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प्रधान संपादक की कलम से

देश को चिप्स में आत्मनिर्भर बनना होगा. दिसंबर 2021 में शुरू किए गए इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन के तहत मोदी सरकार ने बड़ा दांव खेला है

इंडिया टुडे: 15 अक्टूबर 2025 अंक
इंडिया टुडे: 15 अक्टूबर 2025 अंक
अपडेटेड 31 अक्टूबर , 2025

—अरुण पुरी

भारत सॉफ्टवेयर क्रांति का अगुआ देश होने के बावजूद अजीब तरह से उस हार्डवेयर आर्किटेक्चर में कई साल पीछे है, जो सॉफ्टवेयर को सहारा देता है: सेमीकंडक्टर चिप्स. भारत अपनी सालाना जरूरत की 19 अरब चिप्स का 95 फीसद आयात करता है, जिसके लिए 1.71 लाख करोड़ रुपए की भारी-भरकम कीमत चुकानी पड़ती है. चिप्स क्यों जरूरी हैं?

क्योंकि यह छोटा-सा सिलिकॉन वेफर, जिसमें अरबों नैनो-साइज के ट्रांजिस्टर कुछ मिलीमीटर की सतह पर उकेरे होते हैं और इससे सूचना युग का धड़कता दिल है. लगभग हर चीज इसी पर चलती है: आपका स्मार्टफोन हो या लाखों वर्ग फुट में फैले डेटा सेंटर, ऑटोमेटेड फैक्टरियां हों या रोबोट, ऑटोमैटिक कारें हों या जहाज, विमान, रॉकेट और स्पेसक्राफ्ट, आपका स्मार्ट टीवी हो या वाइ-फाइ राउटर, एमआरआइ स्कैनर हों या क्लाउड सर्विसेज.

हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर ने दिखा दिया कि आधुनिक युद्ध में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण कितने अहम हो गए हैं. चाहे वह ऑटोनॉमस ड्रोन हों, प्रीसिजन-गाइडेड मिसाइलें हों या रडार ट्रैकिंग और सर्विलांस सिस्टम, निर्णायक भूमिका वही सूचना निभाती है जो चिप्स के जरिए ट्रांसमिट की जाती है. इसलिए कोई हैरानी नहीं कि सिलिकॉन चिप को चौथी औद्योगिक क्रांति का ''स्टील’’ कहा जा रहा है क्योंकि अब यह लगभग हर चीज के केंद्र में है.

दिक्कत ये है कि भारत इसे बनाता नहीं है. इसका खामियाजा कोविड-19 महामारी के दौरान साफ दिखा, जब सप्लाइ चेन टूटने से दुनिया भर में सेमीकंडक्टर संकट खड़ा हो गया. भारत में भी इसकी मार ऑटो और कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक जैसे अहम सेक्टर्स पर पड़ी. यहां तक कि अमेरिका जैसे देश भी झटके से नहीं बच पाए. डिजाइन और इनोवेशन में भले ही वह आगे है, लेकिन दुनिया की चिप मैन्युफैक्चरिंग में आज उसकी हिस्सेदारी महज 12 फीसद है.

असल ताकत को ईस्ट एशिया के पास है: ताइवान, दक्षिण कोरिया और कुछ हद तक चीन. इसी वजह से अमेरिका ने राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकाल में 2022 में चिप्स ऐंड साइंस ऐक्ट पास किया. इसमें घरेलू सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए 52.7 अरब डॉलर का पैकेज रखा गया.

भारत भी पहले ही तय कर चुका है कि अब ऐसे झटके बर्दाश्त नहीं किए जा सकते. देश को चिप्स में आत्मनिर्भर बनना होगा. दिसंबर 2021 में शुरू किए गए इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन के तहत मोदी सरकार ने बड़ा दांव खेला. उसने 76,000 करोड़ रुपए लगाने का ऐलान किया ताकि विदेशी और भारतीय दोनों तरह के निजी चिप निर्माता यहां फैब्रिकेशन यूनिट्स (फाउंड्रीज) लगाएं.

