बिहार में कोचिंग का कारोबार 1,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है. आइआइटी और मेडिकल के अलावा सरकारी नौकरियों की कोचिंग भी जोरों पर चल रही है. पटना में कोर्सेज के अलावा कॉलेज ही कोचिंग भी मुहैया कराने का काम कर रहे हैं.
आदित्य का हमेशा से आइटी इंडस्ट्री में जाने का ख्वाब था. उसने अपने पेरेंट्स से बात की और दिल्ली के प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटर से आइआइटी की कोचिंग लेनी शुरू कर दी. ऐसा कतई नहीं था कि वह पढ़ाई में कमजोर था बल्कि उसने दसवीं क्लास में 85 फीसदी अंक हासिल किए थे. लेकिन वह आइआइटी-जेईई से जुड़े कॉम्पिटिशन से बखूबी वाकिफ था.
उसकी दो साल की मेहनत रंग लाई और उसने आइआइटी में कंप्यूटर साइंस में दाखिला हासिल कर लिया. आदित्य कहते हैं, ‘मुझे इंस्टीट्यूट में दो साल में जो सिखाया और बताया गया, वह मैं कहीं और से हासिल नहीं कर सकता था. मुझे अपने बेसिक्स क्लियर करने में मदद मिली और पूरे दो साल मेरा माइंड एक ही उद्देश्य पर लगा रहा.’
हाइ प्रोफाइल कोर्सेज में दाखिले के लिए कोचिंग एक अचूक हथियार के तौर पर सामने आ रही है. इसी का नतीजा है कि अब स्कूलों ने अपने कैंपस में ही कोलैबोरेशन करके बच्चों को इंजीनियरिंग या मेडिकल की कोचिंग देनी शुरू कर दी है. लखनऊ के रिबिक रोस्ट्रम कोचिंग इंस्टीट्यूट के सीएमडी आदित्य कुमार कहते हैं, ‘दो-ढाई दशक पहले तक कोचिंग या ट्यूशन वही स्टुडेंट्स लेते थे जो पढ़ाई में कमजोर होते थे. एक्सपर्ट्स के इस फील्ड में आने से सीन बदल गया है, अब बच्चे खुद को बेस्ट बनाने के लिए यहां आते हैं.’
हालांकि हर स्टुडेंट इस मुकाबले में सफल नहीं हो सकता. कई मौकों पर बेशक वे अपनी मर्जी के इंस्टीट्यूट तक नहीं पहुंच पाते लेकिन इस गाइडेंस के जरिए वे खुद के ख्वाब को पूरा करने की राह पर कदम बढ़ा ही लेते हैं. जैसे बिहार के विकास आइआइटी में नहीं जा सके तो उन्होंने पंजाब की एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया और अब वहीं से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं.
इसीलिए देश के विभिन्न कोनों में कई इलाके कोचिंग के ठिकानों के रूप में उभर रहे हैं. इनमें राजस्थान के कोटा, उत्तर प्रदेश के कानपुर, बिहार के पटना और मध्य प्रदेश के इंदौर के नाम प्रमुखता से आते हैं. पटना में तो कोचिंग का कारोबार 1,000 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार कर चुका है. आइए जानते हैं कि किस तरह कोचिंग उद्योग यहां नया मुकाम हासिल कर रहा है.
हर साल छह लाख से भी ज्यादा लड़के-लड़कियां कोटा आते हैं. वजह, इस शहर को आइआइटी और अन्य प्रवेश परीक्षाओं की कोचिंग का मक्का समझा जाता है. इनके अलावा वे ‘असफल’ लोग भी होते हैं, जो दोबारा तैयारी कर रहे होते हैं और एक इंस्टीट्यूट छोड़कर दूसरे में दाखिला लेकर अपना भाग्य आजमाते हैं. सीटों के सीमित होने के कारण सभी स्टुडेंट्स का आइआइटी में दाखिला मिलने का सपना पूरा नहीं हो पाता, लेकिन काम्पीटिशन में जीतने और अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए इस शहर की ओर आने वाले स्टुडेंट्स की संख्या में इजाफा हो रहा है.
