दोस्ताना
भाजपा की अग्रणी जोड़ी वाजपेयी और आडवाणी के मतभेद कई मुद्दों पर रहे हैं, लेकिन वे पार्टी में मुश्किल से मुश्किल दिनों में भी साथ बने रहे. अयोध्या आंदोलन में भाजपा की हिस्सेदारी को लेकर दोनों की दो राय थी, फिर 1998 से 2004 का दौर भी उनकी लंबी साझेदारी की कड़ी परीक्षा की तरह था. आडवाणी से अलग राय रखने के बावजूद वाजपेयी 2002 में गुजरात दंगों के बाद मोदी और 2004 के चुनाव में इंडिया शाइनिंग अभियान पर नरम पड़ गए. अंततः जिसकी वजह से हार का सामना करना पड़ा
अटल बिहारी वाजपेयी के अंतिम संस्कार में 17 अगस्त को जो लोग मौके पर मौजूद थे या जिन लोगों ने वह सब अपने टीवी स्क्रीन पर देखा, उन सबने एक बात जरूर गौर की होगी. श्मशान स्थल पर मौजूद सभी शोकाकुल नेताओं में लालकृष्ण आडवाणी ही एकमात्र ऐसे थे जो निपट अकेले दिख रहे थे. आखिर उन्होंने अटलजी के निधन से न सिर्फ अपना वरिष्ठ पार्टी सहयोगी, बल्कि "65 साल से सबसे करीबी दोस्त'' भी खो दिया.
स्वतंत्र भारत या शायद दुनिया में किसी भी दूसरे लोकतंत्र के इतिहास में, करीब-करीब एक जैसी हैसियत के दो नेताओं के बीच इतनी निकटता और ऐसी मजबूत राजनैतिक साझेदारी नहीं दिखती, जितनी वाजपेयी और आडवाणी के बीच रही है. राजनीति, खासकर प्रतिस्पर्धी महत्वाकांक्षाओं के साथ सत्ता की राजनीति में, अक्सर गहरी से गहरी दोस्ती झटके में खत्म हो जाती है.
हमारे देश के राजनैतिक परिदृश्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें पुराने दोस्त एक-दूसरे के खिलाफ हो गए. वी.पी. सिंह राजीव गांधी की सरकार में मंत्री थे. लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि उनके अपने ही प्रधानमंत्री के पक्ष में माहौल अच्छा नहीं है, उन्होंने विद्रोह का झंडा उठा लिया. एच.डी. देवेगौड़ा ने कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े की जमीन हिला दी. तमिलनाडु में सीएन अन्नादुरै की मृत्यु के बाद, जिगरी यार रहे करुणानिधि और एमजीआर ने एक दूसरे के खिलाफ दुश्मनी की सौगंध उठा ली. जनता पार्टी सरकार के शीर्ष पर अहं की टकराहट की बलि चढ़ गई.
अटल और आडवाणी के बीच अटूट दोस्ती को इसी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है. पहली बार दोनों की मुलाकात 1953 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दो युवा प्रचारकों के रूप में हुई थी जिन्हें नवगठित भारतीय जनसंघ का काम सौंपा गया था. वाजपेयी लोकप्रिय हिंदी कवि, पाञ्चजन्य के संपादक और ओजस्वी वक्ता के नाते पहले ही लोगों के दिलों में जगह बनाना शुरू कर चुके थे.
आडवाणी बाहरी दुनिया के लिए अनजान थे. कराची से आए इस काफी पढ़े-लिखे और अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ रखने वाले युवा ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व का ध्यान आकर्षित किया था. उन्होंने आडवाणी को ऑर्गेनाइजर के लिए काम करने को कहा. दोनों ने बेहद सम्मानित नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय के तहत काम किया, जिनकी छाप मौजूदा पार्टी पर ही नहीं, उसके भावी स्वरूप भारतीय जनता पार्टी पर भी पड़ी.
