जब अमेरिकी वित्त विभाग ने रूस की तेल दिग्गज कंपनियों रोसनेफ्ट और लूकऑयल पर प्रतिबंध लगाए तो इस झटके की लहरें मॉस्को से नई दिल्ली तक महसूस की गईं. इस कदम ने 2022 से लागू तीन साल के उस समीकरण का मूल ही गड़बड़ा दिया, जिसने भारत की रिफाइनिंग में धार पैदा की थी—सस्ता रूसी कच्चा तेल, आसान भुगतान और रिकॉर्ड मार्जिन.
मगर अब यह सुकून छिन रहा है. 2025 तक भारत के आयात में रूसी कच्चे तेल का हिस्सा 35 प्रतिशत पहुंच चुका है जिसमें से लगभग आधा अकेले रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआइएल) के हिस्से आया है. चूंकि वाशिंगटन के नए प्रतिबंधों में रूस के तेल निर्यात नेटवर्क में मददगार कंपनियों को निशाना बनाया गया है और इस तरह के व्यापार आसान बनाने वाले वैश्विक बैंकों और बीमा कंपनियों को चेतावनी दी गई है, ऐसे में भारत के लिए तेल पर फिसलन किसी बड़े झटके से कम नहीं है.
रिफाइनरी कंपनियों को मौजूदा सौदों को पूरा करने के लिए 21 नवंबर तक का समय दिया गया है. लिहाजा, उन्होंने विकल्पों की तलाश शुरू भी कर दी है. रूसी और गैर-रूसी कच्चे तेल की कीमतों में अंतर 2 डॉलर से 12 डॉलर प्रति बैरल के बीच है.
बाजार के अनुमान बताते हैं कि रूसी तेल की जगह पश्चिम एशियाई या अटलांटिक बेसिन ग्रेड का क्रूड लेने से भारत पहुंचने वाले तेल की लागत 2-3 डॉलर प्रति बैरल बढ़ सकती है. इस कारण देश के वार्षिक आयात बिल में 6-8 अरब डॉलर (5.3 लाख करोड़ रुपए 7 लाख करोड़ रुपए) का इजाफा हो सकता है. प्रति बैरल एक अतिरिक्त डॉलर बढ़ने पर भारत के तेल आयात खर्च में लगभग 10,000 करोड़ रुपए की वृद्धि हो जाती है.
दबाव और बढ़ाते हुए यूरोपीय संघ ने जनवरी 2027 से रूसी लिक्विफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) के आयात पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है, जिससे वैश्विक ऊर्जा के समीकरणों में और अधिक बदलाव आ सकता है. जिन सप्लायरों पर भारत निर्भर है, यूरोपीय यूटिलिटीज यानी बिजली या गैस कंपनियां भी उनकी ओर—कतर, अमेरिका और अफ्रीका—मुड़ रही हैं. यह प्रतिस्पर्धा तेल के दाम बढ़ा रही है. विश्लेषकों का अनुमान है कि भारत में एलएनजी की लागत 1-2 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू (मीट्रिक मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) बढ़ सकती है, जिससे उर्वरक से लेकर बिजली तक के क्षेत्र प्रभावित होंगे.
रिफाइनिंग रणनीति
पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी आश्वस्त हैं. उनका कहना है कि वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की पर्याप्त आपूर्ति है और एक स्रोत से होने वाली रुकावटों को दूसरे माध्यम से दूर किया जा सकता है. लेकिन भारत को नए कच्चे तेल के हिसाब से रिफाइनरियों में आवश्यक समायोजन करने होंगे. इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (आइओसी) के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक अरविंदर सिंह साहनी ने इंडिया टुडे को बताया कि कंपनी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लगाए सभी प्रतिबंधों का पालन करेगी.
उनके अधिकारियों ने बाद में स्पष्ट किया कि रूस से भारत के समुद्री कच्चे तेल के आयात में रोसनेफ्ट और लूकऑयल की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत है. सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी के निदेशक (वित्त) अनुज जैन ने कहा, ''जब तक हम प्रतिबंधों का पालन करते हैं, रूसी कच्चे तेल की खरीद बिल्कुल बंद नहीं करेंगे. प्रतिबंध रूसी कच्चे तेल पर नहीं बल्कि कंपनियों और तेल ढोने वाली फर्मों पर है.'' भारत में हर रोज की तेल खपत लगभग 56 लाख बैरल है, यह आंकड़ा आने वाली तिमाहियों में बढ़कर 60 लाख बैरल हो जाने की उम्मीद है. इसमें से लगभग 17.5 लाख बैरल तेल इस समय रूस से आता है.
