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पाकिस्‍तानी आर्मी को साठ साल बाद आए अक्ल के दांत

पहले जो मुशर्रफ के सेनापति थे, आज कयानी की पलटन में तब्दील हो चुके हैं. पाकिस्तान की नई फौज चालबाज शातिरों की बजाए अराजनैतिक, शांत और ज्यादा डिप्लोमैटिक बन चुकी है.

अपडेटेड 11 मई , 2013

यह बात उबाऊ है, लेकिन शायद अच्छी हो. आखिरकार पाकिस्तानी फौज ‘‘प्रोफेशनल’’ हो ही गई. इसका मतलब ‘‘शैतानी’’ होना नहीं है. ‘‘राज्य के भीतर एक और राज्य’’ भी नहीं. यह सब 1999 की बातें हैं. फौज अब सियासी अभद्रताएं नहीं करती. सब पीछे छूट गया है.

नई फौज ‘‘अराजनैतिक’’ है और वापस अपनी ‘बैरकों में लौट चुकी है.’ कोई तख्तापलट नहीं. कोई सीधा दखल नहीं. कोई ऐसा बयान नहीं जिससे पाकिस्तान की धरती हिल उठती हो. कोई ऐसा कदम नहीं जिससे नसों में सिहरन पैदा होती हो या शेयर बाजार गिर जाते हों या फिर भारत के फौजी दस्तों में हलचल मच जाती हो.

और ये बातें यहीं सुनी जा रही हैं. आधिकारिक रूप से-सार्वजनिक मंचों पर और टॉक शो में-यहां तक कि ड्राइंग रूम और सिगार लाउंज की मुलाकातों में भी कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी फौज अब मुल्क की खिदमत में जुट गई है.

दरअसल पाकिस्तानी फौज के कर्नल बड़ी मेहनत से राजनीति कम और काम ज्यादा का अपना नया मुहावरा बेचने में जुटे हैं और पहली कतारों में खड़े कुछ कम नफीस कैप्टनों और मेजरों ने उनकी बात को मान लिया है. व्यवहार में देखें तो कुल 65 साल बाद यह बदलाव तकरीबन पूरा हो चुका है. आज पाकिस्तानी फौज अपने देश की सबसे बड़ी सियासी पार्टी कम और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी फौज ज्यादा है.

कुछ ही हफ्ते बचे हैं और जनरल अशफाक परवेज कयानी देश के उठापटक वाले इतिहास में पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार से दूसरी तक ले जाने वाले चुनाव करवा रहे होंगे. जाहिर है, फौज के अलावा और कौन शांत तरीके से चुनाव की गारंटी दे सकता है.Pakistan

इसलिए ऐसा लग सकता है कि पाकिस्तान का कुख्यात और विखंडित मानसिकता वाले लोकतंत्र, या कहें लोकतंत्रहीनता का विकार अंतत: रावलपिंडी मुख्यालय के वर्दीधारियों ने ही सुलझाया, इस्लामाबाद के शेरवानी-शलवार वाले मनोविज्ञानी इस काम न आए.

यह कायापलट हालांकि कोई सैद्धांतिक नहीं है. दरअसल कुछ और घटा है, कुछ ऐसा जिसका हम सब को इंतजार था. यह कमान और नियंत्रण वाली सियासत के संकरे रास्ते से नेतृत्व के परिदृश्य में लगाई गई बड़ी जटिल छलांग है.

हाल में अफगानिस्तान की सरहद के पास मेरी मुलाकात एक दुर्लभ किस्म के फौजी से हुई. आइएसआइ का वह सेक्टर कमांडर बिलकुल किसी पाकिस्तानी जेम्स बांड के जैसा था: राष्ट्रवादी, भारत के प्रति कठोर, अमेरिका के प्रति शक्की, तालिबान से चौकन्ना, छापामार युद्धप्रेमी और सरहद पार करने पर गर्व महसूस करने वाला. हमारी बातचीत जब लोकतंत्र और राजकाज पर पहुंची, तो छावनी में मौजूद सभी की ओर दिखाते हुए वह बोला, ‘‘ये हमारा नहीं, आपका काम है. जाइए अपना काम करिए.’’ पाकिस्तान में 11 मई को चुनाव होने वाले हैं और सबसे अच्छी बात यही है कि उसके फौजी अब राजनैतिक तटस्थता का प्रदर्शन सीख चुके हैं.

यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है. एक ऐसे नए दुश्मन की मार जिसे वह अपनी मर्जी से पलट कर नहीं ठोक सकती; उस अंतरराष्ट्रीय वित्तीय तंत्र की बंदिशें जो खयालों में ही कॉन्सटिट्यूशन एवेन्यू पर टैंक दौड़ाने के बदले घोर सजाएं दे सकता है; इसमें उस वैश्विक मीडिया का योगदान जिसे वह कभी पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकती; कई दाढ़ीवाले सहयोगियों का उसे छोड़कर चले जाना; और शायद सबसे जरूरी बात यह है कि एक दशक तक सैन्य हस्तक्षेप की वजह से लोगों की नजरों में गिरना, उससे पैदा हुई सुरक्षा खामियां और सबसे बढ़कर सियासी गुणा गणित के गलत साबित हो जाने पर उसे जिल्लत उठानी पड़ी. इसकी वजह से उनके हीरो और नेता परवेज मुशर्रफ  को सैद्धांतिक रूप से सही ब्रूटस के हाथों जलील होना पड़ा: यानी इस इस्लामी गणराज्य के समाज और सक्रिय नागरिक संस्थानों की बदौलत यह बदलाव आया है.

यानी आज के पाकिस्तान में कोई एक नहीं, कई जादूगर हैं और इनमें किसी को भी अब सिर्फ खाकी पहनकर जीने की छूट नहीं है. सबकी बाध्यता है कि वे राष्ट्रीय चेतना में बसे पारंपरिक हरे रंग का सम्मान करें. आज आगामी चुनाव और आने वाले दिनों में अफगानिस्तान से अमेरिकी/नाटो फौजों की वापसी के आलोक में सब कुछ उसी पारंपरिक और संविधानवादी ढर्रे पर लौट आया है. पाकिस्तान में कभी भी ऐसे हालात नहीं थे.

इस तरह इस्लामाबाद के कुख्यात नागरिक-सैन्य अस्थिर तंत्र का नया चेहरा उभरकर सामने आ रहा है. नई फौज अब संवैधानिक फौज है और इसका सीधा-सा मतलब यह हुआ कि बाकी हर किसी को अपना-अपना काम संविधान के मुताबिक ही करना होगा.

कभी मुशर्रफ के लड़ाके रहे फौजी अब बदल गए हैं. आजकल वे कयानी के फौजी हैं: बिलकुल शांत, निर्लिप्त और पहले की आदमखोर छवि के मुकाबले कहीं ज्यादा रणनीतिक और कूटनीतिक. वे अब सुर्खियां नहीं, सर्वेक्षण पर यकीन करते हैं. वे ट्वीट करते हैं, वॉट्सऐप से संदेशों का आदान-प्रदान करते हैं, (गुगल) हैंगआउट पर हमखयाल लोगों से मिलते हैं. वे अब गुपचुप एसएमएस नहीं करते. अवाम के सामने रौब नहीं झाड़ते. कम में ही संतोष का मंत्र वे अपना रहे हैं. यहां तक कि आइएसआइ भी अब बेहतर भाषा में लिखी प्रेस विज्ञप्तियां जारी करने लगी है.

