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आवरण कथाः कठदलीली का आधार

क्या 2018 हमें ऐसी दुनिया मुहैया कराएगा जहां आदमी की निजता सुरक्षित रह सकती है या फिर वह ऐसी व्यवस्था के बोझ तले दब जाएगा जिससे उसकी आजादी ही छिन जाएगी?

इलेस्ट्रशनः तन्मय चक्रव्रर्ती
इलेस्ट्रशनः तन्मय चक्रव्रर्ती

सरकार के रुख के विपरीत सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अगस्त में फैसला सुनाया कि यकीनन निजता संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में एक है, तो लगा कि एक नई सुबह हुई है. वर्षों से सक्रिय कार्यकर्ता भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ) के अधिकारियों और सरकार के बाकी महकमों से इस बात पर बहस और मुकदमेबाजी में उलझे हुए हैं कि आधार डेटाबेस देश और लोगों की सुरक्षा और निजता के लिए खतरा है या नहीं. इस पूरी बहस में सरकार का नजरिया मोटे तौर पर यही रहा है कि निजता उसके लिए दोयम दर्जे की चिंता का विषय है, जिसे विकास सरीखी बाकी जरूरतों के आगे गौण माना जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने पुत्तस्वामी मामले में इस नजरिए को खारिज कर दिया और उसने आजादी और गरिमा के संवैधानिक मूल्यों के साथ-साथ विकास के लिए भी निजता की अहमियत पर जोर दिया.

छह महीने बाद इस फैसले का कोई ठोस असर अभी सामने आना बाकी है. उधर, ऐसी खबरें हैं कि आधार के डेटा की चोरी हो रही है और आधार नंबर का अनधिकृत इस्तेमाल हो रहा है और इसके इस्तेमाल से बैंक खाते से फर्जी तरीके से धन निकाल लिया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट में आधार पर आगे सुनवाई लंबित है. हो सकता है कि यह इस मामले में अंतिम सुनवाई हो. लेकिन कितनी राहत मिलेगी, यह साफ नहीं है और यह भी तय मानकर नहीं चलना चाहिए कि फैसला सकारात्मक ही होगा.

एक बात यह भी है कि निजता के मसले से जुड़े बाकी तमाम मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्यजनक रूप से उस नजरिए को खास तवज्जो नहीं दी है जो पुत्तस्वामी मामले का मुख्य आधार रहा है. उस फैसले में स्वायत्तता और निर्णय प्रक्रिया को निजता के अधिकार से अभिन्न माना गया है, ताकि ''सामाजिक एकरूपता की मांग के विपरीत सभी व्यक्ति अपने विश्वास, विचारों, अभिव्यक्ति, सोच, विचारधारा, प्राथमिकताओं और पसंद को कायम रखने में सक्षम रहें.'' लेकिन लगता है कि इसे उस हदिया के मामले में भुला दिया गया, जो पहले अखिला थी और फिर धर्म बदल कर इस्लाम धर्म अपना लिया और एक मुसलमान से शादी कर ली, सब कुछ अपनी पसंद से और वह यह बात लगातार कहती रही.

हदिया के पिता ने याचिका दायर की कि हदिया का धर्म परिवर्तन और निकाह, दोनों आइएसआइएस के दबाव में हुए हैं तो केरल हाइकोर्ट ने इस आधार पर शादी को खारिज करार दे दिया कि लड़की के माता-पिता ने शादी के लिए रजामंदी नहीं दी थी और वे शादी में मौजूद नहीं थे. सुप्रीम कोर्ट ने अब तक शादी को रद्द करार देने वाले फैसले को पलटा नहीं है. इसकी बजाए उसने अगस्त 2017 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) से जांच कराए जाने का आदेश दे दिया कि क्या यह विवाह 'लव जेहाद' की किसी बड़ी योजना का नतीजा था. अदालत अब कथित तौर पर आगे कोई कार्रवाई तभी करेगी जब जांच के नतीजों का पता चल जाएगा.

पुत्तस्वामी फैसले में यह बात मानी गई कि निजता के अधिकार पर कुछ वाजिब पाबंदियां लगाई जा सकती हैं. हदिया के मामले में एक वयस्क महिला के 'नितांत निजी मामले में समाज की अपेक्षाओं के खिलाफ अपनी प्राथमिकताओं और विकल्पों' को तय करने के अधिकार को एकदम दरकिनार कर दिया गया. इस मामले की रोशनी में अब यह देखना बाकी है कि सुप्रीम कोर्ट आधार मामले में आखिरी सुनवाई के लिए बैठेगा तो वह किस हद तक राज्य की जरूरतों और हितों के मुकाबले लोगों की स्वायत्तता और अपने फैसला करने की प्रक्रिया को वरीयता देता है.

इतना ही नहीं, हदिया की निजी जिंदगी के बारे में फैसला देते हुए केरल हाइकोर्ट ने 'पेरेंज पेट्रेई' न्यायाधिकार का इस्तेमाल किया जिसमें उन लोगों को सुरक्षा देने का अधिकार राज्य के पास होता है जो खुद की सुरक्षा करने में नाकाम रहते हैं. आम तौर पर इस न्यायाधिकार का इस्तेमाल अल्पवयस्कों के मामले में या फिर गंभीर मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों के मामले में किया जाता है. लेकिन इसका इस्तेमाल एक पूरी तरह से स्वस्थ 24 साल की युवती के बारे में उसकी इच्छा के विपरीत ऐसा फैसला करके कोर्ट खुद को सबसे बड़ा प्रधान मान बैठा है. इससे यह क्चयाल भी आता है कि देखा जाए, सुप्रीम कोर्ट आधार के मामले में सरकार की दलील को कितनी अहमियत देता है.