पार्टी के लिए वे बेहद मुश्किल भरे दिन थे. आज नई दिल्ली में भाजपा के पांचसितारा मुख्यालय को देखकर यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि जनसंघ बहुत ही मितव्ययी पार्टी थी. वाजपेयी, आडवाणी और उनके सहयोगी साइकिलों पर चला करते थे. अनुशासित काडर और पूरी तरह निष्ठावान नेताओं के लिए पार्टी की प्रशंसा तो खूब होती थी लेकिन स्थानीय चुनावों में भी इसके उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाते थे. ऐसी ही एक निराशाजनक हार के बाद आडवाणी ने वाजपेयी से कहा, "आइए चलें फिल्म देखकर आते हैं.'' दोनों ने राज कपूर की फिल्म फिर सुबह होगी देखी. आज भाजपा कामयाबी के शिखर पर है, तो उसका बड़ा श्रेय वाजपेयी और आडवाणी की आदर्श जोड़ी को जाता है.
1968 में उपाध्याय के अचानक दुनिया से चले जाने—एक ऐसी रहस्यमय हत्या जिसकी गुत्थी आज तक अनसुलझी है—के बाद पार्टी का भार वाजपेयी के कंधों पर आ गया. उस समय आडवाणी उनके सबसे भरोसेमंद सहयोगी बने और तब तक बने रहे जब तक सेहत बिगडऩे के बाद लगभग एक दशक पहले वाजपेयी शारीरिक रूप से अक्षम नहीं हो गए. उनके पारस्परिक विश्वास की परीक्षा कई मौकों और संकटों के दौरान हुई. इंदिरा शासन की इमरजेंसी के दौरान लोकतंत्र के संघर्ष में दोनों को हिरासत में रहना पड़ा.
वे जनता पार्टी के दो ताकतवर और भरोसेमंद स्तंभ थे, जिसकी नींव जयप्रकाश नारायण ने 1977 में रखी थी. दोनों मोरारजी देसाई की सरकार में बेहतर कामकाज वाले मंत्री रहे. उन्होंने पार्टी को एकजुट रखने और सरकार को बचाए रखने की भरपूर कोशिश की लेकिन सब बेकार गया. जब पूर्व जनसंघ के बाकी नेताओं के साथ उन दोनों को भी विवादास्पद "दोहरी सदस्यता'' के मुद्दे पर पार्टी छोडऩे को मजबूर किया गया, तो आडवाणी ने ही वाजपेयी को सलाह दी, "आइए एक नई यात्रा शुरू करें. नई राजनैतिक पार्टी बनाएं.'' इस तरह 1980 में भाजपा का जन्म हुआ और उसके संस्थापक अध्यक्ष वाजपेयी ने एक काव्यमय भविष्यवाणी की, "अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा.''
वह नारा 1980 और '90 के दशक में भारतीय राजनीति में छाया रहा कि अटल आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान. इस दौरान पार्टी को वाजपेयी की सौक्वय, धर्मनिरपेक्ष छवि और आडवाणी की "हिंदुत्व'' के नायक की छवि, दोनों का फायदा मिला.
ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच मतभेद नहीं थे. आडवाणी ने 2008 में छपी अपनी किताब माइ कंट्री माइ लाइफ में इसकी हल्की-सी चर्चा की है. अयोध्या आंदोलन में भाजपा की भागीदारी के मुद्दे पर दोनों की राय एक जैसी नहीं थी, जिस मुद्दे ने पार्टी को 1984 में केवल दो सांसदों से 1989 में 89 और 1991 में 119 पर पहुंचा दिया था. अपनी राम रथयात्रा के कारण आडवाणी आरएसएस के नेताओं और भाजपा समर्थकों के बीच कई साल तक वाजपेयी से ज्यादा लोकप्रिय रहे. फिर भी, 1995 में मुंबई में भाजपा के महाधिवेशन में अद्वितीय आत्मत्याग का परिचय देकर आडवाणी ने घोषणा की कि अगर पार्टी आगामी संसदीय चुनावों में जनादेश प्राप्त करती है तो वाजपेयी प्रधानमंत्री होंगे.
मैंने एक बार उनसे पूछा था, "आपने ऐसा क्यों किया?'' उनका जवाब था, "मैंने हमेशा वरिष्ठ नेता के रूप में अटलजी का सम्मान किया है. मुझे यह भी पता था कि देश के लोगों में उनकी स्वीकार्यता ज्यादा है.''
