द कॉन्ट्रेस्ट ऑफ द वर्ल्ड ऐज पिक्चर' शामिल हैं. वे वर्तमान में मार्ग प्रकाशन, मुंबई के संपादक और जेएनयू के टैगोर नेशनल फेलो हैं
ज्योतींद्र जैन राष्ट्रीय शिल्प संग्रहालय के पूर्व निदेशक और जेएनयू में स्कूल ऑफ आर्ट्स ऐंड एस्थेटिक्स के प्रोफेसर रहे हैं.
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