
जरा सोचिए कि 200 किमी/घंटा की रफ्तार वाली टेस्ला कार खरीदें, और गड्ढों से गुजरते हुए ऑटो-रिक्शा की भीड़भाड़ में वह महज 20 किमी/घंटा की रफ्तार से रेंग पाए तो क्या कहेंगे. ट्रैफिक में घुसते ही लाजवाब इंजीनियरिंग का रोमांच गायब हो जाता है.
देश की बहुचर्चित प्रमुख ट्रेन वंदे भारत एक्सप्रेस में सफर करने का अनुभव बिल्कुल ऐसा ही होता है. उसे डिजाइन तो 180 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ने के लिए किया गया है मगर ट्रैक तथा सुरक्षा के मद्देनजर आधिकारिक तौर पर 160 किमी/घंटा की रफ्तार से चलाने की इजाजत है.
फिर भी, उसके चमचमाते नारंगी रैक औसतन सिर्फ 76 किमी/घंटा की रफ्तार ही पकड़ पाते हैं, जो 1969 में शुरू की गई राजधानी एक्सप्रेस से बमुश्किल थोड़ी ही तेज है. गजब का विरोधाभास है: विश्वस्तरीय तकनीक और खटारा सिस्टम.
वंदे भारत अंदर और बाहर दोनों तरफ से चकाचौंध पैदा करती है. सुघड़ मुखड़ा, हवाई जहाज जैसी सीटें, वाइ-फाइ और चिकना-चुपड़ा इंटीरियर. क्या नहीं हैं. यात्री सेल्फी क्लिक करते हैं, यूरोप की विख्यात हाइ-स्पीड ट्रेनों के भारतीय संस्करण की तरह प्रचारित ट्रेन में चढ़ने के लिए रोमांचित होते हैं. फरवरी 2019 में उसे हरी झंडी दिखाए जाने के बाद से 2.5 करोड़ से ज्यादा लोग वंदे भारत की सवारी कर चुके हैं. हाल ही दिल्ली से कटरा तक की यात्रा कर लौटीं उत्साहित मानसी कहती हैं ''ऐसा लगता है जैसे जमीन पर उड़ रहे हों-बहुत साफ, बहुत मॉडर्न.''
हर 16-कोच सेट की कीमत अब 115-134 करोड़ रुपए के बीच है, जो आम ट्रेन की कीमत से कई गुना ज्यादा है. सरकार की योजना 2047 तक ऐसी 4,500 ट्रेनें चलाने की है जो भारतीय रेल यात्रा के कायाकल्प के लिए अरबों का निवेश करेगी. ट्रायल रन ने 183 किमी/घंटा को भी छू लिया था, जिसे 'मेक इन इंडिया' इंजीनियरिंग की सराहना के रूप में लिया गया. बड़े धूम-धड़ाके से बताया गया कि वंदे भारत के साथ देश हाइ-स्पीड ट्रेनों के दौर में प्रवेश कर जाएगा.
लेकिन यह सपना ही रह गया और 2020-21 में ट्रेन 84.5 किमी/घंटा की रफ्तार ही ले सकी जो 2023-24 तक घटकर 76.25 किमी/घंटा हो गई. रूटों के मुताबिक भी रफ्तार अलग-अलग है. नई दिल्ली-वाराणसी सेवा की औसत गति 95 किमी/घंटा है. जबकि कोयंबत्तूर-बेंगलूरू सिर्फ 58 किमी/घंटा की रफ्तार से चलती है, जो कई आम एक्सप्रेस ट्रेनों से भी धीमी गति है (देखें-स्लो कोच). यहां तक कि अपने सबसे तेज ट्रैक पर, जैसे कि दिल्ली-आगरा लाइन के कुछ हिस्सों में भी ट्रेन कुछ क्षणों के लिए 160 किमी/घंटा की गति ले पाती है और फिर ब्रेक लग जाता है. इस पर अमूमन यात्रा करने वाले 42 वर्षीय सोम बसु कहते हैं, ''मैंने तेज गति के लिए ज्यादा पैसे दिए, लेकिन हम शताब्दी की तुलना में सिर्फ 25 मिनट ही बचा सके. मैं शताब्दी से जा सकता था.'' वंदे भारत का टिकट 1,100 रु. और शताब्दी का 900 रु. का है, ऐसे में उनके जैसे यात्रियों को हैरानी होती है कि समय की बचत के बजाय सिर्फ आराम के लिए इतना पैसा चुकाना कहां तक वाजिब है.
