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'आने वाला कल बिहार के युवाओं का है'

बिहार में एजुकेशन के प्रति जागरूकता बढ़ी है लेकिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करना बेहद जरूरी.

अपडेटेड 23 सितंबर , 2014
अच्छा है कि वक्त रुकता नहीं. बस चलता रहता है. बदलता रहता है. और इसकी नब्ज थामे हम इसके साथ बढ़ते जाते हैं. आज इसी वक्त ने हम बिहारवासियों को इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है कि पीछे मुडऩे की गुंजाइश नहीं बची है. करीब 20 साल पहले जब हमारे नेता चुनाव के दौरान अपने क्षेत्र में जाते थे तब जनता हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती हुई विनती की मुद्रा में मिलती थी. अपने बच्चों के लिए नौकरी के लिए याचना करती थी. लेकिन इसे आप वक्त का तकाजा ही कहेंगे कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान नेताओं को विरोध का सामना भी करना पड़ा. जनता आक्रोशित होकर अपने बच्चों के लिए नौकरी नहीं बल्कि गांव में अच्छे स्कूल की मांग कर रही थी. जनता जवाब मांग रही थी कि आखिर सरकारी स्कूलों में शिक्षक क्यों नहीं नियमित हैं और स्कूलों से चोरी हो चुके खिड़की-दरवाजे कब लगेंगे? बिहार में सबसे बड़ा बदलाव यही है.

मैं अपनी हथेली को आज भी आंसू की उन चंद बूंदों से गीला महसूस कर रहा हूं जो आज से करीब चार वर्ष पहले मेरे छात्र अनूप की आंखों से छलककर अनायास ही टपक पड़ी थीं. अनूप ने तब आइआइटी की प्रवेश परीक्षा में सफलता हासिल की थी. वह लगातार रोए जा रहा था, बावजूद इसके उसकी आंखों में चमक बरकरार थी. आज मैं जब सोचता हूं कि आखिर क्या बात थी कि अनूप रो रहा था? तो जवाब की शक्ल में समाज, व्यवस्था और गरीबी की बदशक्ल सूरत से ज्यादा कुछ भी नजर नहीं आता. अनूप में उसकी मां का डर था, जो मेहनत-मजदूरी करके अपने बच्चों को पढ़ा रही थी. मां का वह डर कि बेटे की आंखों में पल रहा आइआइटी का ख्वाब कहीं चकनाचूर न हो जाए, क्योंकि उसकी मां ने गरीबी की भयानक मार को कई बार भुगता था. अनूप जब काफी छोटा था और भूख से रो रहा था तब उसके पिता ने गरीबी की वजह से घर छोड़ दिया था और आज तक उनका पता नहीं चल पाया है. लेकिन अनूप की लगन, मेहनत और एक सुपर-30 के छोटे से मौके ने उसे मनपसंद जिंदगी दी. उसका जिक्र इसलिए क्योंकि आज भी बिहार में ऐसे अनूप भरे पड़े हैं.

वक्त का पहिया घूमता रहा और इस पहिए में पिस कर न जाने कितनी उम्मीदों ने दम तोड़ दिया. एक जमाना वह भी था जब बिहार में सामंतवादी शक्तियां इतनी क्रूर थीं कि समाज के निम्न तबकों को पढऩे-लिखने से वंचित कर दिया गया था. पढऩा-लिखना तो सामंतों के घर की गुलामी बनकर रह गया था. गरीबों को पढऩे की इजाजत नहीं थी. बेचारे गरीब यह मानकर चलते थे कि उनका काम पढऩा नहीं बल्कि सामंतों की चाकरी करना है. क्या इस बात को झुठलाना उचित होगा कि जब वे पढऩा चाहते तो उनकी पिटाई तक की जाती. वे स्कूल जाना छोड़ देते थे. पेट की आग ऐसी थी कि वे बगावत की बात सोच तक नहीं सकते थे. धीरे-धीरे जमाना बदल रहा है. विकास का पहिया जितनी तेजी से घूम रहा है, शिक्षा की तस्वीर भी उतनी ही तेजी से बदल रही है. गरीब तबकों में भी पढऩे की इच्छा प्रबल हुई है. अब वे शिक्षा का महत्व जान चुके हैं कि शिक्षा ही हमें इस बदहाली से मुक्ति दिला सकती है.

बिहार में पिछले कुछ वर्षों के बदलाव ने देश-दुनिया का ध्यान खींचा है. जाहिर तौर पर शिक्षा इससे अलग नहीं है. यहां एक बार फिर शिक्षा के अंकुर तो फूटे जरूर हैं लेकिन इसे लहलहाती हुई फसल तक पहुंचाने के लिए तमाम सुविधाएं क्या हमारे पास हैं? इस पर विचार करना बहुत जरूरी है. यह कहने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं है कि आज बिहार के सरकारी स्कूलों में खासकर जो अनुबंध पर बहाल टीचर हैं, उन्हें जबरदस्त ट्रेनिंग की जरूरत है. ये टीचर दूर-दराज के इलाकों में जाना पसंद नहीं करते. इसलिए सरकार जिला और ब्लॉक स्तर पर बेहतर प्रशासन के साथ-साथ टाउनशिप का प्रबंध करे ताकि एक ही जगह पर शिक्षा, मनोरंजन और तमाम सुविधाएं मयस्सर हो सकें जिनके अभाव की वजह से टीचर वहां जाने से कतराते हैं. सबसे ज्यादा जरूरत तो टीचर्स ट्रेनिंग की है ताकि वे बड़े अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों पर भारी पड़ सकें. आने वाले समय में सभी प्रतियोगी परीक्षाओं को ऑनलाइन करने की तैयारी चल रही है. ऐसे में सभी स्कूलों में कंप्यूटर की पढ़ाई सुनिश्चित हो ताकि बच्चे आधुनिकतम दौर में पीछे न छूट जाएं. लाइब्रेरी में नई पुस्तकों का होना अनिवार्य है.

जवाबदेही तो समाज की भी कम नहीं है. बताने की जरूरत नहीं है कि टीचर मूल्यवान हैं क्योंकि इनके हाथों से ही बच्चों का भविष्य तैयार होना है. यह भी कड़वा सच है कि मां-बाप अपने बच्चों को टीचर बनने नहीं देना चाहते. शायद इसीलिए छात्र दूसरे पेशे अपनाना बेहतर समझ्ते हैं. अब हमें इस सोच को बदलना होगा. हमारे राज्य में अच्छे टीचर नहीं होंगे तो कैसे और किस बूते पर हम सुनहरे भविष्य का सपना पूरा कर सकते हैं? समाज में अच्छे टीचर आएं, इसके लिए समाज और सरकार दोनों को उन्हें सम्मान देना होगा. प्रत्येक माता-पिता को सपना देखना होगा कि मेरा बच्चा बड़ा होकर एक महान शिक्षक बने. बिहार में शिक्षा की तस्वीर और तकदीर दोनों बदली हैं और इसमें हैरत की बात नहीं कि अगर एक बार हमने ईमानदार कोशिश की तो आने वाला कल सच में हमारा होगा.
आनंद कुमारआनंद कुमार सुपर थर्टी के संस्थापक हैं.
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