
हवा कैसे खराब हुई, अब दिल्ली वाले सब कुछ जानते हैं. जहरीला प्रदूषण कई स्तरों और परतों का अभिशाप है. गाड़ियों और उद्योगों से निकलने वाला धुआं, निर्माण गतिविधियों की धूल, कचरा जलाना और हर सर्दी में पंजाब-हरियाणा के खेतों में पराली जलाने से उठने वाला धुआं दम निकाल रहा है. देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत भी प्रदूषण के चपेट में आए और बताया कि नवंबर के आखिर में एक दिन 55 मिनट टहलने के बाद उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगी.
परेशान लोग आखिर इसके खिलाफ प्रदर्शन करने निकल पड़े. नवंबर में इंडिया गेट के लॉन में करीब 400 लोग जमा हुए. उनके हाथ में 'स्मॉग से आजादी' के पोस्टर थे और नारा लगा रहे थे 'सांस लेकर ही मर रहे हैं.' लेकिन पुलिस ने उन्हें ही पकड़ लिया और विरोध खत्म हो गया. सरकार ने अपनी तरफ से जीआरएपी (ग्रेडेड रेस्पॉन्स ऐक्शन प्लान) नियमों में बदलाव किया, ताकि पहले ही सख्त कार्रवाई शुरू की जा सके.
एक महीने पहले 23 अक्तूबर को प्रधानमंत्री कार्यालय ने आठ केंद्रीय मंत्रालयों और पांच राज्यों के वरिष्ठ नौकरशाहों की आपात समीक्षा बैठक बुलाई. मौजूदा ऐक्शन प्लान सात साल पुराने प्रदूषण डेटा पर आधारित है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रमुख सचिव पी.के. मिश्रा ने मौजूदा समय के उत्सर्जन को मापने और मुख्य सड़कों पर धूल नियंत्रण पर ध्यान देने का निर्देश दिया; और पुरानी गाड़ियों, नियमों का पालन न करने वाले उद्योगों और लैंडफिल तथा सड़क की धूल की सफाई पर भी जोर दिया.
दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने 6 दिसंबर को वायु प्रदूषण कम करने के लिए रिटायर केंद्रीय पर्यावरण सचिव लीना नंदन की अगुआई में एक एक्सपर्ट ग्रुप बनाया. इस 11-सदस्यीय ग्रुप में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के रिटायर अधिकारी और आइआइटी के प्रोफेसर शामिल हैं. नंदन ने इंडिया टुडे को बताया कि इस ग्रुप को ''वैज्ञानिक समाधानों के साथ-साथ दूसरे कामों पर भी चर्चा करने और कई व्यावहारिक, लागू करने लायक सुझाव देने'' का काम सौंपा गया है.
विडंबना यह है कि दिल्ली यह सब पहले भी देख-सुन चुकी है. पिछली आम आदमी पार्टी सरकार ने तो अपनी उपलब्धियों का ढोल खूब पीटा था. मसलन, कोयला संयंत्र बंद करना, उद्योगों को पाइप वाली प्राकृतिक गैस पर शिफ्ट करना, हरियाली बढ़ाना वगैरह. आजकल दिल्ली में वाकई कम कोयला जलता है, कई फैक्ट्रियां अब साफ ईंधन इस्तेमाल करने लगी हैं. लेकिन यही दिल्ली का विरोधाभास है: किसी भी शहर में हवा साफ करने के लिए इतना कुछ नहीं हुआ, फिर भी दिल्ली की हवा बदतर होती गई.
दरअसल एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआइ) में जिन आठ प्रदूषक तत्वों को मापा जाता है, उसमें सबसे खतरनाक पीएम 2.5 यानी 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम ब्यास वाले छोटे-छोटे कण हैं. सर्दियों में तापमान गिरने से प्रदूषित हवा नीचे यानी जमीन के करीब जमा हो जाती है तो दिल्ली के वायु प्रदूषण में ये कण 60 फीसद तक होते हैं. इस साल सीपीसीबी ने कुछ दिनों तक पीएम10 करीब 400 और पीएम2.5 लगभग 600 होने का अनुमान लगाया था, जिस स्तर पर यूरोप या दूसरे विकसित देशों में शहर बंद कर दिए जाते हैं.