धीमी क्यों है?
वजह पटरियां कभी भी ज्यादा रफ्तार के काबिल नहीं रहीं. देश के 90 फीसद से ज्यादा रेलवे ट्रैक अधिकतम 110 किमी/घंटा रफ्तार के लायक हैं. मोड़, ढलान, पुल वगैरह कभी भी रफ्तार को ध्यान में रखकर नहीं बनाए गए. वर्षों के सुधार और घोषणाओं के बावजूद एक भी कॉरिडोर एक सिरे से दूसरे सिरे तक 160 किमी/घंटा की रफ्तार से चलने के लिए लायक नहीं.
ट्रेनों के वक्त को लेकर भी कई अड़चनें हैं. मरम्मत का मतलब है थोड़ी-थोड़ी दूर पर रुकावट. वंदे भारत के गुजरते समय गैंगमैन पटरियों के पास दुबके बैठे रहते हैं. मालगाड़ियां और धीमी गति से चलने वाली ट्रेनें भी एक ही लाइन पर चलती हैं, तो भीड़भाड़ में तेज रफ्तार ट्रेनें फंस जाती हैं. रेलवे डेटा के इंडिया टुडे के विश्लेषण से पता चलता है कि कैसे रफ्तार की पाबंदियां या अड़चनें ब्रेक लगाने पर मजबूर करती हैं. ग्वालियर-झांसी खंड को ही लें—वंदे भारत को 94-97 किमी/घंटा से ही संतोष करना पड़ता है लेकिन यह आधे से ज्यादा रास्ते पर 130 किमी प्रति घंटा की अपनी अधिकतम गति तक पहुंच पाती है.
आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2025 तक रेल नेटवर्क में करीब अलग-अलग तरह की 17,000 स्पीड की पाबंदियां थीं. 140 से ज्यादा नवनिर्मित खंडों पर परिचालन शुरू होने के वर्षों बाद भी रफ्तार तय योजना से बहुत कम थी. अधिकांश रेलवे डिवीजनों में ट्रैक मेंटेनेंस के लिए जिम्मेदार स्थायी पथ निरीक्षक गति तय करने का फैसला करता है.
रफ्तार में दूसरी अड़चन यह है कि देश का अधिकांश रेलवे नेटवर्क खुला है, जो खेतों, गांवों और भीड़-भाड़ वाली बस्तियों से होकर गुजरता है. मवेशी और लोग खुलेआम आते-जाते हैं. रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य तथा अब चिंतन रिसर्च फाउंडेशन (सीआरएफ) से जुड़े मोहम्मद जमशेद कहते हैं, ''ट्रेनों की गति 150 किमी/घंटा से ज्यादा बढ़ाना सुरक्षा के लिए खतरा है. इसके लिए बाड़बंद पटरियां, स्वचालित सिग्नलिंग, टक्कर-रोधी उपकरण, ग्रेड सेपरेटर और स्वचालित रखरखाव की जरूरत होती है.''