मुझे वाजपेयी और आडवाणी दोनों के साथ करीब से काम करने का अनोखा सौभाग्य प्राप्त हुआ और उसके बाद के वर्षों में अटलजी के प्रधानमंत्री बनने पर उनके साथ काम किया. आडवाणी ने प्रधानमंत्री के वफादार डिप्टी के रूप में काम किया और पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के वाजपेयी के प्रयासों सहित सभी महत्वपूर्ण फैसलों पर पूरी तरह उनके साथ खड़े रहे. हालांकि, 1998-2004 के दौरान दोनों के रिश्तों में कुछ खिंचाव आ गया था. गुजरात में 2002 के खौफनाक सांप्रदायिक दंगों से वाजपेयी बड़े दुखी थे.
आडवाणी भी इससे दुखी थे लेकिन हालात से राजनैतिक तौर पर निबटने के दोनों के नजरिए में फर्क था. उन दिनों प्रधानमंत्री के साथ बातचीत के क्रम में मुझे महसूस होता था कि वाजपेयी चाहते थे कि पार्टी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा देने को कहे. उन्होंने अप्रैल 2002 में गोवा में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए जाते समय रास्ते में आडवाणी और अन्य वरिष्ठ नेताओं से इसका जिक्र किया.
लेकिन आडवाणी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अधिकांश सदस्यों ने वाजपेयी का साथ नहीं दिया. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन करने वाले वाजपेयी ने पार्टी का फैसला मान लिया. फिर भी, वे यही मानते रहे कि इस्तीफे की उनकी मांग सही थी. 2004 के संसदीय चुनावों में भाजपा हार गई. उसके बाद उन्होंने मुझसे कहा, "गुजरात दंगे हमारी पार्टी के ट्रैक रिकॉर्ड और हमारी सरकार की छवि पर धब्बा थे, हमारी हार के कारणों में एक थे.''
एक और बात जिसने वाजपेयी को बहुत व्यथित किया, वह थी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन फिर से शुरू करने का विश्व हिंदू परिषद का ऐलान. उन्होंने एक बार मुझसे कहा, "मैं विपक्षी दलों से निबट सकता हूं, लेकिन मुझे दुख है कि हमारे अपने लोग ही हमारे लिए समस्याएं पैदा कर रहे हैं.'' मैंने उनसे पूछा, "आप विहिप के साथ सख्ती क्यों नहीं दिखाते?'' उनका जवाब था, "नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता. अगर मैंने किया तो पार्टी टूट सकती है.'' विहिप के रवैये से प्रधानमंत्री की ही तरह गृह मंत्री आडवाणी भी दुखी थे. सो, आश्चर्य नहीं कि एक दिन वे भी कट्टर हिंदुत्ववादियों को खटकने लगे.
वाजपेयी "इंडिया शाइनिंग'' अभियान से खुश नहीं थे, जो आडवाणी की भारत उदय यात्रा (मार्च-अप्रैल 2004) के साथ जुड़ गया. उप-प्रधानमंत्री ने वाजपेयी सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने के लिए लोकसभा चुनावों से पहले यह यात्रा शुरू की थी. चुनाव पांच महीने पहले करा लिए गए. अभियान को श्इंडिया राइजिंग्य (जिसका शाब्दिक अर्थ "भारत उदय'' है) के रूप में प्रस्तुत किया जाता तो कोई विवाद नहीं होता. लेकिन "इंडिया शाइनिंग'' में एक अतिरेक का भाव झलकता था जो वाजपेयी को नहीं भा रहा था. जैसी वाजपेयी की आशंका थी, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने "इंडिया शाइनिंग'' की खिल्ली उड़ानी शुरू की और उन्हें फायदा मिला.
वाजपेयी ने महसूस किया कि के.एस. सुदर्शन (जिनके साथ वाजपेयी और आडवाणी दोनों के ही बहुत असहज रिश्ते थे) के नेतृत्व में आरएसएस ने चुनाव में पूरा जोर नहीं लगाया. संघ परिवार में बहुत से लोग इससे नाखुश थे कि भाजपा की अगुआई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने की उनकी तीन "मूल मांगों'' पर काम नहीं किया.