फिर भी सरकार का कहना है कि हालात सुधर रहे हैं. केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस महीने लोकसभा में बताया, ''दिल्ली में पिछले आठ साल में सबसे कम औसत एक्यूआइ दर्ज किया गया है. दिल्ली में अच्छे दिनों (जब एक्यूआइ 200 से कम हो) की संख्या 2016 में 110 से बढ़कर 2025 में 200 दिन हो गई है. इस साल एक्यूआइ में कुल मिलाकर सुधार हुआ है, बहुत खराब दिन (एक्यूआइ: 301-400) और गंभीर दिन (एक्यूआइ 401 से ज्यादा) 2024 में 71 दिनों से घटकर 2025 में 50 दिन हो गए हैं.'' यह डेटा इस बात को छिपाता है कि सीपीसीबी के डेटा के अनुसार, राजधानी में 2019 के बाद से लगातार 'बहुत खराब' हवा वाले दिनों की सबसे लंबी अवधि दर्ज की गई, जिसमें 6 नवंबर से शुरू होकर 23 दिनों तक एक्यूआइ 300 से ऊपर रहा.
तो, दिल्ली में कहां गड़बड़ी हो रही है? और क्या करने की जरूरत है?
राजधानी में कार-कहर
अभी भी दिल्ली की धुंध भरी हवा में गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण सबसे बड़े गुनहगारों में है. उसके साथ उद्योगों से निकलने वाले धुआं (पहले कोयला संयंत्रों से निकलने वाला धुआं भी था) और निर्माण गतिविधियों की धूल है. सुप्रीम कोर्ट के 15 साल या उससे ज्यादा पुरानी पेट्रोल कारें और 10 साल या उससे ज्यादा पुरानी डीजल गाड़ियां को सड़कों से हटाने के निर्देश का पालन कम, उल्लंघन ही ज्यादा होता है. अगर पालन हुआ होता, तो 2018-2021 के बीच 47.5 लाख ऐसी गाड़ियों का पंजीकरण खत्म हो गया होता. उसके बजाए, सिर्फ 29.8 लाख गाड़ियां ही हटाई गईं. आज, एनसीआर में 1.06 करोड़ गाड़ियां उम्र सीमा से अधिक साल की हैं. इससे भी बुरा यह है कि दिल्ली की नई सरकार ने इस मुहिम पर रोक लगा दी, और उम्र सीमा को 'मनमाना' और 'अवैज्ञानिक' बताया. अगस्त में उसने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि फिटनेस, न कि गाड़ी की साल से तय करना चाहिए कि सड़क पर चलने लायक है या नहीं.

लेकिन दिक्कत बड़ी है? दिल्ली में सिर्फ एक ऑटोमेटेड फिटनेस सेंटर झुलझुली में है, जहां सालाना सिर्फ 48,000 गाड़ियों का टेस्ट किया जा सकता है. जानी-मानी ऑटोमोटिव मार्केट रिसर्च तथा फोरकास्टिंग फर्म एसऐंडपी ग्लोबल मोबिलिटी के गौरव वंगाल कहते हैं, ''अगर गाड़ियों की उम्र पैमाना नहीं है, तो सरकार बताए कि गाड़ियों को कैसे आंका जाए, क्या विकल्प और मददगार इन्फ्रास्ट्रक्चर क्या हैं.''
फिर, एक बड़ा घोटाला पीयूसी यानी प्रदूषण नियंत्रण सर्टिफिकेट है. नियंत्रक और महालेखाकार (सीएजी) के 2023 के ऑडिट से पता चला कि 1,08,000 से ज्यादा गाड़ियों को उत्सर्जन टेस्ट में फेल होने के बावजूद पीयूसी सर्टिफिकेट जारी किए गए. लगभग 76,865 सर्टिफिकेट एक मिनट से भी कम समय में जारी किए गए, जो डीजल गाड़ियों के मामले में नामुमकिन है क्योंकि उन्हें कई थ्रॉटल साइकिल की जरूरत होती है. 7,643 मामलों में एक ही उपकरण से एक साथ कई गाड़ियों का 'टेस्ट' करता हुआ दिखाया गया.
