लाहौर बस यात्रा भारत-पाकिस्तान रिश्तों को सहज बनाने में खासी मददगार रही थी, खासकर उस वक्त जब कुछ ही महीने पहले दोनों देशों ने परमाणु परीक्षण किए थे. यात्रा के दो महीने बाद ही करगिल की जंग होने की वजह से दुनिया ने वाजपेयी को शांतिदूत और पाकिस्तान को हमलावर के रूप में देखा
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल का एक निर्णायक लम्हा था फरवरी 1999 में उनकी लाहौर बस यात्रा. यह ऐसा फैसला था जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रिश्तों में आमूलचूल बदलाव लाने की संभावना से वाबस्ता था.
तपे-तपाए सियासतदां वाजपेयी में इसे समझने की चतुराई भी थी और हर चीज में बुरा देखने वालों को कायल करने की बहादुरी भी. केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय में निरस्त्रीकरण और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मामलों का प्रभारी संयुक्त सचिव होने के नाते मैं 1990 से थोड़ा रुक-रुककर होने वाली विदेश सचिव स्तर की वार्ताओं के तमाम दौरों में शामिल रहा था.
"समग्र वार्ता'' के जिस मौजूदा ढांचे पर 1997 में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के कार्यकाल में सहमति बनी थी, 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद उसमें रुकावट आ गई थी.
परीक्षणों और उसके बाद हुए हंगामे के बाद वाजपेयी और नवाज शरीफ सितंबर 1998 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के सत्र के दौरान न्यूयॉर्क में मिले. उस वक्त लिए गए फैसलों में दिल्ली और लाहौर के बीच बस सेवा शुरू करना भी शामिल था.
मुझे याद है कि मैंने पाकिस्तान के मामलों को देख रहे अपने सहकर्मी और दोस्त संयुक्त सचिव विवेक काटजू से कहा था कि कुछ ही महीनों पहले परमाणु परीक्षण करने और खुद को एटमी हथियारों से लैस मुल्क घोषित करने वाले दो देशों के बीच पहले शिखर सम्मेलन का यह अजीबोगरीब नतीजा था. विवेक ने समझदारी से मुझे भरोसा दिलाया था कि भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में हैरतअंगेज चीजों की कभी कमी नहीं होगी.
दिल्ली-लाहौर बस पर बात आगे बढ़े बिना दो-एक महीने बीत गए. दोनों देशों की सुरक्षा एजेंसियों ने चिंताजनक सवाल खड़े कर दिए, बातचीत लंबी खिंचती गई. जनवरी की शुरुआत में शरीफ ने वाजपेयी को फोन किया और अपनी चिंता साझा की कि दिल्ली-लाहौर बस को लेकर सितंबर में की गई घोषणा अब तक पूरी नहीं हुई है.
वाजपेयी ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे मामले को देखेंगे और प्रिंसिपल सेक्रटरी ब्रजेश मिश्र को एजेंसियों के बीच प्रगति की जिम्मेदारी संभालने को कहा. कुछ बैठकों के बाद मसलों को सुलझाया गया और पाकिस्तानी पक्ष को इत्तिला दे दी गई कि हम फरवरी में बस सेवा शुरू करने के लिए तैयार हैं.
उस वक्त दोतरफा शिखर सम्मेलन की कोई बात नहीं हुई थी. उम्मीद की जा रही थी कि वाजपेयी दिल्ली में पहली बस को हरी झंडी दिखाएंगे और यह माना जा रहा था कि उधर लाहौर में शरीफ भी यही इज्जतनवाजी करेंगे.
चूंकि वाजपेयी बीच फरवरी में अमृतसर की यात्रा पर जाने का कार्यक्रम बना रहे थे, इसलिए सुझाव दिया गया कि वे अमृतसर से बस को हरी झंडी दिखा सकते हैं. अविभाजित पंजाब में इन दोनों शहरों को अक्सर जुड़वां शहर कहा ही जाता था और दोनों के बीच 40 किलोमीटर का फासला था, पर 1947 में ये कडिय़ां टूट गई थीं.
प्रतीक के तौर पर अमृतसर से बस को झंडी दिखाना वाघा-अटारी के दरवाजों को खोलने के बराबर होता और यह दिल्ली से इसका उद्घाटन करने से कहीं ज्यादा प्रतीकात्मक भी होता.
अब घटनाओं ने ऐसा मोड़ लिया जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी. गणतंत्र दिवस के करीब आते-आते शरीफ ने फिर वाजपेयी से फोन पर बात की. उन्होंने बस परियोजना में तेजी लाने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया और पूछा कि क्या यह सच है कि वे अमृतसर से बस को हरी झंडी दिखाने की तैयारी कर रहे हैं.
जब वाजपेयी ने तस्दीक की, तो उन्होंने जवाब दिया, "आप मेरी दहलीज पर आकर वापस जा रहे हैं. हमारी तहजीब में ऐसा नहीं होता. आपको मेरे घर आने की इज्जत बख्शनी ही होगी. मैं लाहौर में आपकी अगवानी करूंगा.'' वाजपेयी ने उन्हें धन्यवाद दिया और फोन करने का वादा किया. मामला बेहद फौरी और जरूरी था क्योंकि हमें फिक्र थी कि कहीं फोन पर मिला न्यौता लीक न हो जाए.
