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अब मर्द-औरत के बीच संवाद जरूरी

भारत में एक-चौथाई आबादी की ही पहुंच इंटरनेट तक है, और उनमें भी 70 प्रतिशत पुरुष ही ऑनलाइन सक्रिय रहते हैं, मी टू आंदोलन भी मोटे तौर पर सुविधासंपन्न बिरादरी का ही मामला है.

मर्दानगी
मर्दानगी

दुनिया भर में मीटू (#MeToo यानी मैं भी) नाम से चल रहे आंदोलन में 'मर्दानगी' को लेकर चर्चा क्यों हो रही है? क्या इसका आशय यह है कि मर्दानगी को चाहे जैसे परिभाषित किया जाए, वह इस आंदोलन के खिलाफ ही खड़ा होता है?

हॉलीवुड के प्रभावी निर्माता हार्वे वाइंस्टीन के खिलाफ बलात्कार और यौन हिंसा के दर्जनों आरोपों के सामने आने के बाद जब अक्तूबर में #MeToo अभियान की शुरुआत हुई थी, या यूं कहें कि उसे फिर से खड़ा किया गया था तो उसका मकसद महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित करना था कि वे अपनी खामोशी को तोड़े और उन घटनाओं को साझा करें जो उनके साथ भी हुई हैं और उस बहाने उन्हें दुनियाभर में इसी तरह का अनुभव बांटने वाली महिलाओं के साथ एक तसल्ली और सामूहिकता मिले. उसका आशय मर्द या मर्दानगी से नहीं था.

लेकिन यह तो ऊपरी बात थी. यकीनन #MeToo अभियान का एक हिस्सा पुरुषों के बारे में है और दरअसल शुरुआत से ही था. व्यापक पैमाने पर पुरुष ही यौन हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं, और उनके शिकार महिलाएं, बच्चे और कुछेक पुरुष भी होते हैं.

इसलिए यह बात अजीब लगती है कि #MeToo को लेकर चल रहे सारे संवाद से पुरुष इस कदर गायब रहें. यौन हिंसा की व्यापकता और यह देखते हुए कि इस तरह की हिंसा पुरुषों के बारे में क्या जाहिर करती है, यह समझ में आता है कि ज्यादातर पुरुष खामोश ही रहे हैं और वे अपनी यौनिकता पर लग रहे इस अभियोग का भी जवाब देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं और न ही वे अपने में बदलाव लाने को तैयार हैं.

कुछेक पुरुषों ने शायद अपनी सनक में 'सभीपुरुषनहीं' (#NotAllMen) सरीखे अभियान की आड़ लेने की कोशिश की है लेकिन वे यह भूल गए कि #MeToo सभी पुरुषों और सभी महिलाओं के बारे में है.

पुरुषों को यह बताने के लिए किसी हैशटैग की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि हम सब सामूहिक तौर पर महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार करने के दोषी हैं. #MeToo अभियान को लेकर जो हाल में आलोचनाएं की गई हैं उनमें एक यह है कि उसमें अभद्र व्यवहार को भी यौन हमले और बलात्कार की श्रेणी में रख दिया गया है और यौन फूहड़ता की व्याख्या यौन आक्रामकता के तौर पर की गई है.

लेकिन अगर हमें संस्कृति बदलनी है तो हमें पहले इन हमलों को रोकना होगा, खास तौर पर पुरुष यौन पात्रता की इस निरंतर धमक और जिस तरह से वह महिलाओं को नीचा दिखाती है, उस पर काबू पाना होगा.

#MeToo अभियान के तहत सामने आ रही कई कहानियां यौन हिंसा की बजाए नासमझियों की भी हैं, लेकिन इन भ्रांतियों और गलत व्याख्याओं से ही जो बहस उभरती है वह लोगों की मानसिकता को सामने लाती है, उन धारणाओं को बाहर निकालती है जो लोग मानकर चल लेते हैं और इस तरह की धारणाओं की सांस्कृतिक और लैंगिक बुनियादें भी बेनकाब हो जाती हैं.

ऐसे में #NotAllMen जैसी व्याख्याओं की आड़ ले लेना यह मान लेना है कि पुरुषों में बुनियादी तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे बदले जाने की जरूरत है, और हम सारे पुरुषों को ऐसे असहज सवालों का जवाब देने की कोई जरूरत नहीं है.

#MeToo को लेकर एक और जिस तरीके से पुरुषों ने अपना रुख जाहिर किया है, वह भी कपटपूर्ण है. इसमें जाहिरा तौर पर तो वे आंदोलन और उसके मकसद के लिए समर्थन जाहिर कर रहे हैं, लेकिन अपनी निजी जिंदगी में वे उन्हीं पुरुषों की तरह आक्रामक और शोषणकारी हैं जिनकी वे आलोचना बाहर कर रहे हैं.