ऐसा नहीं कि नई दिल्ली को इसकी भनक नहीं थी. 9 सितंबर को पुरी के मंत्रालय ने एक अंतर-मंत्रालयी कार्य समूह का गठन किया. उसने 2 अक्तूबर को आंतरिक परामर्श जारी किया जिसमें सिफारिश की गई कि रिफाइनरियां पश्चिम एशिया के सप्लायरों के साथ सावधि अनुबंध 15 प्रतिशत बढ़ाएं और अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका से हाजिर खरीद बढ़ाएं. सरकारी और निजी दोनों ही रिफाइनरियों ने अपनी आपूर्ति घटा दी.
विविधता लाने की इस कोशिश से यूक्रेन युद्ध से पूर्व के ऊर्जा मिश्रण की ओर भारत के लौटने का संकेत मिलता है—60 प्रतिशत पश्चिम एशिया, 15 प्रतिशत अफ्रीका, 10 प्रतिशत लैटिन अमेरिका और मुश्किल से 2 प्रतिशत रूस. 2022 के बाद यह स्थिति उलट गई, जब अपने चरम पर सस्ते रूसी कच्चे तेल का भारत के आयात में लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा था.
अधिकारियों ने यूएस डब्ल्यूटीआइ (अमेरिकी तेल कीमतों का बेंचमार्क संकेतक) कच्चे तेल का आयात बढ़ाने की संभावनाएं खंगाली हैं, लेकिन इस तेल का अर्थशास्त्र गड़बड़ है. पेट्रोलियम मंत्रालय के एक अधिकारी का कहना है, ''अमेरिकी पोत को भारत पहुंचने में 45 दिन लगते हैं जबकि खाड़ी से तीन दिन में आ जाता है. ढुलाई की लागत के कारण कीमतों का फायदा नहीं मिल पाता.'' सरकार की मूल्य सीमा के तहत काम करने वाले सरकारी रिफाइनरों को मार्जिन पर तुरंत झटका लगा है.
आइओसी, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल) और भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) ने पहले प्रशासन और अनुपालन कारणों से रूसी ग्रेड में सीमित सौदे किए थे. अब उन्होंने पहले ही कदम उठा लिए हैं—छूट घटने और वाशिंगटन के दबाव बढ़ाने पर उन्होंने नए रूसी तेल की खरीद रोक दी या तेजी से घटा दी.
मार्जिन पहले से ही घट रहे थे. आइओसी का सकल रिफाइनिंग मार्जिन (जीआरएम) वित्त वर्ष 26 की पहली तिमाही में गिरकर 8.2 डॉलर प्रति बैरल रह गया जो एक साल पहले 13 डॉलर था. एचपीसीएल और बीपीसीएल ने भी इसी तरह की गिरावट दर्ज की. वैश्विक डीजल की कीमतों में स्थिरता आने से रिलायंस का निर्यात लाभ भी सिकुड़ा है. हालांकि रिलायंस और अन्य निजी कॉम्प्लेक्स रिफाइनरियां क्रूड ब्लेंड और अन्य उत्पादों से भरपाई कर सकती हैं और जीआरएम को 9-10 डॉलर प्रति बैरल के आसपास रखते हुए इसका असर आंशिक रूप से घटा सकती हैं, लेकिन पीएसयू के पास ऐसा लचीलापन नहीं है.
यूक्रेन युद्ध के साथ शुरू हुआ 'सुपर मार्जिन' का दौर खत्म हो रहा है. सरकारी रिफाइनरियों का नकद मुनाफा पहले से ही कम है और इसमें और भी कमी आ सकती है. भारत ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को 2010 से नियंत्रण मुक्त कर दिया, पर महंगाई काबू रखने के लिए घरेलू मूल्य निर्धारण का प्रबंधन जारी है.
क्रूड की कूटनीति
पुरी के लिए अब बड़ी चुनौती भू-राजनीतिक हालात के साथ नए सिरे से तालमेल बनाना और पड़ोस के पुराने तेल संबंधों को सक्रिय रूप से फिर से बहाल करना है. लगभग 19 प्रतिशत बाजार हिस्सेदारी के साथ सऊदी अरब भारत का दूसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल सप्लायर बना हुआ है.
रियाद ने ज्यादा लचीली कीमतों का संकेत दिया है लेकिन बदले में कुछ चाहता है—सऊदी कच्चे तेल के लिए लंबी अवधि के सौदों की गारंटी. इसी से दिल्ली कतरा रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मोहम्मद बिन सलमान के साथ व्यक्तिगत संबंध हैं, लेकिन ऊर्जा क्षेत्र में गतिरोध का कांटा बना हुआ है.
भारत को अब तेल की ऐसी दुनिया में किफायत, सुरक्षा और कूटनीति में संतुलन बनाने की जरूरत है जहां हर बैरल के साथ शर्तें होती हैं. रिफाइनरियों को मंत्रालय के निर्देश स्पष्ट हैं—प्रचुर भंडार बनाएं, ढुलाई लागत सुरक्षित करें और लचीलापन सुनिश्चित करें—भले ही लागत अधिक क्यों न हो. एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा भी, ''नीति के तौर पर हम अब छूट पर निर्भर नहीं रह सकते.''