मंत्रिमंडल के वरिष्ठ साथियों के साथ सलाह-मशविरा शुरू हुआ. राय बंटी हुई थी. कुछ को लगा कि दूसरे शिखर सम्मेलन से पहले पर्याप्त तैयारी के लिए ज्यादा वक्त की दरकार थी. कुछ दूसरों को लगा कि इससे क्षेत्र में और दूसरे महाशक्ति देशों को अच्छा संदेश जाएगा.
हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों पाबंदियां झेल रहे थे और पश्चिमी रणनीतिक समुदाय में कई लोग दक्षिण एशिया को लेकर आगाह कर रहे थे कि यह सबसे खतरनाक न्यूक्लियर फ्लैशपॉइंट है. अमेरिका और फ्रांस के साथ अपनी रणनीतिक बातचीत में हम हिंदुस्तान के एटमी हथियार से लैस जिम्मेदार और संयमी देश होने के विचार को पूरी मेहनत और ताकत से आगे बढ़ा रहे थे तथा कामयाब यात्रा से यह अफसाना और पुख्ता होता.
साफतौर पर यह सियासी बुलावा था और वाजपेयी ने आखिरकार न्योता मंजूर करने का फैसला लिया. 20-21 फरवरी की तारीखें निकाली गईं और तैयारियां जल्दी ही हिंदुस्तानी बारात की तरह दिखाई देने लगीं. बस में यात्रा पर साथ जाने वाले आमंत्रित लोगों में देव आनंद, कपिल देव, कुलदीप नैयर, जावेद अख्तर, सतीश गुजराल, शत्रुघ्न सिन्हा और मल्लिका साराभाई थे.
जनवरी के आखिर में ब्रजेश मिश्र के साथ एक बैठक में मैंने उनसे पूछा कि लाहौर वार्ता से हम किस किस्म के नतीजों की उम्मीद कर रहे थे. संयुक्त वक्तव्य तो तय बात ही थी, पर मैंने पूछा कि हमें इससे ज्यादा कुछ का लक्ष्य लेकर चलना चाहिए या नहीं.
उन्होंने बात की अहमियत समझी और मैंने कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स (सीबीएम) यानी भरोसा बढ़ाने वाले उपायों पर एक पर्चे का मसौदा तैयार किया. 1990 से ही ये दोतरफा बातचीत के एजेंडे का हिस्सा रहे थे, पर अब अहम फर्क यह था कि ये सीबीएम दो एटमी हथियारों से लैस देशों के बीच होंगे. इस पर्चे पर पाकिस्तानी पक्ष ने भी अच्छी प्रतिक्रिया दी.
मैंऔर विवेक अपने पाकिस्तानी समकक्षों जमीर अकरम तथा सलमान बशीर के साथ बारीकियां तय करने के लिए फरवरी के पहले हक्रते में लाहौर गए. अकरम 1990 के दशक के आरंभ में दिल्ली में काम कर चुके थे और भारत के प्रभारी डायरेक्टर जनरल थे, जबकि बशीर संयुक्त राष्ट्र से जुड़े मामलों के डायरेक्टर जनरल थे और उन्होंने बाद में उच्चायुक्त के तौर पर दिल्ली में काम किया.
फिर वह एमओयू बना जिस पर 21 फरवरी को दो विदेश सचिवों, के. रघुनाथ और शमशाद अहमद ने दस्तखत किए. अब साफ हो गया कि यह एमओयू कुछ ज्यादा ही तकनीकी था. तब एक छोटे-से लाहौर घोषणापत्र का विचार पैदा हुआ जो एक सियासी दस्तावेज होगा और जिस पर दोनों प्रधानमंत्री दस्तखत करेंगे. इन दस्तावेजों ने यात्रा को खासा वजन दिया.
यात्रा की दो चिरस्थायी यादें वाजपेयी से जुड़ी हैं. उनका मीनार-ए-पाकिस्तान जाना और यह ऐलान करना कि एक स्थिर और समृद्ध पाकिस्तान हिंदुस्तान के हित में है. यह सियासी हिम्मत और दूरदृष्टि का काम था.
दूसरी याद उनका वह भाषण है जो उन्होंने गवर्नर हाउस में आयोजित नागरिक अभिनंदन के वक्त दिया था. उन्होंने लिखित भाषण के बगैर बोला और जब आखिर में उन्होंने अपनी कविता जंग न होने देंगे की पंक्तियां पढ़ीं, तो श्रोताओं में एक भी आंख नहीं थी जो भीगी न हो. शरीफ ने लंबा जवाब न देने की समझदारी बरती और उनसे सिर्फ इतना कहा कि अब वे पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं.
लाहौर की यात्रा एक के बाद एक कई इत्तिफाकों का नतीजा थी, पर यह वाजपेयी का दूरदृष्टि से संपन्न सियासतदां ही था जिसने इसे कभी न भूली जाने लायक विरासत में बदल दिया.
राकेश सूद ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंगुइश्ड प्रोफेसर और पूर्व राजनयिक हैं
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