2004 के चुनावों में भाजपा की हार के बाद वाजपेयी के साथ एक बातचीत मुझे अच्छी तरह से याद है. पार्टी की अप्रत्याशित हार के कारणों का आकलन करने के लिए गोवा में पार्टी और आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की एक श्चिंतन बैठक्य आयोजित की गई थी. वाजपेयी सरकार की "हिंदुत्व'' के प्रति प्रतिबद्धता में कमी को कुछ लोगों ने हार का मुख्य कारण बताया था. चायपान के दौरान, मैं वाजपेयी के साथ बैठा था कि अचानक उन्होंने मुझसे पूछ लिया, "ये हिंदुत्व क्या होता है?'' जिस अंदाज में उन्होंने यह प्रश्न किया था, उदासी और हताशा के भाव स्पष्ट दिखते थे. 2004 के बाद वे पार्टी से खुद को दूर रखने लगे.
इसके बाद आरएसएस नेतृत्व की ओर से परेशान किए जाने की बारी आडवाणी की थी. एक टीवी चैनल को दिए विस्फोटक साक्षात्कार में आरएसएस प्रमुख सुदर्शन ने कहा कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों को अब किनारे हो जाना चाहिए और भाजपा की कमान युवा नेतृत्व को सौंप देनी चाहिए. जो व्यक्ति 2009 के चुनावों में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने जा रहे हैं, उनके लिए पार्टी के पैतृक संगठन के प्रमुख की बातों से बहुत कुछ साफ हो रहा था.
आडवाणी ने मई 2005 में पाकिस्तान की शांति-प्रचार यात्रा के दौरान मुहम्मद अली जिन्ना की "धर्मनिरपेक्ष'' मान्यताओं के लिए उनकी प्रशंसा की और आरएसएस ने इस आधारहीन विवाद को मुद्दा बनाकर आडवाणी को निशाने पर ले लिया और उनसे पार्टी प्रमुख का पद छोडऩे तक की मांग कर दी. इस प्रकरण पर वाजपेयी ने मुझसे कहा था, "आडवाणीजी ने जिन्ना के बारे में जो कहा, उसमें कुछ गलत नहीं था.'' लेकिन उन्होंने यह भी कहा, "पूरे विवाद को उचित पूर्व परामर्श के बाद अलग तरीके से संभाला जाना चाहिए था.''
वाजपेयी के दिल में आडवाणी के व्यक्तित्व, उनकी सैद्धांतिक राजनीति और पार्टी निर्माण में दिए उनके अत्यधिक योगदान के प्रति गहरा और भावपूर्ण सम्मान था. अंतिम संस्कार की अगली सुबह मैं आडवाणी जी के आवास पर उनसे मिलने गया. वे अपनी बेटी प्रतिभा के साथ अकेले बैठे, देव आनंद की फिल्म हम दोनों का अपना पसंदीदा गाना सुन रहे थेः मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया/हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया/गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां/मैं दिल को उस मुकाम पे लाता चला गया.
थोड़ी देर बाद, आडवाणी जी ने वह पोर्टेबल रेडियो बंद कर दिया. ऐसा लग रहा था मानो वे खुद से पूछ रहे होः "जनसंघ या भाजपा बनाने वाले लगभग सभी लोग या तो दुनिया से विदा हो चुके या फिर खराब सेहत के कारण अब सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकते. इसलिए, हममें से जो लोग अब भी स्वस्थ हैं, उन्हें उन आदर्शों और लक्ष्यों को बढ़ावा देने के लिए अपना पूरा प्रयास जारी रखना चाहिए जिसके लिए हम राजनीति में आए थे. हमें अपने लोकतंत्र को मजबूत करना चाहिए और भारत को समृद्ध और सद्भावपूर्ण राष्ट्र बनाना चाहिए.''
—सुधींद्र कुलकर्णी
लेखक ने 1998 से 2004 के बीच प्रधानमंत्री कार्यालय में वाजपेयी के करीबी सहयोगी के रूप में कार्य किया है. उन्होंने भाजपा में आडवाणी के साथ भी काम किया है