सरकार का नजरिया शायद पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के एक दावे से साफ हो जाता है. पिछले साल मई में आधार मामले में की सुनवाई के दौरान उन्होंने कोर्ट में कहा था कि अपने शरीर पर भारतीयों का अधिकार भी संपूर्ण नहीं है. वैसे रोहतगी का दावा कोई आश्चर्यजनक नहीं है. महिलाओं और कई कमजोर तबकों को अपनी मर्जी के खिलाफ कई तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ता है. मसलन, वे कोई अपनी पसंद का कपड़ा पहनें या न पहनें, या वे गर्भधारण करें या न करें या किसके लिए गर्भधारण करें या गर्भ को जिंदा रहने दें या न दें.

महिलाओं की निजता भी अक्सर बहुत सीमित ही रही है. भले ही शारीरिक निजता की स्वतंत्रता को मान्यता मिल जाए, लेकिन यह मान्यता भी नैतिकता की धारणाओं और परिवार की प्रतिष्ठा की चिंताओं से निर्धारित होती है. इससे निजता को लेकर जो समझ बनती है, वह अपने को ढंकने या खुद को निजी दायरे में समेट लेने के आदर्श को तय करती है. दरअसल, यह धारणा इतनी आम है कि पुत्तस्वामी मामले में अपनी राय रखने के लिए जब जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों के उदाहरण रखे तो वे भी वैसा ही रूप ले रहे थे. जाहिर है, निजता और शारीरिक आजादी, दोनों ही कभी भी भारतीयों को पूरी तरह से हासिल नहीं हो पाए हैं.

दरअसल रोहतगी के दावे में सबसे उल्लेखनीय बात तो यह थी कि आधार योजना के बचाव में सरकार इसी धारणा पर और बल दे रही थी. सरकार लोगों की स्वायत्तता और आजादी को बढ़ाने के बजाए खुद सरपरस्त बनाना चाहती है.

यह भारत में ही नहीं कहा जा रहा है कि लोग अपने सारे अधिकार केंद्रीकृत अधिकारियों के हाथों में सौंप दें. इंटरनेट उद्योगों का बड़ा कुनबा—चाहे स्थापित अंतरराष्ट्रीय दिग्गज कंपनियां हों या फिर भारतीय अव्वल कंपनियां या स्टार्ट-अप—सभी यही चाहते हैं कि हम अपनी स्वायत्तता और निर्णय लेने की प्रक्रिया उनको सौंप दें. यह भी सच है कि कंपनियों के ऐसा करने का नतीजा सरकारी जैसा नहीं होता. आखिरकार, फेसबुक या फ्लिपकार्ट का आपकी जिंदगियों में उस तरह का दखल नहीं, जितना सरकार का है. लेकिन दोनों की मूल भावना एक जैसी है.

लिहाजा, जब डिजिटल दायरे की बात आती है तो पुत्तस्वामी फैसले की एक महत्वपूर्ण खामी यह है कि वह साइबरस्पेस से संबद्ध निजता की सुरक्षा को मुख्य रूप से 'सूचना की निजता' और 'डेटा सुरक्षा' से जुड़ा मसला ही मानता है, जैसा उसे पारंपरिक रूप से समझा जाता है. लेकिन यह समझ पर्याप्त नहीं होगी क्योंकि हमारे शरीर और उसकी सूचना के बीच जो बारीक-सी रेखा बनी हुई है, वह धीमे-धीमे गायब हो रही है.

मसलन आधार फिंगरप्रिंट सत्यापन में नाकामी के कारण लोगों को राशन देने से इनकार के बाद भूख से हुई मौत की खबरों को देखा जा सकता है. इस तरह के मामलों में फिंगरप्रिंट के, आधार डेटाबेस से मिलान में नाकामी का नतीजा वाकई मौत हो सकती है. इसलिए आधार के मामले में पारंपरिक समझ के आधार पर महज डेटा सुरक्षा को केंद्र में रखने से शारीरिक आजादी पर अंकुश को भविष्य में रोकने में कभी कामयाबी नहीं मिलेगी.

यही वजह है कि आधार मामले का फैसला बहुत महत्वपूर्ण है. सुप्रीम कोर्ट आखिरी सुनवाई कर रहा होगा तो उसका फैसला न केवल निजता के अधिकार पर उपयुक्त पाबंदियों और उनकी सीमाओं का निर्धारण करेगा बल्कि यह भी तय करेगा कि डिजिटल दौर में हमारी दुनिया कैसी होगी. क्या वह ऐसी दुनिया होगी जिसमें लोगों की स्वायत्तता, फैसला लेने की क्षमता और शारीरिक आजादी को मजबूती मिलेगी या फिर वह दुनिया उन तमाम व्यवस्थाओं से लद जाएगी जो इन सारी चीजों को कमतर करेंगी? साल 2018 इस सवाल का बड़ा अहम जवाब देगा.

डॉ. अंजा कोवाक्स दिल्ली में इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट चलाती हैं

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