निजी ऑपरेटरों के पीयूसी सेंटर सिर्फ रबड़-स्टैंप काउंटर बनकर रह गए हैं. दिल्ली परिवहन विभाग इस पर ध्यान नहीं देता और एक करोड़ से ज्यादा गाड़ियों वाले शहर को नकारा प्रदूषण जांच के आसरे छोड़ दिया है. एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसपोर्ट डेवलपमेंट के वरिष्ठ फैकल्टी तथा दिल्ली के पूर्व परिवहन उपायुक्त अनिल छिकारा कहते हैं, ''पीयूसी ऑपरेटर पीयूसी सॉफ्टवेयर में कमियों का फायदा उठाने के लिए हैकरों की मदद लेते हैं. उसे डालने के बाद उत्सर्जन डेटा में हाथ से फेरबदल कर सर्टिफिकेट जारी करना संभव हो जाता है. हैकर इसके पेन ड्राइव सिर्फ 5,000 रुपए में बेचते हैं. सिर्फ प्रदूषण ही नहीं, फिटनेस सर्टिफिकेट में भी धांधली होती है.''
दिल्ली में सबसे ज्यादा कहर गाड़ियों में भारी बढ़ोतरी है. राजधानी में 1.52 करोड़ पंजीकृत गाड़ियां हैं, जो एनसीआर में 2.97 करोड़ गाड़ियों का लगभग आधा है. पुरानी गाड़ियों के साथ बड़ी संख्या में गाड़ियों की एक बड़ी वजह भरोसेमंद सार्वजनिक परिवहन की भारी कमी है. दिल्ली में 15,000 बसों की जरूरत है. अभी सिर्फ 2,789 इलेक्ट्रिक बसें हैं—1,950 दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) के तहत और 839 दिल्ली इंटीग्रेटेड मल्टीमॉडल ट्रांसपोर्ट सिस्टम (डीआइएमटीएस) के तहत. लेकिन पर्याप्त ईवी डिपो, चार्जिंग पॉइंट या पार्किंग स्थल नहीं हैं. 3,444 सीएनजी बसें (1,694 डीटीसी के तहत, 1,750 डीआइएमटीएस के तहत चलती हैं) 2030 तक धीरे-धीरे हटा दी जाएंगी.
हालांकि 394 किमी लंबी दिल्ली मेट्रो दिल्लीवालों के लिए वरदान साबित हुई है. लेकिन मेट्रो बसों का विकल्प नहीं हो सकती है; उसके लिए फीडर सेवाओं की जरूरत है. दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन के कार्यकार निदेशक अनुज दयाल कहते हैं, ''अच्छी फीडर सेवाएं और बढ़ते नेटवर्क से ज्यादा सवारी मेट्रो की तरफ जाएगी.''
विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली में गाड़ियों पर उम्र की सीमा के हिसाब से प्रतिबंध के बदले विज्ञान सम्मत कम उत्सर्जन का नियम लागू किया जाए. इसके साथ पुरानी तथा ज्यादा धुआं छोड़ने वाली गाड़ियों के लिए उदार कैश फॉर स्क्रैप और कुछ घाटे का सौदा जैसी योजना लाई जानी चाहिए. पीयूसी केंद्रों के मामले में हांगकांग और चीन की तरह हाइवे पर रिमोट सेंसिंग उपकरण लगाए जाने चाहिए. ये उपकरण अधिक धुआं छोड़ने वाली गाड़ियों की पहचान करके स्वत: जुर्माना ठोंक देंगे. सरकार को अपने ईवी संबंधी वादे को भी पूरा करना चाहिए. मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ऐलान कर चुकी हैं कि 2026 तक सार्वजनिक परिवहन में सौ प्रतिशत इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए नई योजना लाई जाएगी. सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट, और दूसरे विशेषज्ञ एक-दूसरे से जुड़ी मेट्रो और बस सेवाओं की सलाह देते हैं, जिसमें सभी में एक जैसे किराए और हर किसी को मुकाम तक पहुंचाने की व्यवस्था हो.