किसी जनरल से मुलाकात करें तो वह सिर्फ मैकियावेली या क्लॉजविज को नहीं बल्कि कोल और सैंगर को भी उद्धृत करता मिल जाएगा. अब बिक्रम सिंह  की नहीं, नाटो के लॉजिस्टिक की बात होती है. वह महत्वाकांक्षी नहीं, अनुशासित होने की बात करेगा. और यह मुलाकात वह किसी होटल के कमरे में नहीं, इस बार किसी समृद्ध निजी लाइब्रेरी में करना पसंद करेगा. वह आपसे सियासत नहीं, पोलो की बात करेगा. वह आपसे आपके संपादक की शिकायत नहीं करेगा बल्कि आपकी बड़ाई करेगा. और लगातार अपनी बातचीत में वह ऐसे जुमले उछालेगा जो आम तौर से हार्वर्ड या ब्रूकिंग्स यूनिवॢसटी में सुने जाते हैं. वह विमर्श और प्रतिविमर्श की बात करेगा, व्यापार संधियों और पुनर्वास पर बोलेगा, क्षेत्रीय सैन्य सहयोग और परस्पर शांति बहाली पर बात करेगा. दिलो-दिमाग को जीतने की बातें होंगी. अल्ला हू अकबर पीछे छूट चुका है. ईमान, तकवा, जिहाद फीसबीलिल्लाह तो छोड़ दें, कश्मीर तक का जिक्र नहीं आएगा. ये सब मेस में की जाने वाली बातें हैं, जनता के बीच कतई नहीं!

पाकिस्तान से यही असल खबर है. फौज का अब नया ब्रांड है और इसके प्रबंधक वे नई पीढ़ी के फौजी और गुप्तचर हैं जिन्हें जनरल कयानी ने खुद अपने साये तले आगे बढ़ाया है: कम बोलने वाले, मजाहिया, पढ़े-लिखे और कुछ हद तक रहस्यमय पोकर खिलाड़ी जैसे युवा जिनकी निगाह दक्षिणपंथी सैन्यवाद के पिता जनरल जियाउल हक की कही उस चीज को लगातार बचाने पर गड़ी रहती है जिसे उन्होंने ‘‘पाकिस्तान की इकलौती संस्था जिसकी अहमियत है’’ कहा था. जाहिर है, वह यहां की फौज है.

फिलहाल पाकिस्तान की सैन्यीकृत राजनैतिक अर्थव्यवस्था का कुख्यात मंत्र अल्लाह, आर्मी और अमेरिका बदल चुका है. अब सिर्फ एक आवाज आ रही है: आर्मी, आर्मी, आर्मी.

जाहिर है पाक फौज के व्यवहार में यह बदलाव 10 साल तक लगातार सबसे मुश्किल अतिवाद विरोधी, आतंक विरोधी गुप्तचर अभियानों की मिलीजुली जंग में घिसने के बाद आया है जिसका सामना शायद और किसी आधुनिक फौज को नहीं करना पड़ा होगा. इसने 1947 में गलती की होगी, 1965 में वे बच गए रहे होंगे. 1971 में उन्हें रगड़ दिया गया और 1999 में शर्मिंदा भी हुए होंगे. उन्हें 2002 में बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका था. लेकिन जहां तक अफगानिस्तान-पाकिस्तान के रगड़े का सवाल है, उन्हें लगता है कि उनकी फतह हुई है. और वे शायद सही भी हैं.

अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तानी फौज को आखिरकार समझ में आ गया है कि वह किस काम में बेहतर है: घुटने टेक देने में, जमीन से सटे रहने में. वह जान गई है कि अगर लडऩा संभव नहीं है तो पीछे हटना भी नहीं है.

वजीरिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में फौज की कुछ ब्रिगेडों ने तो चमत्कारी काम किया है और कई बरस तक ‘जलते रहो’ के भ्रामक अमेरिकी फलसफे को अपनाने के बाद वहां आखिकार स्थिरता और अमन कायम कर डाला है.

