विदेश नीति पूर्व प्रधानमंत्री से विरासत में मिली सबसे चिरस्थायी सौगातों में से एक है. बुनियादी रूप से वे एक रणनीतिकार थे जो चीन, पाकिस्तान और अन्य राष्ट्रों के साथ संबंधों को सुधारने के लिए गंभीर थे. यही वजह थी कि इस दिशा में किए जा रहे उनके निजी प्रयासों और व्यावहारिक दृष्टिकोण ने पड़ोसी देशों को सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर कर दिया.
विदेश मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी पड़ोसियों के लिए हमेशा समय निकाल लेते थे. उनकी सरकार में राजदूत के रूप में श्रीलंका, चीन और पाकिस्तान में अपनी नियुक्ति के दौरान मुझे यह जानने का मौका मिला कि हमारे पड़ोसियों के प्रति उनकी दिलचस्पी गहरी और सकारात्मक थी जो उनके वर्षों के लंबे अनुभव और ज्ञान से विकसित हुई थी.
वाजपेयी में किसी भी स्थिति का आकलन करने और अपनी बात को बेहद रोचक अंदाज में पेश करने की अनोखी क्षमता थी. 2003 में जब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप उच्चायुक्त के तौर पर पाकिस्तान जाएंगे? मैंने उनसे पूछा कि मुझे क्यों चुन रहे हैं?
मैंने 1974 से पाकिस्तान मुद्दे पर कोई काम नहीं किया. उनका जवाब था—"क्योंकि तुम भोले-भाले हो!'' और यह कहकर उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया. हास्य में भी उनका गंभीर संदेश साफ उभर आया था कि मुझे अतीत के विफल प्रयासों की लकीर पीटने की बजाए रिश्ते सुधारने की राह में नए कदम उठाने होंगे.
पड़ोसी देशों के प्रति उनका एक खास नजरिया था. वे कहते थे कि आप अपने दोस्तों को चुन सकते हैं लेकिन पड़ोसियों को नहीं. उनका मतलब यही था कि पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर रहने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना चाहिए.
यहां तक कि चीन भी उनकी शख्सियत से बेहद प्रभावित था. 1998 में पोकरण-2 पर चीन की तीखी प्रतिक्रिया के पांच साल बाद 2003 में जब वे बीजिंग गए तो शक और आशंकाओं से घिरे चीनी नेताओं के सामने उन्होंने सीमा संबंधी सवालों पर विशेष प्रतिनिधियों को बहाल करने का नया विचार पेश किया था.
अगले दो दिनों तक हरेक चीनी नेता से बात करने के दौरान जैसे-जैसे वे यह साफ करते गए कि विशेष प्रतिनिधि समूह क्या-क्या कर सकता है, भारत-चीन संबंधों और सीमा संबंधी मसले पर प्रधानमंत्री वाजपेयी के नए राजनैतिक दृष्टिकोण पर स्वीकृति और सहमति बनती गई.
इसी दौरे में चीन ने सिक्किम को भारत के हिस्से के रूप में मान्यता दी थी. 1979 में बीजिंग का दौरा करने वाले वे पहले भारतीय विदेश मंत्री थे और यह उस समय का एक बेहद साहसिक फैसला था जिसके बाद रिश्ते सुधरने लगे थे.
उनके सामने जब भी कोई प्रस्ताव पेश करता तो उनका पहला सवाल होता, आपको कैसे और क्यों लगता है कि यह भारत के हित में है? 1993 में जब हमने चीन के साथ सीमा पर शांति और सुलह बहाल करने के लिए बातचीत शुरू की तो प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने मुझसे कहा था कि आप नियमित रूप से कुछ राजनेताओं खासकर वाजपेयी को इस संबंध में जानकारी देते रहिएगा, जो उस समय विपक्ष का नेतृत्व कर रहे थे.
वाजपेयी को जब भी महसूस होता कि कोई बातचीत भारत के हित में है तो उस संबंध में उपयुक्त और सार्थक सुझाव देने से वे परहेज नहीं करते थे. उन्होंने कभी इसे पार्टी के राजनैतिक हित के लिए इस्तेमाल नहीं किया. पार्टी के मुद्दों से वे हम प्रशासनिक अधिकारियों को अलग रखते थे.
बात श्रीलंका के साथ पहले मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की हो या 1979 और 2003 में चीन के साथ संबंधों को फिर बहाल करने की या 2004 में पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया की, वाजपेयी के निजी प्रयास और पहल से नई नीतियों पर सकारात्मक परिणाम दिखने लगे थे. पड़ोसी देश उनके समर्पित प्रयासों पर सौहार्दपूर्ण प्रतिक्रिया जताने लगे थे. 1999 में लाहौर में मीनार-ए-पाकिस्तान पर दिया गया उनका भाषण सुनने लायक है.
रेस कोर्स में उनसे मिलने के लिए जाते वक्त कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि वे क्या पूछ बैठेंगे. एक दफा ऑपरेशन पराक्रम और पाकिस्तान के साथ गतिरोध के दौरान मैं चीन से लौटने पर उनसे मिलने पहुंचा तो उन्होंने हिंदी में एक सवाल किया, "चीन ने इतनी छलांग कैसे मारी.''
इसके बाद अगले 40 मिनट उन्होंने मुझे चीन के विकास, भारत कैसे चीन से भिन्न है और मुझे चीन में क्या देखना चाहिए, पर एक ट्यूटोरियल दी थी. जब आप बाद में इस पर सोचते हैं तब आपको एहसास होता है कि आपको बहुत गहन जानकारी थमाई गई है जिसे देते समय उनके रुख में सिखाने का नहीं बल्कि सलाह का भाव छिपा रहता था. ऐसे कोमल हृदय की शख्सियत थे वाजपेयी.
उन्होंने अपार बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए भारतीय नीतियों के सुधार के संबंध में नरसिंह राव की गढ़ी बुनियाद पर भव्य इमारत बुलंद की और वे खुशकिस्मत भी थे क्योंकि डॉ. मनमोहन सिंह ने उनकी विदेश नीति के अहम पहलुओं को आगे जारी रखा.
उनके निधन के बाद भारत में सभी राजनैतिक दलों और समाज के सभी तबकों में आज शोक की लहर फैली हुई है क्योंकि अब हम महसूस करते हैं कि हम कितने भाग्यशाली थे कि उन महत्वपूर्ण वर्षों के दौरान हमारे पास एक वास्तविक, दृढ़ और स्थिर नेतृत्व मौजूद था.
लेखक शिवशंकर मेनन पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और पूर्व विदेश सचिव हैं
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