औद्योगिक धुएं की काली छतरी
कागज पर तो दिल्ली को हरे-भरे चमत्कार जैसा दिखाया गया है. यहां की लगभग सभी 1,600 पंजीकृत फैक्ट्रियां अब साफ पाइप वाली प्राकृतिक गैस से चलती हैं. हालांकि, इसमें बहुत बड़ी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था छिपा दी जाती है. दिल्ली स्टेट इंडस्ट्रियल ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के रिकॉर्ड से पता चला है कि अनुमानित 51,837 अवैध औद्योगिक इकाइयां बेरोक-टोक चल रही हैं, जिनमें कई 'गैर-औद्योगिक' इलाकों के बेसमेंट और पीछे की गलियों में स्थित हैं. शिव विहार और सीलमपुर की रंगाई इकाइयों से लेकर मुंडका के ई-कचरा गोदाम और बवाना की फैक्ट्रियों तक, ये कारखाने धड़ल्ले से डीजल जेनरेटर पर चलते हैं.
कार्रवाई सिर्फ दिखावे की हुई है. 2024 में 12 सदस्यों वाले विशेष कार्यबल के बावजूद मई से जून 2025 तक सिर्फ 276 इकाइयों को सील किया गया. पूर्व केंद्रीय पर्यावरण सचिव सी.के. मिश्रा के कार्यकाल में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) तैयार हुआ था. वे कहते हैं, ''अब पीएनजी का इस्तेमाल करने वाली हर इकाई की जगह दो गैर-कानूनी इकाइयां कचरा जला रही हैं. ये इकाइयां रडार से बाहर होती हैं, तो अधिकारी दावा कर सकते हैं कि वे मौजूद ही नहीं हैं.''
विशेषज्ञों का कहना है कि अनौपचारिक उद्योग पर पाबंदी के लिए एलआइडीआर ड्रोन जैसे उपकरण से लगातार डिजिटल निगरानी की जाए. इसके साथ सरकार ऐसे कारखानों को पीएनजी इस्तेमाल करने के लिए एक बारगी नियमित करने की योजना लाए.
धूल-धक्कड़ का धमाल
लगातार निर्माण गतिविधियों और धूल-मिट्टी का दिल्ली के पीएम10 स्तर में 35-40 फीसद का योगदान है, जो मोटे प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है. जैसे-जैसे एनसीआर बढ़ रहा है, एक्सप्रेसवे, मेट्रो लाइन और हाउसिंग टावरों का फैलाव हो रहा है, धूल कभी बैठती ही नहीं. दिल्ली ब्राउनफील्ड डिमोलिशन यानी पहले के ढांचों को तोड़कर पुनर्निमाण से बढ़ती रही है. मतलब यह कि नोएडा या गुरुग्राम जैसे ग्रीनफील्ड शहरों के उलट; यहां प्रति वर्ग फुट ज्यादा कचरा पैदा होता है. सिर्फ एनबीसीसी के पुनर्निमाण प्रोजेक्ट से 15,000 फ्लैट जुड़ेंगे.

दिल्ली के पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा कहते हैं, ''हमारे पास 1,800 अधिकारी हैं जो जगहों पर नियमों का पालन करवाते हैं. हम पानी के छिड़काव, निर्माण सामग्रियों के ढकी हुई ढुलाई, बड़ी साइटों के लिए ऐंटी-स्मॉग गन और पोर्टल रजिस्ट्रेशन की जांच करते हैं.'' नियम तो हैं, लेकिन समस्या अमल की है. एनजीओ टॉक्सिक्स लिंक के पर्यावरणविद् रवि अग्रवाल कहते हैं, ''कमजोर निगरानी वजह से लगातार निर्माण की इजाजत मिल जाती है.'' शहर रोजाना 6,000 टन निर्माण संबंधी कचरा पैदा करता है, लेकिन सिर्फ 5,000 टन ही संशोधित हो पाता है. यानी रोजाना लगभग 1,000 टन कचरा बच जाता है.