कोटा के कोचिंग सेंटरों में छात्रों को सालाना 40,000 रु. से एक लाख रु. के बीच फीस देनी पड़ती है. उनकी फीस कोर्स पर निर्भर करती है. इस फीस के अलावा छात्रों को रहने और भोजन पर हर साल कम-से-कम 60,000 रु. खर्च करने पड़ते हैं. यहां आने वाले ज्यादातर स्टुडेंट्स देश के विभिन्न हिस्सों से आते हैं. सिक्किम के गंगटोक का 17 वर्षीय अनुराग गुलुंग पिछले साल कोटा आया, और 16 वर्षीय मोहम्मद कामरान ओमान से यहां आया हुआ है.
इस छोटे-से शहर में करीब तीन दर्जन कोचिंग सेंटर हैं. इनमें बंसल क्लासेज, एलेन करियर इंस्टीट्यूट, रेजोनेंस, वाइब्रेंट और करियर पॉइंट जैसे कुछ बड़े नाम हैं. 2011 में दक्षिण कोरिया की कोचिंग कंपनी इटूस ने कोटा में अपना सेंटर खोला है. इटूस एकेडमी में ओवरसीज बिजनेस के डायरेक्टर चोइ यंग जू कहते हैं, ‘विदेश में आइआइटी भारतीय शिक्षा का सबसे प्रसिद्ध ब्रांड है और कोटा इसका केंद्र है.’
यहां के इंस्टीट्यूट्स का कारोबार खूब फल-फूल रहा है. कई इंस्टीट्यूट तो स्टुडेंट्स को दाखिला देने तक के लिए प्रवेश परीक्षा ले रहे हैं. हाल के वर्षों में कोचिंग सेंटरों के बीच बढ़ी प्रतिस्पर्धा की वजह से इनकी प्रवेश परीक्षाएं आसान हुई हैं और अधिकतर सेंटर सभी बच्चों को दाखिला दे ही देते हैं. 1993 में कोटा में करियर पॉइंट की स्थापना करने वाले और आइआइटी-दिल्ली के स्टुडेंट रह चुके प्रमोद माहेश्वरी कहते हैं, ‘अगर हम स्टुडेंट को मना करेंगे तो वह किसी और इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लेगा.’ इन इंस्टीट्यूट्स में प्रत्येक में अलग संख्या में स्टुडेंट्स होते हैं.
कोटा में कोचिंग इंडस्ट्री की नींव 1980 के दशक में जे.के. सिंथेटिक्स में इंजीनियर वी.के. बंसल ने रखी थी. उन्होंने अपने टीचिंग करियर की शुरुआत स्थानीय स्टुडेंट्स को मैथ्स पढ़ाने से की थी. 1986 में कोटा उस समय सुर्खियों में आया जब यहां के संजीव अरोड़ा ने आइआइटी में टॉप किया. बंसल बताते हैं कि उनके स्टुडेंट्स में से 13 ने 1990 में प्रवेश परीक्षा क्रैक की थी. 1990 के दशक में जे.के. सिंथेटिक्स के बंद होने के बाद, कई इंजीनियर बंसल क्लासेज से जुड़ गए. बाद में इनमें से कई ने अपने इंस्टीट्यूट खोल लिए. 1995 में कोटा के 51 स्टुडेंट्स ने आइआइटी में बाजी मारी थी. कोचिंग सेंटरों ने आइआइटी ग्रेजुएटों को बतौर अध्यापक रखना शुरू कर दिया. माहेश्वरी बताते हैं कि उन्होंने 1997 में कैंपस प्लेसमेंट के जरिए 12 फैकल्टी मेंबर्स का चयन किया था. यह रुझान 2002 तक जारी रहा लेकिन इसके बाद आइआइटी ने कोचिंग सेंटरों के कैंपस प्लेसमेंट में आने पर रोक लगा दी. आज लगभग, कोचिंग से जुड़े 35 फीसदी लोग आइआइटी से ही हैं.
