राजस्थान का नाम सुनते ही जेहन में रेत के टीलों, शानदार किलों, सुंदर नर्तकों, लोकगीतों और उत्सवों की छवि उभर आती है. ये ज्यादातर छवियां अवास्तविक नहीं हैं. आज भी राजस्थान में इनके नजारे दिख जाएंगे. लेकिन इसके इतिहास, विरासत और सांस्कृतिक अस्मिता की छवियां और भी विराट हैं.
प्राचीन खंडहरों में ऐसी भी जगहें हैं, जहां ईसा पूर्व तीसरी शताद्ब्रदी के ईंट-गारे के भवन वाले नगर, सीधे मुड़ती सड़कें और नली-नालों की व्यवस्था मिल जाएगी. ये नगर 'हड़प्पा सभ्यता' काल के हैं. ऐसे करीब 25 स्थल उत्तर और उत्तर-पश्चिम राजस्थान में घग्घर-हकरा नदी घाटी में पाए गए हैं. इनमें प्रमुख कालीबंगा, पीलीबंगा और सोथी वगैरह हैं. इसी तरह दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में बनास और उसकी सहायक नदियों की घाटी में करीब नब्बे स्थल तांबा-उत्पादक आहाड़ सभ्यता के हैं.
इसी के साथ यहां पूर्व मौर्य और मौर्य काल के ढांचे भी हैं. इनमें बौद्ध स्तूप और मठ बैराट नगरी, चित्तौडग़ढ़ और लालसोट में पाए गए. अलवर के पास बैराट (जिसे अब विराटनगर कहा जाता है) में गोलाकार बौद्ध स्तूप के ध्वंसावशेष हैं, जो लकड़ी के खंभों से घिरे थे. इसके पास ही खुदाई से एक बौद्ध मठ का पता चला है, जिसमें चबूतरे और कोठरियां हैं. बैराट में ब्राह्मडी लिपि में खुदे दो शिलालेख भी मिले हैं. इनमें एक 'बौराट शिलालेख' अब कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी में है और दूसरा सम्राट अशोक के 'लघु शिलालेख' जैसा है. कुछ लोगों का मानना है कि अशोक अपने शासन के 13वें साल में बैराट आए थे.
दूसरे प्राचीन ऐतिहासिक स्थल ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ईस्वी सन् चौथी शताब्दी तक के हैं. इनमें नगरी, नगर, रैढ़, रंग महल और नालियासर-सांभर प्रमुख हैं. चित्तौडग़ढ़ के पास नगरी में पत्थर का एक विशाल प्रांगण है, जहां ईसा पूर्व 200-160 के बीच की स्थानीय घोसुंडी-नागरी पच्चीकारी है. इसे नारायण वाटिका कहा जाता था. रैढ़ के खंडहर प्राचीन मालवा राज के हैं. इनमें ईंट के तीन छोटे मकान हैं. यहां मिट्टी के घर भी मिले हैं और अगर इसे स्थानीय वास्तुकला का प्रतिनिधि नमूना माना जाए तो पता चलता है कि रैढ़ के घरों में नुकीली दीवालों पर खपरैल के ढलान वाले छत हुआ करते थे.
नलियासर-सांभर का महत्व पहली शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक है. वहां योजना के अनुरूप सड़कें और दो से तीन मंजिला ईंट के मकान मिलते हैं.
ईस्वी सन् 350-400 के बीच गुप्त साम्राज्य दक्षिण एशिया के कई हिस्सों में फैल गया. इससे राजस्थान की वास्तुकला भी प्रभावित हुई और पत्थर के भवनों पर मीनार की तरह का शिखर राजस्थान की मंदिर परंपरा का हिस्सा हो गया. राजस्थान में कोटा के पास मुकुंदरा दरा के मंदिर, 5वीं सदी के चित्तौडग़ढ़ के पास छोटी सादड़ी में भ्रमर माता का मंदिर और कोटा का चारचैमा मंदिर गुप्त काल की वास्तुकला के उदाहरण हैं.
गुप्त काल की वास्तुकला उत्तर-गुप्त काल में भी प्रचलित रही, जैसा कि राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी इलाके में जगत, थानेसर, कल्याणपुर, अमझेरा, नागदा, समौली और झालावाड़ इलाके में खोल्वी, बिन्नायगा और हथियागौर के पत्थर काटकर बनाए मंदिरों में दिखता है. झालावाड़ के पास झालरापाटन में चंद्रावती नामक प्राचीन शहर 7वीं-12वीं सदी की क्षेत्रीय कला और वास्तुकला के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं. 8वीं-11वीं सदी में उत्तर भारत के बड़े हिस्से में विशाल साम्राज्य स्थापित करने वाले गुर्जर-प्रतिहार राजाओं ने उत्तर-गुप्त काल में इस क्षेत्र की वास्तुकला परंपरा को प्रभावित किया. चित्तौडग़ढ़ का 8वीं सदी में जीर्णोद्धार किया गया कालिका माता मंदिर गुर्जर-परिहार शैली का नमूना है.
इस काल में कई नगरों और प्रशासकीय ठिकानों का विकास हुआ. कई राजवंशों ने इनमें नई बस्तियां बनाईं या नए नगर बनाए. इन नगरों में नागदा, चाकसू, किश्ष्कधा, भीनमाल, जालौर, मंडोर, सांभर, चित्तौडग़ढ़, डीडवाना और नागौर प्रमुख हैं. यहां गिरि दुर्ग और धन्वा दुर्ग भी बनाए गए. इनमें कई राजवंशों के बदल जाने के बाद भी स्थानीय राजाओं की राजधानियां और व्यापार केंद्र पहले की तरह बने रहे.
राजस्थान में 17वीं और 18वीं सदी में बदलाव की परंपरा दिखती है. जयपुर का नया शहर बना. मेवाड़ के महाराणा राज सिंह के राज में नाथद्वारा वल्लभाचार्य संप्रदाय के कृष्णभक्तों का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया और स्थानीय हवेली वास्तुकला के मंदिर बनाए गए. 19वीं सदी में कई राज दरबारों में यूरोपीय प्रभाव दिखा और उससे स्थानीय वास्तुकला में भी फर्क आया. भारत में अंग्रेजी राज में बने कला स्कूलों के असर से भी यह हुआ और खासकर जयपुर की रियासत में इसका असर ज्यादा दिखाई दिया. इसके बाद 20वीं सदी में वास्तुकला कैसी रही और 21वीं सदी में कैसी होगी, यह अलग कहानी का विषय है.
(लेखिका पुरातत्वविद् हैं)
राजस्थान: वास्तुकला की समृद्ध विरासत
राजस्थान में 17वीं और 18वीं सदी में बदलाव की परंपरा दिखने लगती है. जयपुर नया शहर बना. 19वीं सदी में कई राज दरबारों में यूरोपीय प्रभाव दिखने लगता है.

अपडेटेड 11 मार्च , 2016
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