दिल्ली में मुख्य सड़कों को साफ करने के लिए सिर्फ 52 मशीनें हैं. कॉलोनियों के अंदर झाड़ू लगाने से भी धूल उड़ती है. शहर रोजाना 11,332 टन कचरा पैदा करता है, लेकिन सिर्फ 8,213 टन ही प्रोसेस हो पाता है. बाकी लैंडफिल पहाड़ों में जमा होता है. गाजीपुर (67 मीटर), भलस्वा (62 मीटर), ओखला (30 मीटर) में कचरा जलता है और मिथेन गैस निकलती है.
डेवलपरों को ''धूल नियंत्रण बॉन्ड'' दिए जाएं, जो निर्माण शुरू होने के पहले बड़ी रकम में बेचे जाएं और पर्यावरण मानक के उल्लंघन पर जब्त कर लिए जाएं. शहरी कचरे के मामले में दिल्ली में एक जगह पहाड़ खड़ा करने के बदले वार्ड स्तर पर कचरा प्रोसेस किया जाए और गीले कचरे को उसके स्रोत पर ही नष्ट किया जाए. सरकार अतिरिक्त उत्पादक जवाबदेही के नियम भी लागू कर सकती है, ताकि कंपनियां अपने कचरे को इकट्ठा करें और रीसाइक्लिंग करें.
पराली पीड़ा
भले सरकार दावा करे कि इस साल खेतों में पराली जलाने की घटनाएं 2023 के 54,727 से घटकर 27,720 हो गईं, लेकिन इस कमी का असर दिल्ली की हवा में नहीं दिखा. इसका एक कारण समय और पता लगाने का तरीका है. अशोका यूनिवर्सिटी की 2022 के एक अध्ययन में बताया गया कि नासा के सैटेलाइट सुबह 10:30 बजे से दोपहर 2:30 बजे तक ही आग लगने का पता लगाते हैं, लेकिन कई किसान अंधेरा होने के बाद पराली जलाते हैं. अध्ययन का अनुमान है कि करीब एक-चौथाई मामले दर्ज नहीं हो पाते. इसरो का अध्ययन भी किसानों के शाम में पराली जलाने की गवाही देता है. जिओस्टेशनरी डेटा से पता चलता है अब पराली ज्यादातर शाम 3 बजे के बाद जलाई जाती है.
यह हाल तब है जब पंजाब और हरियाणा को केंद्र सरकार की सब्सिडी के तहत 2,00,000 से ज्यादा पराली प्रबंधन मशीनें मिली हैं. लेकिन बुवाई की छोटी अवधि, मजदूरों की कमी, डीजल से चलने वाली मशीनें, खराब प्रबंधन और जवाबदेही न होने की समस्याएं बनी हुई हैं. हालांकि सीएसई की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉयचौधरी का कहना है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण में पराली जलाने का धुआं तो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. वे कहती हैं, ''दिल्ली-एनसीआर अब इस धुएं की आड़ में नहीं छिप सकता.''
जानकार यह भी सलाह देते हैं कि रात में पराली जलाने पर रोक लगाने और आंकड़ों की कमी को दूर करने के लिए देश को 24 घंटे निगरानी रखने वाले जियोस्टेशनरी सैटेलाइट का इस्तेमाल करना चाहिए. सब्सिडी उपकरण खरीदने के बदले ऑपरेटिंग और डेप्रिसिएशन मदद पर देनी चाहिए, ताकि किसानों के हाथ में पैसा हो और वे बिना जलाए हर एकड़ का प्रबंध कर सकें. किसानों को धान की खेती से दूर ले जाने के लिए एक समान एमएसपी व्यवस्था लागू की जाए.