अच्छे अध्यापकों की मांग ने उनकी सैलरी में भी जबरदस्त इजाफा किया है, जो सालाना 30 लाख रु. तक हो सकता है. अनुभवी अध्यापकों की सैलरी तो इसकी भी दोगुनी हो सकती है. उनकी सैलरी पर लगाम लगाने के लिए सेंटरों के बीच एक अलिखित सहमति है कि वे एक-दूसरे के अध्यापकों को ज्यादा वेतन का लालच देकर नहीं बुलाएंगे. आइआइटी-बॉम्बे के स्टुडेंट रह चुके ओम शर्मा, जो एक इंस्टीट्यूट में मैथमेटिक्स पढ़ाते हैं, कहते हैं, ‘लेकिन इटूस ने रेजोनेंस के 11 टीचर्स को सालाना करीब 1 करोड़ रुपये के वेतन पर बुलाकर इस आम सहमति को दरकिनार कर दिया.’
स्टुडेंट्स के स्कूल से ज्यादा कोचिंग पर ध्यान देने की वजह यह है कि इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा कक्षा 12वीं क्लास की परीक्षा से एकदम अलग होती है. इंस्टीट्यूट्स ने इस मौके का लाभ उठाया और स्कूलों से कॉन्ट्रेक्ट कर लिया. ऐसी व्यवस्था में छात्र इन स्कूलों में नाम तो लिखवा लेते हैं, लेकिन क्लास में नहीं जाते. इसकी जगह वे इंजीनियरिंग की तैयारी में लग जाते हैं और 12वीं क्लास की परीक्षा के समय ही स्कूल जाते हैं. इस तरह के संस्थानों ने अपने स्कूल खोल लिए हैं, जहां वे छठी क्लास से बच्चों का दाखिला लेते हैं और आइआइटी की तैयारी कराते हैं. इस साल प्रवेश परीक्षा के फॉर्मेट में और भी बदलाव किए गए हैं, जिसमें 12वीं क्लास की बोर्ड परीक्षा को ज्यादा महत्व दिया जाएगा. करियर पॉइंट के प्रमोद माहेश्वरी कहते हैं, ‘नए फॉर्मेट से कोचिंग सेंटरों पर स्टुडेंट्स की निर्भरता और बढ़ जाएगी. इससे स्टुडेंट्स पर दबाव दोगुना हो जाएगा. पहले वे प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग का सहारा लेते थे. अब वे बोर्ड परीक्षा के लिए भी कोचिंग का सहारा लेंगे.’
एलेन करियर इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर गोविंद माहेश्वरी कहते हैं कि कई इंस्टीट्यूट्स ने कोटा में पैर जमाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए. कोटा के इंस्टीट्यूट अब गुवाहाटी, पटना, चंडीगढ़ और बंगलुरू जैसे दूसरे शहरों में भी अपनी ब्रांच खोल रहे हैं. लेकिन बंसल का कहना है कि इंजीनियरिंग में प्रवेश पाने के इच्छुक स्टुडेंट कोटा आते रहेंगे. हालांकि इस बारे में कोई आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कोचिंग के कारोबार में शामिल लोगों का अनुमान है कि आइआइटी में करीब एक-चौथाई सीटों पर कोटा के छात्रों का कब्जा होता है.
कानपुर के काकादेव इलाके में पहुंचने पर यहां इमारतों पर टंगी मुख्यत: इंजीनियरिंग और मेडिकल की बड़ी-बड़ी होर्डिंग इस बात की पुष्टि कर देती हैं कि औद्योगिक गतिविधियों के लिए जाना जाने वाला कानपुर शहर अब यूपी में कोचिंग के एक बड़े सेंटर के रूप में उभर रहा है. शिक्षाविद् और डीएवी कॉलेज, कानपुर में फिजिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मनोज मिश्र कहते हैं, ‘यूपी के पूर्वी और पश्चिमी जिलों से कानपुर की कनेक्टिविटी यहां कोचिंग सेंटर के पनपने का एक बड़ा कारण है. कानपुर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आइआइटी), मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, पॉलिटेक्नीक जैसे इंस्टीट्यूट के होने से यहां शिक्षा का अच्छा माहौल है. इसका फायदा यहां इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने आने वाले स्टुडेंट्स को सहज ही मिल जाता है.’
