मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के आदिवासी बहुल खालवा इलाके का यह वाकया देखिए जरा. पिछली बरसात में बाढ़ का पानी उतरने के बाद प्रदेश के आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह वहां के झ्रिपा गांव पहुंचे. मौके पर मौजूद अफसरों को वे पहुंच मार्ग, राशन-पानी और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े तमाम इंतजाम दुरुस्त करने के निर्देश देने लगे.
इसी बीच एक आदिवासी युवक एकाएक निकलकर आया और लपाक से बोला, ''मंत्री, तू तो बस मोबाइल टावर लगवा दे, बाकी सब अपन निपट लेंगे.” मंत्री और उनका पूरा अमला सन्न. गांव के बाकी लोगों में से कइयों को युवक के बोलने के लहजे पर भले एतराज हुआ हो लेकिन उसकी मांग से वे भी सहमत थे. यह वह इलाका है, जहां लोग रोजमर्रा की तमाम दुश्वारियों में जीते आए हैं. उनके भोलेपन के किस्से मशहूर रहे हैं लेकिन इतनी बात उन्हें भी समझ आ गई है कि मोबाइल है सौ मर्जों की एक दवा.
खलबली और भी तरह से मची है. उत्तर प्रदेश में बहराइच जिले के एक गांव के मंगली पासी मजदूरी के लिए दिल्ली गए. उम्र यही कोई बीस की हद में. कुछ महीनों बाद लौटे इस युवक को पत्नी से विरक्ति-सी हो गई. एक दोस्त के सामने उसने वजह कबूली. सार यह था कि दिल्ली में उसने कई संबंध बनाए और उन स्त्रियों में उसे करीना कपूर का अक्स दिखता था. अब गांव का 'कड़वा’ यथार्थ उसके लिए अवसाद पैदा करने जैसा था. पलटी मारते गांवों में एक और जोड़ें.
हरियाणा के झज्जर (जिले) में जिला मुख्यालय से दस किमी दूर 15,000 की आबादी वाला एक गांव है दुजाना. पीने का पानी भले खरीदना पड़ता हो पर इस दलित और पिछड़ा बहुल गांव के बीच बना आधुनिक जिम चौंकाता है. नौजवानों के अलावा कई गृहिणियां भी इसकी सेवाएं लेती हैं. गांवों की जो चाल देखी, हिचकियां आने लगीं.
ये कुछ तस्वीरें हैं जो बताती हैं कि हिंदुस्तान खासकर उत्तर भारत के गांव गड्डमड्ड बदलाव के किस तरह के दौर से गुजर रहे हैं. इन बदलावों को किसी एक परिभाषा में बांध पाने में मुश्किल हो रही है. इसने उन लोगों के लिए धर्मसंकट खड़ा कर दिया है, जो गांवों को नैतिकता और शुचिता का साक्षात् पुंज बताते और उनके तमाम अच्छे-बुरे रीति-रिवाजों का एक सांस में बचाव करते आ रहे थे. पिछले दो-ढाई दशक में गांवों में जो हुआ है, उसने उनकी बंधी-बंधाई इमेज को चुनौती दे डाली है.
1980 के दशक के उत्तरार्ध पर जरा नजर दौड़ाइए: श्रीदेवी की नगीना, रामानंद सागर के रामायण और राजीव गांधी के लोकप्रिय जुमले 'हमें देखना है’ का समय. 'विषैली’ खेसारी दाल से होने वाली लकवे की बीमारी ने देश भर में हंगामा खड़ा कर दिया था. किसान बिरादरी सकते में आ गई थी. यह वही समय था जब पहाड़ों के गांवों से बड़े पैमाने पर लोग मैदानी शहरों की ओर भागना शुरू हुए थे.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव दहाड़े, ''जब तक अंग्रेजी शिक्षा लदी रहेगी, तब तक गांव के किसान-मजदूर के बेटे आगे नहीं बढ़ पाएंगे.” गांवों के ही एक दूसरे प्रतिनिधि नेता उप-प्रधानमंत्री देवीलाल ने दूर की सुझाई: राजदूतों और न्यायाधीशों के 50 फीसदी पद ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले लोगों के लिए आरक्षित किए जाएं. इस सुझाव का तो उसी वक्त मखौल बन गया था. और यादव? सिडनी में पढ़े उनके सुपुत्र अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में इन दिनों उत्तर प्रदेश में कॉन्वेंट स्कूलों की बसें दूरदराज के गांवों से बच्चों को ढोकर ला रही हैं.
गांधी बाबा बोले थे कि ''शहरीकरण भारत में गांवों और गांववालों के धीमे लेकिन शर्तिया विनाश का कारण है.” पर आज तो शहरीकरण के फीते-डोरी से गांवों के छाती-पुट्ठे का नाप लिया जा रहा है. शहरों के लंबे होते गए साये से गांवों में गुदगुदी बढ़ी है. तेजी से बदलती सोहबत से गांवों की तबियत पिघल रही है. 2011 की जनगणना बताती है कि ग्रामीण आबादी का प्रतिशत अब 70 से नीचे आ चुका है. गुजरात और महाराष्ट्र सरीखे तेज विकास वाले राज्यों में शहरी आबादी 40 फीसदी से भी ज्यादा हो गई है.