ड्रोन हमलों के खेल में फौज ने एक ही बात कही कि यह अमेरिका की कार्रवाई है. और यह कारगर साबित हुआ है. काफी समय पहले फौज को यह इल्म हो गया था कि अमेरिकी फौज वहां जीतने के उद्देश्य से नहीं, सम्मानजनक तरीके से विदाई के लिए लड़ रही है लेकिन पाकिस्तानी फौज को तो इसलिए लडऩा है कि वह वहां टिकी रह सके. इसके बाद उनकी रणनीति बदली और उन्होंने अफगान नेशनल सिक्योरिटी फोर्स को लुभाने के भारतीय कदमों का जवाब देते हुए दोहा, दुबई, काबुल और पेरिस में वार्ता के लिए सौदेबाजी की कुछ जमीन तैयार की, बावजूद इसके कि 2011 के अंत में डूरंड रेखा पर सलाला जैसी घटना, 2013 के आरंभ में एलओसी पर झड़प या कुछ हफ्तों में एक बार नियमित तौर पर उज्बेक/ताजिक प्रभुत्व वाले एनडीएस के हमले उसकी राह में मुश्किलें खड़ी करते रहे. अब फौज सौदेबाजी की स्थिति में आ चुकी है. जिस फौज का इतिहास झगड़ों को शुरू करने वाला रहा हो, उसे इस तरह के अंजाम की कोशिशें करता देखना अपने आप में काफी प्रभावशाली है. 

यह एक बड़े राजनैतिक आख्यान का नया और उन्नत सैन्य पहलू है जहां ‘‘सैन्य-रणनीतिक गहराई’’ का अर्थ यह है कि ‘‘अगर तुम मुझे सत्ता में अपना दलाल बनाना चाहते हो’’ तो ऐसा तभी होगा जब ‘तुम मुझे अपना सैन्य प्रशिक्षक बनने दोगे’’ और यह सब कुछ तभी हो सकेगा जब ‘तुम मुझे अपना काम करने दो और मैं तुम्हें तुम्हारा काम करने दूं.’’ मैं इसे सैन्य कूटनीति कहता हूं. और यह मानते हुए कि ब्रसेल्स में अफगानिस्तान-पाकिस्तान-अमेरिका की वार्ता एक ‘‘कोर समूह’’ के तौर पर इस्लामाबाद द्वारा रची गई थी जिसमें भारत और ईरान जैसे देश शामिल नहीं थे, तो यह इस बात का सबूत है कि विदेश विभाग जैसे नागरिक पक्षकारों को इसे बाहर नहीं रखा गया था.

बहरहाल, पाकिस्तानी घरों-मोहल्लों का माहौल बदला हुआ है. वे दिन लद गए जब कोई भी किसी पत्रकार को पीट देता था और गली-नुक्कड़ के कोनों से आपको उठा लिया जाता था. सलीम शहजाद की मौत के बाद हुई कठोर आलोचना का यह असर है. अब गुंडे बाहर हैं और घर के भीतर फंड मैनेजर इंतजार कर रहे हैं.

अब आपके पास चुनने के लिए कुछ बेहतर चीजें हैं. नकद नहीं, भोज नहीं, औरतें भी नहीं. मैं चीजों तक पहुंच की बात कर रहा हूं. विशुद्ध, साफ-सुथरी और फायदेमंद पहुंच की. उनके पास ऐसी सलाह है जो कोई भी नागरिक आपको नहीं दे सकता. वे कहते हैं कि अपना पोर्टफोलियो बनाओ. हममें से जिसकी क्षमता है वे उनकी सेवाएं ले लेते हैं.

हिंदुस्तानियों के लिए ये सब चौंकाने वाली बात हो सकती है. पाक फौज में सुधार? मुंबई हमले के बाद इतनी जल्दी? और वह भी 2014 में अमेरिकी फौजों के लौटने से पहले? नामुमकिन! दिल्ली को यह बात समझ नहीं आएगी. मुझे इसकी उम्मीद भी नहीं है. भारत के मामले में हमेशा नियम-कायदे अलग रहेंगे. आखिरकार हर फौज को एक न एक दुश्मन तो चाहिए ही होता है और पाकिस्तान के पास तो हमेशा से भारत के रूप में अपना दुश्मन है ही.

खान हार्वर्ड केनेडी स्कूल के फेलो हैं और मल्टीमीडिया पत्रकार हैं जो एनबीसी न्यूज, आज टीवी और रेडियो पाकिस्तान के लिए काम करते हैं.

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