1990 के आसपास काकादेव इलाका पूरी तरह विकसित नहीं था और यहां जमीन की कीमतें काफी कम थीं. इसका लाभ उठाते हुए पी.एन. गुप्ता और आइआइटी कानपुर के रिटायर्ड प्रोफेसर ओ.पी. जुनेजा ने मैथमेटिक्स और दिलीप सरदेसाई ने काकादेव इलाके में फिजिक्स की कोचिंग देना शुरू किया. यह इस इलाके के कोचिंग हब में तब्दील होने की शुरुआत थी. दो साल के भीतर यहां के कोचिंग मार्केट ने आकार लेना शुरू कर दिया. 1992 में कानपुर आइआइटी से बीटेक करने वाले अतुल कुमार और संजय कुमार ने ‘एट्सा’ कोंचिग सेंटर की नींव डाली जो इस इलाके का ही कानपुर में ही इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा का पहला एकीकृत कोचिंग सेंटर था.
इसके बाद से काकादेव और इसके आसपास के इलाके गीतानगर, नवीननगर में भी इंजीनियरिंग और मेडिकल कोचिंग सेंटर खुलने का सिलसिला शुरू हो गया. आज स्थिति यह है कि काकादेव और आसपास के इलाकों में अकेले इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराने के लिए छोटे-बड़े 100 से अधिक सेंटर काम कर रहे हैं.
इन कोचिंग सेंटर में मुख्य रूप से भाभा क्लासेज, न्यू स्पीड इंस्टीट्यूट, सिग्मा क्लासेज, न्यू लाइट कोचिंग इंस्टीट्यूट, राज कुशवाहा क्लासेज और अनीस श्रीवास्तव क्लासेज हैं. न्यू स्पीड इंस्टीट्यूट के हर्ष मिश्र बताते हैं कि कानपुर में इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की कोचिंग उत्तर भारत के दूसरे बड़े सेंटर राजस्थान के कोटा के मुकाबले काफी सस्ती पड़ती है. वे कहते हैं, ‘कानपुर में इंजीनियिंरग के एक सब्जेक्ट की कोचिंग फीस 15,000 रु. सालाना है तो मेडिकल में तीन सब्जेक्ट की कुल फीस 50,000 रु. के करीब बैठती है जबकि कोटा में यही फीस 20 से 25 फीसदी अधिक है. कम फीस और बेहतरीन पढ़ाई से कानपुर के कोचिंग सेंटर उत्तर भारत के स्टुडेंट्स के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं.’
कोचिंग सेंटरों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा से यहां पढ़ाई के तौर-तरीकों में भी टेक्नोलॉजी से जुड़े कई तरह के प्रयोग नजर आने लगे हैं. यहां का करीब हर बड़ा कोचिंग इंस्टीट्यूट ऑनलाइन टेस्ट के जरिए अपने यहां पढऩे वाले स्टुडेंट्स की दक्षता को आंकने का काम कर रहा है. इसके अलावा एयरकंडीशन क्लासरूम और लाइब्रेरी की सुविधा देकर कोचिंग इंस्टीट्यूट स्टुडेंट्स को लुभा रहे हैं. लेकिन कई कोचिंग सेंटर गरीब बच्चों का खास ख्याल भी रख रहे हैं जैसे भाभा क्लासेज के महेश चंद्र चौहान. वे कुछ गरीब परिवारों के बच्चों को चुनकर उन्हें मुफ्त में आइआइटी-जेईई की कोचिंग दे रहे हैं.