यहां तक कि हरियाणा जैसे धुर पुरातनपंथी प्रदेश में भी ग्रामीण आबादी तेजी से घटते हुए 65 फीसदी तक आ पहुंची है. गांवों की चौहद्दी में क्रांति का आलम यह है कि वहां मोबाइल की संख्या 33 करोड़ से ज्यादा पहुंच चुकी है जबकि मार्च 2011 में यह 28 करोड़ के करीब थी.
इससे भी अहम पहलू यह कि गांवों में अब चार करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं और इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की मानें तो इस महीने के अंत तक इसमें 50 लाख उपभोक्ता और जुड़ जाएंगे. सरकार के ब्रॉडबैंड विस्तार की जो योजना है, उस हिसाब से तो अगले नवंबर तक देश के साढ़े छह लाख गांवों में से ढाई लाख में वाइ-फाइ चल रहा होगा. योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन तभी तो कहते हैं, ''मोबाइल फोन, पिछले दशक में सड़कों के तेज फैलाव और स्कूल जाने वाले बच्चों की तादाद में दोगुने इजाफे ने गांवों के विकास में बड़ा रोल निभाया है.”
एक दशक पहले तक आदिवासियों के पास आधुनिकता के नाम पर एक रेडियो हुआ करता था. एक हाथ में छतरी और दूसरे में रेडियो उसकी पहचान बन गए थे. लेकिन अब उसकी सुबह की इमेज में एक हाथ में लोटा और दूसरे में मोबाइल आ गया है. नब्बे के दशक में यही मोबाइल आ गया होता तो उत्तर भारत के गांवों के गणेश भी एक ही वक्त पर दूध पीने से वंचित न रह जाते. राजस्थान के कई जिलों के दूरदराज के गांवों में उन दिनों तमाम मौसमी बीमारियों से बड़े पैमाने पर लोग मर रहे थे और इलाज तो छोडि़ए, इसकी खबरें तहसील मुख्यालयों तक भी मुश्किल से पहुंच पा रही थीं.
गांव के विकास की तस्वीर के तले ऐसा कतई नहीं कि सबका मुंह मीठा मीठा-सा हुआ जाता हो. गोरखपुर में मोची का काम करने वाले पास के एक गांव के रामसुभग को कोटेदार ने समझाया है कि 'तीनों बेटों को अलग परिवार दिखाकर तीन अंत्योदय कार्ड के जरिए 35 किलो अनाज ले लो. एक कार्ड तुम्हारे पास रहेगा, दो हमको दे देना. पैसा दे देंगे.’ गांव की सांसों का तापमान अब तीन लोग तय करते हैं: प्रधान, पूर्व प्रधान और भविष्य का प्रत्याशी. मनरेगा इनके हाथ का हथियार है. खुद के और दूसरों के लिए भी. दुजाना (हरियाणा) के ढाई साल से सरपंच लखीराम बड़े ईमानदार हैं पर गांव वालों का शिकवा है कि काम कुछ नहीं करवा पा रहे. सारा काम पिछले वाले ने करवाया. एक युवक साफ कह बैठता है, ''अजी ईमानदार हो तो घर बैठो. काम ना होणे का.”
ओडीसा के उस कालाहांडी को देखिए जहां 1985 में अमलापल्ली गांव की फाणस पुंजी ने अपने दो बच्चों को भुखमरी से बचाने के लिए अपनी दो साल की ननद वनिता को 40 रु. में बेच दिया था. वहां के कई गांवों में ऐसे किसान भी हैं जो राशन कार्ड गिरवी रखकर कर्ज जुटाते हैं. जिन गांवों में पीने का साफ पानी नहीं, वहां कोक की बोतलें बिक रही हैं.
कालाहांडी में धरती फाउंडेशन नाम की संस्था से 12 साल से जुड़े अमरेंद्र किशोर के शब्दों में: ''कालाहांडी अब ग्लोबल युग में जा रहा है लेकिन इसके सामाजिक-आर्थिक हालात दस साल पहले जैसे ही दिख रहे हैं. जहां पाठ्यपुस्तकें और पैरासीटामॉल भले न हों पर ब्लू फिल्मों की सीडी और गुटखा उपलब्ध है.” पर इस कहानी में मुद्दे की बात जोड़ते हैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास में एम. फिल कर रहे अभय कुमार: ''गांवों को ग्लैमराइज करने की जरूरत नहीं. गरीबी शहर में भी है, अमीर गांव में भी हैं. गांवों में सब कुछ खराब नहीं, शहरों का सब कुछ अच्छा नहीं.” यानी गांवों में दो-ढाई के बदलाव को देखकर हिचकियां आना जरूरी नहीं है.
—साथ में जय नागड़ा और कुमार हर्ष