डेटा-छुपा क्षेत्र की समस्या
यही नहीं, रॉयचौधरी दिल्ली के 1,500 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा की हवा गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क के दायरे से छूटे हुए इलाकों पर जोर देती हैं. शहर के 40 एक्यूआइ मॉनिटरिंग स्टेशन मध्य और दक्षिण दिल्ली में फैले हुए हैं, जबकि शहर के बड़े हिस्से—जैसे उत्तर-पूर्वी दिल्ली और मुंडका-बवाना-नरेला जैसे औद्योगिक क्षेत्र की मॉनिटरिंग नहीं होती है. सीएजी की ऑडिट में यह भी पाया गया कि उनमें 13 स्टेशन 'गलत जगह' पर यानी किसी पेड़, बिल्डिंग या चौराहे के बहुत पास हैं, जिससे गलत रीडिंग मिल रही है. सरकार को गैर-निगरानी वाले औद्योगिक और दूर के इलाकों के लिए सस्ते सेंसरों का इंतजाम करना चाहिए, जो संबंधित स्टेशनों की मदद करें. सालाना स्वतंत्र ऑडिट की जानी चाहिए कि ये सेंसर पेड़ों की छांव में तो नहीं हैं, जिनसे एक्यूआइ रीडिंग कमतर आती है.
सरकार ने 2020 में एक नियामक कमिशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट (सीएक्यूएम) बनाया. उसे राज्य सरकार को नजरअंदाज करने और उस पर जुर्माना लगाने की शक्तियां दी गईं. लेकिन उसके पास फैसले लागू कराने की कोई ताकत नहीं है, वह इसके लिए राज्य सरकारों पर ही निर्भर है. सो, यह राज्य बोर्डों के समर्थन के बिना गाड़ियां जब्त नहीं कर सकता, भट्टे बंद नहीं करवा सकता या उल्लंघन करने वालों पर मुकदमा नहीं चला सकता. कमिशन जो ग्रैप उपाय लेकर आया, उसका अमल भी दूसरे हाथों में है. केंद्र सरकार ने कमिशन को शक्तियां दीं, मगर अमल के तरीके नहीं बताए. कमिशन को कारगर होने के लिए उसके पास अमल की ताकत, अपना कार्यबल और राज्य प्रदूषण बोर्डों को नजरअंदाज करने का अधिकार होना चाहिए. उसके पास स्वच्छ हवा के नियमों को लागू कराने में नाकाम अधिकारियों को दंडित करने का अधिकार होना चाहिए, ताकि राजनैतिक ढाल आड़े न आए, जो उनकी नाकामी की एक वजह है.
प्रदूषण से कैसे निबटा जा सकता है, यह बीजिंग से सीखा जा सकता है. जनवरी 2013 में चीन की राजधानी में दिल्ली जैसी ही जानलेवा 'एयरपोकैलिप्स' जैसी स्थिति हो गई थी. पीएम2.5 का स्तर 886 तक पहुंच गया था. उससे निबटने के लिए चीन ने 2014 में प्रदूषण के खिलाफ 'युद्ध' का ऐलान किया. उसके तहत बीजिंग ने अपनी नौकरशाही की प्रोत्साहन राशि व्यवस्था को पर्यावरण ऑडिट से जोड़ दिया. लक्ष्य पूरा न करने पर पद से हटाया जा सकता था. उसके बाद ''वैज्ञानिक, सटीक, कानून-आधारित'' प्रशासन के शानदार नतीजे मिले. 2023 तक, बीजिंग सालाना पीएम2.5 का स्तर 64 फीसद से ज्यादा कम करने, भारी प्रदूषण वाले दिनों को 58 से घटाकर कुछ ही करने, कोयला प्लांट बंद करने और कोयले की खपत को 95 फीसद से ज्यादा घटाने में सफल रहा. वहां दुनिया की सबसे सख्त वाहन कोटा प्रणाली लागू की गई, जिससे पेट्रोल कार लाइसेंस मिलने की संभावना घटकर 2,031 से 1 हो गई. साथ ही, बीजिंग ने अपने सबवे सिस्टम में नई लाइनें जोड़ीं, जिससे कुल संख्या 27 हो गई, जो दुनिया का सबसे लंबा सबवे सिस्टम बन गया और यात्रियों को असली विकल्प मिला. पराली जलाने पर अंकुश लगाने के लिए, सरकार ने आग लगाने पर रोक लगा दी और 90 फीसद पुआल को खाद और ऊर्जा में बदलने के लिए इंसेंटिव दिए.