पटना यूनिवर्सिटी से एम.कॉम और एसआइबीएम पुणे से एमबीए करने के बाद प्रो. नीरज अग्रवाल ने दिल्ली में आइटी कंपनी स्थापित की. इस दौरान उन्हें दिल्ली में बिहार के बेरोजगार युवाओं से मुलाकात के बाद पटना में शिक्षा क्षेत्र में कुछ करने का आइडिया सूझा. लिहाजा, उन्होंने पटना के अशोक राजपथ इलाके में करीब 600 वर्ग फुट में सिमेज (कैटलिस्ट इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट ऐंड एडवांस्ड ग्लोबल एक्सीलेंस) की स्थापना कर मामूली कोर्सेज से शुरुआत की, लेकिन 12 साल बाद इस इंस्टीट्यूट का आकार 36,000 वर्ग फुट हो गया है, जहां बीबीए, बीएससी-आइटी, बीजेएमसी, एमएससी-आइटी, एमसीए, एमबीए, पीजीएमसी जैसे प्रोफेशनल कोर्सेज की कोचिंग दी जाती है.
शुरुआत सिर्फ डिग्री कोर्सेज से हुई थी, लेकिन स्टुडेंट्स की बढ़ती जरूरतों और शैक्षणिक संस्थानों के बीच होड़ का नतीजा है कि पिछले एक साल से इंस्टीट्यूट के सफर में कोचिंग क्लासेज भी जुड़ गई हैं, जिसमें करीब 2,000 स्टुडेंट्स को कैट-मैट, बैंक पीओ और एमसीए एंट्रेंस एग्जाम के लिए कोचिंग क्लासेज कराए जा रहे हैं. प्रो. अग्रवाल कहते हैं, ‘नेशनल लेवल के कॉम्पीटिटिव एग्जाम की तैयारियों और सरकारी जॉब्स में स्टुडेंटस की बढ़ती दिलचस्पी को ध्यान में रखकर कॉलेज स्टुडेंट्स के लिए फ्री कोचिंग क्लासेज सबसे बड़ी जरूरत है, ताकि स्टुडेंट्स को समग्र शिक्षा दी जा सके.’
सिमेज का यह विस्तार बिहार की राजधानी पटना में स्टुडेंट्स के बीच कोचिंग की बढ़ती अनिवार्यता की बानगी भर है. यह ऐसा अकेला उदाहरण नहीं है. कंकड़बाग में एक गैराज में कोचिंग की शुरुआत करने वाले अनिल परमार अब कंकड़बाग के अलावा बेली रोड और बोरिंग रोड में परमार क्लासेज नाम से इंस्टीट्यूट चला रहे हैं, जिनमें इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कराई जाती है. पटना में ऐसे 1,500 कोचिंग इंस्टीट्यूट हैं.
जाहिर तौर पर इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए बिहार के स्टुडेंट्स के सामने राजस्थान का कोटा एक विकल्प था. लेकिन ऐसी स्थिति तब तक रही जब तक पटना में गिने-चुने कोचिंग इंस्टीट्यूट थे. इसी वजह से अब उलटी गंगा बहती नजर आने लगी है. हालांकि ऐसे उदाहरण कम हैं, फिर भी पहले स्टुडेंट्स कोटा जाते थे, लेकिन अब कोटा जैसे प्रसिद्ध स्थान के टीचर्स पटना में जमने लगे हैं. बैंकिंग, रेलवे और एसएससी जैसे कंपीटीशन एग्जाम की तैयारी के लिए भी कोचिंग की संख्या में इजाफा हुआ है. कोचिंग इंस्टीट्यूट की बढ़ती संख्या और स्टुडेंट्स की बढ़ती स्वीकार्यता के कई वजहें हैं. पहले ज्यादातर कोचिंग इंस्टीट्यूट शैक्षणिक सिलेबस को कंप्लीट कराने के लिए चलाए जाते थे, जो शिक्षा संस्थानों में अधूरे रह जाते थे. फिलहाल, राज्य में डिग्री कॉलेजों की स्थिति के दयनीय होते जाने तथा सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में जॉब्स के मिल रहे मौकों की वजह से कोचिंग एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभर रही है.
पटना में फिजिक्स पढ़ाने वाले अध्यापक ई. शशि कुमार कहते हैं कि इंजीनियरिंग के सिलेबस में बदलाव से भी कोचिंग के विस्तार को बल मिला है. राज्य में नए सिलेबस को समझने के लिए बच्चों के पास कोई दूसरा उपाय नहीं है. अन्य जगहों की तुलना में कम फीस भी कोचिंग से गरीब और मध्यमवर्गीय स्टुडेंट्स को जोडऩे का कारण बनी है. इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे घोसतावां (नवादा) के गुलशन कुमार बताते हैं, ‘कोटा में दो साल की तैयारी में करीब 3.5 लाख रु. खर्च आता था जो उनके किसान पिता के लिए संभव नहीं था, लेकिन पटना में डेढ़ लाख में कोर्स पूरा करवा दिया जाएगा.’