ये उस बिरादरी के लोग हैं जो खुद को 'जागरूक' जाहिर करते हैं (#MeToo आंदोलन के शब्द और भाषा सब अमेरिका से हमें मिल रहे हैं), वे सोशल मीडिया पर शानदार पोस्ट लिखते हैं या वीडियो बनाते हैं, जब तक कि कोई महिला परदे के पीछे से सामने आकर यह जाहिर न कर दे कि इन शानदार पोस्ट की आड़ में दरअसल पन्ने दर पन्ने फूहड़ टेक्स्ट मैसेज, चालाकी भरी जबरदस्ती, और प्रशंसा या हैसियत का सेक्स के लिए इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति छिपी है.

उदाहरण के तौर पर कुछ ही हफ्ते पहले एक युवा कवि शमीर रुबेन अपनी नारीवादी, भावनात्मक रूप से ईमानदार कविताओं के लिए सराहे जा रहे थे तो कई साथी कवियों ने उन पर शोषण करने के आरोप लगाए जब वे सब अल्पवयस्क थीं. वे उन्हें यौनोत्तेजक मैसेज भेजते थे, उनसे नग्न तस्वीरों की मांग करते थे और उन्हें सेक्स के लिए 'तैयार' करने की कोशिश करते थे.

इन आरोपों पर उनकी 'माफी' कपटता के समकालीन सांचे से निकली जाहिर होती है—पश्चाताप करना, 'सीखने' का वादा करना, लेकिन इस बात की जानकारी होने से साफ इनकार कर देना कि उनका व्यवहार गलत था या उससे किसी को कोई हानि हो सकती है.

अब समय आ गया है कि पुरुषों को पूरी गंभीरता से #MeToo आंदोलन के साथ खुद को जोडऩा चाहिए. उन्हें दिखावटी तौर पर खुद को कोड़े मारने या अपनी गलतियों को 'स्वीकार करने' जैसी हरकतें नहीं करनी चाहिए बल्कि अपने व्यवहार को उसी कसौटी पर परखना चाहिए जिससे किसी महिला को गुजरना होता है. अब शायद वह वक्त आ गया है कि यह पूछें कि भारतीय पुरुषों को क्या कुछ अलहदा करना चाहिए?

मसलन, क्या किसी भारतीय हाइकोर्ट का जज महिलाओं के बारे में आश्वस्त होकर यह कह सकता है कि ''एक कमजोर 'ना' का मतलब 'हां' हो सकता है?'' क्यों ऐसा है कि लगभग समूचा पुरुष प्रतिष्ठान पुरुषों को काबू में करने की बजाए महिलाओं की निगरानी बढ़ाने को ज्यादा आतुर नजर आता है?

जब हमारी आबादी में इतना बड़ा हिस्सा युवाओं का है तो हमारे यहां सेक्स शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता क्या है? क्यों भारतीय पुरुष दुनिया के बाकी सभी इलाकों के पुरुषों की तुलना में घर का कामकाज इतना कम करते हैं? भारत में शिक्षित महिलाओं की औपचारिक श्रमशक्ति में इतनी कम भागीदारी है?

हमारा मीडिया इतना अज्ञानी या बहरा क्यों हो जाता है, चाहे वह किसी बलात्कार की घटना की कवरेज कर रहा हो या घिघियाने वाले अंदाज में किसी महिला शख्सियत का इंटरव्यू लेकर उसे बढ़ाने-चढ़ाने की कोशिश कर रहा हो जिससे हमारे राष्ट्रीय अखबारों की बिक्री का ग्राफ बढ़ जाए? हाल ही में श्रीदेवी की मौत की कवरेज से हम सबके सिर शर्म से झुक जाने चाहिए, लेकिन हमारे मीडिया माहौल में तो खुद पर काबू करना या अपने भीतर झांकना मानो अभिशाप है.

शिक्षाविद अल्का कुरियन का मानना है कि नई सदी की शुरुआत के बाद से उभरे कई देशी नारीवादी आंदोलनों के साथ ही #MeToo भी भारत में नारीवाद की 'चौथी लहर' के उदय का संकेत देता है. एक लेख में वे इसे ''मोटे तौर पर सोशल मीडिया नीत समग्र आंदोलन' के तौर पर बताती हैं ''जो महिलाओं की आजादी को अल्पसंख्यक पुरुषों और महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय की वृहद मांग के साथ जोड़ता है.''

लेकिन जिस तरह से अमेरिका में भी #MeToo आंदोलन ने कथित तौर पर श्रमिक वर्ग की महिलाओं और अश्वेत महिलाओं को किनारे छोड़ दिया है, उसी तरह भारत में भी #MeToo दरअसल सुविधासंपन्न लोगों का आंदोलन है जहां महज एक-चौथाई लोगों के पास ही इंटरनेट की उपलब्धता है और ऑनलाइन रहने वाले उन लोगों में भी सत्तर फीसदी पुरुष हैं.