कोई नहीं चाहता चीन की सीख
राजधानी की नीतियां बनाने वालों का कहना है कि दिल्ली में ऐसे कड़े कदम मुमकिन नहीं हैं. इसके बजाए कई टेक्नो-फिक्स चुने गए हैं, जो देखने में तो प्रभावी लगते हैं लेकिन उनके नतीजे थोड़े हैं. मसलन, स्मॉग टावर 100 मीटर के दायरे में प्रदूषण को सिर्फ 12-13 फीसद कम करते हैं. ऐंटी-स्मॉग गन बंद जगहों पर काम आती है, खुली सड़कों पर बेकार है. ऑड-ईवन स्कीम राजनैतिक रूप से आकर्षक थी, लेकिन उससे सिर्फ थोड़ी देर के लिए राहत मिली. सिरसा का आरोप है, ''यह केजरीवाल का दिखावा था, विज्ञापनों पर 20 करोड़ रुपए खर्च करने का बहाना था.'' उनकी सरकार ने आइआइटी कानपुर के साथ मिलकर क्लाउड सीडिंग की कोशिश की, लेकिन इस अक्तूबर में कम नमी के कारण यह तीन बार फेल हो गई. अब, 5,004 नई ई-बसों, 18,000 ईवी चार्जिंग पॉइंट, 1,000 टन अतिरिक्त सीऐंडडी कचरा प्रोसेसिंग, लैंडफिल की पूरी बायोमाइनिंग, नया वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट और 61 लाख नए पेड़ लगाने का वादा किया गया है. सिरसा का कहना है कि ये सभी 2027 के आखिर तक पूरे हो जाएंगे.
केंद्र ने भी दिल्ली सरकार की कोशिशों में अपना पूरा वजन डाल दिया है. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा, ''अगले साल के लिए एक विस्तृत योजना अभी तैयार कर लेनी चाहिए. हमने दिल्ली सरकार से अगले साल के लिए पूरी योजना तैयार करने को कहा है.''
लेकिन दिल्ली के पास अपनी हवा को साफ करने की योजना की कभी कमी नहीं रही, बस कमी रही है उस पर अमल करने की. शहर 2019 से 2024 के बीच एनसीएपी के तहत प्रदूषण से निबटने के लिए दिए गए मामूली 42.69 करोड़ रुपए भी खर्च नहीं कर पाया. इस पर करीब 13.94 करोड़ रुपए खर्च हो पाए. एमसीडी साफ हवा के फंड का सबसे खराब खर्च करने वाला रहा; उसने 2023-24 में अपने दिए गए ग्रीन फंड का 15 फीसद से कम और 2024-25 में 5 फीसद से भी कम खर्च किया. उसका ज्यादातर हिस्सा बेमानी-सा सड़क-धूल बैठाने के लिए पानी छिड़काव और मशीनी सफाई पर खर्च किया गया.