ज्यादा खर्च, कम रफ्तार
यह तो कहना होगा कि मोदी सरकार के कार्यकाल में भारतीय रेलवे ने भारी निवेश किया है. 130 किमी प्रतिघंटा या उससे ज्यादा की गति के लिए प्रमाणित पटरियों का अनुपात दोगुना यानी 2014 के 5,036 किमी के मुकाबले 2025 में 9,426 किमी हो गया है. (देखें, धीमी और स्थिर). 3,500 किलोमीटर से ज्यादा बाड़ लगाई गई है, 12,000 लेवल क्रॉसिंग हटाई गई हैं और 1,465 किलोमीटर पर कवच सुरक्षा प्रणाली लगाई गई है. फिर भी फायदे सीमित हैं. चेन्नै की इंटीग्रल कोच फैक्टरी में पहली वंदे भारत ट्रेनसेट डिजाइन करने वाली टीम के अगुआ शुभ्रांशु कहते हैं, ''भारतीय रेल 20 साल से 130 किमी प्रति घंटे की रफ्तार की बात कर रही है. पटरियों ने कभी इसकी इजाजत नहीं दी. वंदे भारत के लिए कुछ भी नहीं बदला है.'' रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य (इंजीनियरिंग) सुबोध जैन गहरी खामियों की ओर इशारा करते हैं, ''यह कहना भ्रामक है कि औसत रफ्तार केवल गति सीमाओं के कारण हैं. असली समस्या पटरियों की स्थिति और शेड्यूल में रिकवरी टाइम को शामिल करने का तरीका है. भोजन, पानी, चालक दल के बदलाव, ब्रेक जांच के लिए रुकना—ये जरूरत से ज्यादा हो जाते हैं. शहरों के पास भीड़भाड़ को जोड़ दें, तो देरी कई गुना बढ़ जाती है.'' वे कहते हैं कि गति बढ़ाने के लिए शुरू किया गया मिशन रफ्तार इसलिए नाकाम रहा क्योंकि वह सिर्फ आंकड़ों का खेल बन गया. ''आपने तीसरी लाइनें तो बना दीं लेकिन बिना मोड़ काटे या ज्यामिति में सुधार किए. पटरियां बिछा दीं, लेकिन ट्रेनों को तेज नहीं चलाया. यह गति देने के बजाय, बनाए गए किलोमीटर दिखाने के लिए था.''

यह पैटर्न नया नहीं है. 1969 में राजधानी एक्सप्रेस को एक क्रांति बताया गया था. 1980 के दशक तक उसे इन्हीं ट्रैक सीमाओं के कारण धीमा कर दिया गया था. जमशेद बताते हैं, ''दिल्ली-हावड़ा राजधानी 57 साल पहले 17 घंटे 20 मिनट में शुरू हुई थी. यह अभी भी लगभग 17 घंटे 10 मिनट का समय लेती है.'' 1988 में आई शताब्दी के साथ भी ठीक वैसा ही हुआ, इसे तेज रफ्तार बिजनेस क्लास की सवारी का वादा किया गया लेकिन एक दशक में उसे भी धीमा कर दिया गया.
भारतीय रेलवे की जहां तेजी दिखी है, वह है नई रेलगाड़ियां शुरू करना. अगला वादा है वंदे भारत स्लीपर. उसका एक प्रोटोटाइप जनवरी 2025 में 180 किमी/घंटा की गति से चला, जिसमें रात भर की यात्राओं के लिए 200 सेट की योजना है. शुभ्रांशु उसे विडंबनापूर्ण करार देकर कहते हैं, ''दुनिया में कहीं भी ट्रेनसेट स्लीपर नहीं हैं—चीन, यूरोप या जापान में भी नहीं. ट्रेनसेट का असली मकसद ज्यादा गति और 6-8 घंटे की छोटी यात्रा है, जहां चेयर कार ही काफी है. आज दिल्ली-मुंबई की तरह 12 घंटे की यात्रा में, आपको वास्तव में गति का लाभ नहीं मिल रहा है. एक स्लीपर पर 120 करोड़ रुपए क्यों खर्च करें, जब एक पारंपरिक 60 करोड़ रुपए की एलएचबी (जर्मन कोच) ट्रेन वही काम कर सकती है?''