इसका मतलब यह है कि #MeToo आंदोलन को भारतीय मीडिया में मिल रही गैर-आनुपातिक तरजीह के बावजूद उसके वास्तविक असर को मापना बहुत मुश्किल है. कुछ प्रमुख पुरुष 'बेपरदा' हुए, जिनमें सबसे हाल में वेंचर कैपिटलिस्ट महेश मूर्ति थे. लेकिन फिल्म उद्योग, मीडिया और कॉर्पोरेट जगत मोटे तौर पर अछूता रहा है. पीछे राया सरकार ने उन शिक्षाविदों की सूची जारी की थी जिन पर गुमनाम छात्रों ने अनुचित यौन व्यवहार के आरोप लगाए थे.

उससे कुछ समय हंगामा हुआ लेकिन फिर वह मसला 'उचित प्रक्रिया' की बहस में उलझकर और नारीवादियों की पुरानी पीढ़ी को उनके युवा साथियों के खिलाफ खड़ा करके टांय टांय फिस्स हो गया. यहां हमारा कहना यह नहीं है कि उचित प्रक्रिया गैर-जरूरी है या इस तरह के सामान्य आरोप लगाने वाली गुमनाम सूचियों के साथ कोई दिक्कतें नहीं हैं: सरकार की सूची ने तहस-नहस करने वाला काम जरूर किया, कई पुरुष प्रोफेसरों को उनकी स्वयं-संतुष्ट तंद्रा से हिला दिया लेकिन फिर भी उन्हें इस बात का गुस्सा रहा कि इस सूची को प्रमाणिक गवाही के बतौर नहीं लिया गया.

अमेरिका में अवार्ड-विजेता कॉमेडियन अजीज अंसारी का मामला इस बात का उदाहरण है कि कैसे #MeToo आंदोलन पनप रहा है. एक युवा महिला ने अपना विवरण जारी करते हुए बताया कि कैसे एक शाम अंसारी ने उसकी प्रत्यक्ष असहजता के बावजूद उस पर सेक्स करने के लिए दबाव डालने की कोशिश जारी रखी. कई पुरुषों और कई महिलाओं ने भी इस विवरण को एक 'खराब डेट' के तौर पर खारिज करने की कोशिश की.

कुछ लोगों ने तो, न्यूयॉर्क टाइम्स के ओप-एड पेज जैसे महत्वपूर्ण मंच से उस युवा महिला पर #MeToo आंदोलन को नुक्सान पहुंचाने तक का आरोप लगा दिया. हालांकि उस महिला के बचाव में कई महिलाएं उतरीं और उन्होंने कहा कि उनके भी 'खराब डेट्' के अनुभव रहे हैं.

बेंगलूरू, पुणे और यकीनन दिल्ली तथा मुंबई जैसे महानगरों में शहरी भारत के अभिजात्य युवाओं में इस तरह की बहसें नजर आती हैं. लेकिन सोशल मीडिया पर गुस्से या फिर नैतिक मूल्यों के बखान से आगे उसमें कुछ न हुआ. पुरुषों की सक्रिय भागीदारी के बिना इस तरह का संवाद या तो आरोपों तक, या फिर बचाव या फिर 'बेहतर करने' के सम्मानजनक लेकिन अबाध्यकारी वादे तक पहुंचकर खत्म हो जाता है. हम इसके आगे कैसे बढ़ सकते हैं? इस गति को तो बनाए रखा जाना चाहिए.

जरूरी है कि महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी #MeToo आंदोलन में उठाए गए मुद्दों के बारे में बातचीत करें, हमारी भाषा में इस्तेमाल किए जा रहे तरीकों के बारे में सवाल करें और पूछें कि हम अपनी संस्कृति के साथ क्या करें. इसका मतलब ख्यालों और विचारों की पहरेदारी करना नहीं है.

मैं किताबों या फिल्मों, रैप गीतों, इंटरनेट पोर्नोग्राफी या फूहड़ सेक्स चुटकुलों को पढऩे-पढ़ाने के लिए बनाए गए व्हॉट्सऐप ग्रुपों पर पाबंदी लगाने के कतई पक्ष में नहीं हूं. लेकिन मैं बेहतर स्तर की आलोचना के पक्ष में हूं ताकि संवाद का अतिरेक रहे.

भारतीय पुरुषों को इस बहस का खुलकर हिस्सा होना चाहिए. हमें पूछना चाहिए कि हमारे लिए 'मर्दानगी' क्या है और क्यों अहम है. पुरुषों को #MeToo आंदोलन में हिस्सेदारी करने के लिए केवल इतना करना है कि कंधे उचकाकर यह नहीं कहना है कि यह मेरी परेशानी नहीं, या नारीवादियों को लेकर मुंह फुलाकर एक कोने में बैठ नहीं जाना है—बस संवाद करने की इच्छा जाहिर करनी है.

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