फिर भी, जैसा कि सी.के. मिश्रा बताते हैं, ''किसी भी नौकरशाह को प्रदूषण कम करने के नियम लागू न करने पर कभी सजा नहीं मिलती. और साफ हवा के नाम पर कोई वोट नहीं देता, न कोई वोट मांगता है.'' और सबसे कड़वी सच्चाई? दिल्ली वाले खुद बदलाव का विरोध करते हैं. ''कोई भी अपनी कारें छोड़ना नहीं चाहता; या घरों का पुनर्निमाण रोकना नहीं चाहता वगैरह. आप कुछ त्याग किए बिना दिल्ली की हवा साफ नहीं कर सकते.'' क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
दिल्ली के प्रदूषण पर केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव से बातचीत :
''दिल्ली-एनसीआर में कई तरह की समन्वय की जरूरत'' - भूपेंद्र यादव
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव अभिषेक जी. दस्तीदार के साथ खास बातचीत में कहते हैं कि केंद्र सरकार प्रदूषण कम करने के लिए 'विविध सरकारी समन्वय' वाली रणनीति पर काम कर रही है. बातचीत के प्रमुख अंश:

• दिल्ली में प्रदूषण घुटन पैदा कर रहा है. इस हर साल दोहराने वाले चक्र को कैसे तोड़ें?
नीतिगत कदमों की वजह से पिछले कुछ बरसों में दिल्ली-एनसीआर की हवा पहले से बेहतर हुई है. 2016 में जहां 110 दिन अच्छे (एक्यूआइ
• एनसीआर में सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
सबसे बड़ी जरूरत है दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और अलग-अलग केंद्रीय मंत्रालयों के बीच कई स्तरों पर समन्वय की. उसमें राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी)/प्रदूषण नियंत्रण समिति (पीसीसी), नगर निकाय जैसे कई राज्य और केंद्रीय एजेंसियां भी शामिल हैं. इन सबके मिलकर काम किए बिना तमाम कोशिशें बिखरी हुई हैं और नतीजा खास निकल नहीं पाता या बहुत कम निकलता है. इसलिए 'विविध सरकारी समन्वय' वाला अप्रोच जरूरी है, जो योजनाओं पर अमल करने के लिए सबको जोड़े, तकनीक का उपयोग बढ़ाए और आम लोगों की इस लड़ाई में भागीदारी तय करे.
मसलन, लगातार कोशिशों से पराली जलाने की घटनाएं पंजाब और हरियाणा में लगभग 90 फीसद घट गई हैं, 2022 में 53,554 से घटकर 2025 में 5,771 घटनाएं ही हुई हैं. एनसीआर में सबसे बड़े गुनहगार हैं वाहन और कंस्ट्रक्शन/डिमोलिशन (सीऐंडडी) गतिविधियां. हम सीऐंडडी वेस्ट प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ा रहे हैं और रीसाइकल सामान का इस्तेमाल निर्माण में बढ़ा रहे हैं. सरकार ई-वाहन और चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर को पीएम ई-ड्राइव जैसी योजनाओं से बढ़ावा दे रही है. 2,800 इलेक्ट्रिक बसें जोड़ी जा रही हैं, इंटरसिटी पब्लिक ट्रांसपोर्ट को क्लीन फ्यूल पर शिफ्ट किया जा रहा है और प्रदूषण फैलाने वाले कमर्शियल वाहनों की एंट्री बैन है.
औद्योगिक प्रदूषण के लिए सीपीसीबी (केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड) और एसपीसीबी लाल श्रेणी और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर ऑनलाइन कन्टीन्यूअस एमिशन मॉनिटरिंग सिस्टम्स (ओसीईएमएस) के जरिए लगातार निगरानी रख रहे हैं. दिल्ली-एनसीआर में अब तक 1,297 उद्योग ओसीईएमएस लगा चुके हैं और सीपीसीबी/ एसपीसीबी पोर्टल से जुड़े हैं. बाकी को लगाने के लिए सीपीसीबी लगातार दबाव बना रहा है.
• भारत आर्थिक चुनौतियों और पर्यावरण संबंधी जरूरतों के बीच संतुलन कैसे बनाए?
अर्थव्यवस्था और पर्यावरण, दोनों को साथ चलना होगा. हमारे लोगों की विकास आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ोतरी जरूरी है. लेकिन प्रदूषण नियंत्रण में खुद से सक्रियता, जवाबदेही, सख्त निगरानी और जनता की भागीदारी बेहद जरूरी है. इन्हीं के सहारे हम अपने लक्ष्य हासिल कर सकते हैं.