स्लीपर सेट बेशक शानदार हैं—क्रीमी रंग के लकड़ी के इंटीरियर, यूएसबी चार्जिंग और रीडिंग लाइट के लिए तारों से सजी गद्देदार बर्थ; यहां तक कि फर्स्ट एसी में गर्म शॉवर, एयरलॉक्ड गैंगवे, शोर घटाने वाला इंसुलेशन, वाइ-फाइ और सीसीटीवी वगैरह. वादा राजधानी ट्रेनों से ज्यादा आराम का है. लेकिन जब तक पटरियां उनकी गति नहीं पकड़ लेतीं, तब तक उनके पहियों पर चलने वाले लग्जरी होटल बनने का खतरा है—सुंदर और महंगे, पर रफ्तार नहीं.
पहले पटरियां ठीक करें
इस सतत समस्या का हल निकालने में जुटे रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव को अक्सर वंदे भारत की रफ्तार के सवाल का सामना करना पड़ता है. वे कहते हैं, ''वंदे भारत समेत ट्रेन सेवाओं की रफ्तार सेक्शन की अधिकतम स्वीकृत गति (एमपीएस), ट्रैक के ढांचे और रूट ज्यामितीय, ढलान और मोड़ के साथ जमीन के आकार, रूट के स्टॉपेज, लाइन क्षमता उपयोग और रखरखाव के काम पर निर्भर होती है.'' वे एक और पहलू उजागर करते हैं जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, ''देश में हमारे सामने पटरियों के उन्नयन कार्य के दौरान ट्रेनों का संचालन जारी रखने की बड़ी चुनौती है.''

पीडब्ल्यूसी की 2024 की रिपोर्ट खरीद और तैयारी के बीच के अंतर बताती है, ''वंदे भारत ट्रेनसेट का प्रदर्शन उपयुक्त पटरियों के उपलब्ध न होने से अवरुद्ध है.'' मतलब यह है कि देश में अपने राजमार्गों की मरम्मत से पहले टेस्ला कारें खरीद ली गई. वैष्णव कहते हैं, ''निरंतर सुधार ही हमारा नजरिया है. 2014 में 110 किमी/घंटा की रफ्तार के लिए उपयुक्त 40 फीसद से भी कम पटरियां आज 78 फीसद से ज्यादा हो गई हैं.'' पर यात्री असमंजस में हैं. यात्रियों की संख्या अच्छी है, 100 फीसद से भी ज्यादा. लेकिन ऑनलाइन फोरम अक्सर शिकायतों से भरे होते हैं, ''मैं शताब्दी वाले समय में पहुंचा. रफ्तार कहां है?''
विदेशों में सबक स्पष्ट हैं (देखें दुनिया कैसे चलती है). ब्रिटेन में आजाद भारत से भी पुरानी पटरियों पर 200 किमी/घंटा की इंटरसिटी एक्सप्रेस दौड़ती है. चाल यह थी कि पहले व्यवस्था को ठीक किया जाए—बाड़ लगाना, सिग्नलिंग, ग्रेड पृथक्करण वगैरह. ट्रेन का मतलब ही रफ्तार नहीं है; बल्कि उसकी व्यवस्थाओं से गति तेज की जा सकी है. वंदे भारत एक्सप्रेस के बेमानी बनने का खतरा है, बशर्ते सरकार पटरियों, सिग्नलिंग और सिस्टमिक उन्नयन में उसी तीव्रता से निवेश नहीं करती, जैसा उसने रोलिंग स्टॉक के लिए दिखाया है. सवाल यह नहीं है कि क्या ट्रेन तेज चल सकती है, सवाल यह है कि क्या रेलवे ऐसा होने देगा.
अधिकांश रूटों पर मोड़, ढलान, ब्रिज कभी भी तेज रफ्तार के मुताबिक नहीं बनाए गए. सालों की घोषणाओं के बावजूद एक भी कॉरिडोर आरंभ से अंत तक 160 किमी प्रतिघंटे के लायक नहीं.