ऐसा नहीं कि पटना में कोचिंग इंस्टीट्यूट हर दृष्टिकोण से मुकम्मल हैं. जिस अनुपात में कोचिंग की तादाद बढ़ी है, उस स्तर तक सुविधाओं का विस्तार नहीं है. हालांकि बड़ी पूंजी के आने से कई मायने में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, लेकिन कई खामियां भी साथ आई हैं. इस फील्ड में कई गैर-शैक्षणिक लोगों के दखल देने से मुश्किलें बढ़ी हैं. हालांकि राज्य सरकार ने इस पर नियंत्रण के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट (कंट्रोल ऐंड रेगुलेशन) बिल-2010 पारित किया है, जिसके तहत कई मानक तय किए गए हैं. लेकिन इसके पालन की स्थिति संतोषजनक नहीं है.
मध्य प्रदेश के औद्योगिक शहर इंदौर में कोचिंग कारोबार अपने उफान पर है. हर साल लगभग डेढ़ लाख स्टुडेंट्स अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद इन्हीं कोचिंग इंस्टीट्यूट में आसरा पाते हैं. स्थानीय कोचिंग सेंटर रैंकर्स पॉइंट के डायरेक्टर कोमल शर्मा बताते हैं, ‘हम लोग हर साल 3,000 स्टुडेंट्स की आइआइटी, एम्स और अन्य इंस्टीट्यूट्स की प्रवेश परीक्षाओं के लिए तैयारी करवाते हैं.’ रैंकर्स पॉइंट की एम्स के एग्जाम में टॉप 20 में स्थान पाने वाली इंदौर की अदिति मोहता कहती हैं, ‘मुझे इंदौर में तैयारी का माहौल बहुत ही बेहतरीन मिला और अब मैं दूसरे लोगों को भी यहां आकर तैयारी करने की सलाह दूंगी.’
उनका कहना सही है, शहर में नामी संस्थानों के आने से भी काफी कुछ बदल गया है. इंदौर में नीमच, झबुआ, अलीराजपुर, सतना, मंदसौर और रतलाम जैसे इलाकों से छात्र इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की कोचिंग के लिए आ रहे हैं. यहां आकाश और फिट्जी जैसे राष्ट्रीय स्तर के इंस्टीट्यूट भी अपना ठिकाना बना चुके हैं. ब्रेनमास्टर्स, कैटलाइजर और कल्पवृक्ष जैसे कोचिंग इंस्टीट्यूट भी बच्चों में लोकप्रिय हो रहे हैं. ब्रेनमास्टर्स के डायरेक्टर डॉ. पंकज गुप्ता कहते हैं, ‘हम हर साल डॉक्टर बनने के इच्छुक 1,800 स्टुडेंट्स को एजुकेशन देते हैं और इनमें से अच्छी-खासी संख्या में स्टुडेंट्स सफल भी होते हैं.’
कोचिंग के यहां इस तरह से बढऩे की एक वजह आइआइटी और आइआइएम का एक साथ एक जगह होना भी है. यह बात यहां के स्थानीय बच्चों को प्रेरित करती है, और वे अपने ही शहर में अपने ड्रीम इंस्टीट्यूट में पढ़ाई कर सकते हैं. स्ट्रैटफोर्ड एकेडमी के डायरेक्टर आनंद कातकवर कहते हैं, ‘इंजीनियरिंग और मेडिकल के क्षेत्र में यहां से जाने वाले स्टुडेंट्स की संख्या के मामने में इंदौर बढिय़ा प्रदर्शन कर रहा है.’ यह रुझान कायम रहने वाला है.
-साथ में अशोक कुमार प्रियदर्शी और सुनीता दास.