परफॉर्मेंस लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआइ) स्कीम से अलग इसमें सरकार ने परियोजना लागत का आधा हिस्सा तक उठाने की पेशकश की और वह भी बिना किसी रीपेमेंट या इक्विटी हिस्सेदारी के. मकसद साफ था: पूरी तरह देश में पनपा हुआ चिप मैन्युफैक्चरिंग इकोसिस्टम खड़ा करना. इसमें डिजाइनिंग और फैब्रिकेशन से लेकर असेंबली, टेस्टिंग और पैकेजिंग तक सब कुछ देश में ही होना था. राज्यों को भी प्रोत्साहित किया गया कि वे प्रोजेक्ट की लागत का 20 से 30 फीसद तक तक अनुदान दें.

चिप्स बनाना आसान नहीं है और दुनिया के चंद देश ही इन्हें बनाते हैं. इसकी वजह है बेहद उच्च स्तर की सटीकता—करीब 99.5 फीसद—की जरूरत. एक छोटे से सिलिकॉन वेफर पर फोटोसेंसिटिव एजेंट्स का इस्तेमाल करके चिप का डिजाइन लिथोग्राफी से ट्रांसफर किया जाता है और उस पर अरबों ट्रांजिस्टर और बाकी सर्किटरी जमाई जाती है. यह काम पूंजी-गहन है और इसमें नौकरियों का सृजन कम होता है.

इसमें सिर्फ टॉप-लेवल इंजीनियरिंग स्किल ही नहीं बल्कि लगातार मिलती रहने वाली बिजली, पानी और दुर्लभ केमिकल्स की बड़ी मात्रा भी चाहिए. मोदी सरकार के इतने बड़े निवेश की आलोचना पूर्व आरबीआइ गवर्नर रघुराम राजन ने की. उन्होंने इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन को ''अब इसमें उतरना बर्बादी भरी दौड़’’ बताया और कहा कि इसमें भारी पूंजी लागत, बड़ी सब्सिडी और कम रोजगार क्षमता है.

लेकिन केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव इस आलोचना को नजरअंदाज करते हैं. वे इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं, ''ये एक बुनियादी इंडस्ट्री है, जो भारत के लिए रणनीतिक दृष्टि से बेहद अहम है, खासकर ऐसे वक्त में जब दुनिया उथल-पुथल और भू-राजनीतिक बदलावों से भरी है. हमें आत्मनिर्भर होना ही होगा. यह किसी भी दूसरी मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री से कहीं अधिक जटिल है और सरकार का सपोर्ट जरूरी है. यही प्रैक्टिस दुनिया भर में है.’’

करीब 1.6 लाख करोड़ रुपए के कुल निवेश वाली  यह योजना साहसी, जोखिम भरी और बेहद महंगी है, जिसके परिपक्व होने का समय करीब एक दशक है. मगर दांव अब रंग लाता दिख रहा है. अभी तक 10 प्रोजेक्ट्स को मंजूरी मिल चुकी है और वे तेजी से निर्माण चरण में पहुंच गए हैं.

बड़े खिलाड़ी जैसे टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स, जिसने ताइवान की दिग्गज कंपनी पीएसएमसी के साथ मिलकर भारत की पहली सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन यूनिट की नींव रखी है, वहीं अमेरिकी कंपनी माइक्रोन टेक्नोलॉजी और एचसीएल-फॉक्सकॉन वेंचर भी मैदान में है.

सिर्फ अगस्त में ही चार छोटी यूनिट्स शुरू हुई हैं और कई स्टार्टअप एडवांस चिप डिजाइन में कदम रख रहे हैं. भारत का परिदृश्य अब गतिविधियों से भरा है. ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा, जो लंबे समय से विज्ञान और टेक्नोलॉजी को ट्रैक करते आए हैं, ने इस हफ्ते की कवर स्टोरी में अपनी पूरी समझ और अनुभव झोंक दिया है.

चेंगप्पा ने गुजरात के साणंद का दौरा किया, जो नए सेमीकंडक्टर हब्स में से एक बन रहा है. यहां मुरुगप्पा ग्रुप की सीजी सेमी अपनी पायलट लाइन शुरू करने वाली पहली यूनिट बनी. चेंगप्पा अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी और बेहतरीन क्वालिटी स्टैंडर्ड देखकर प्रभावित हुए. अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के जानकार चेंगप्पा कहते हैं, ''चिप बनाने की टेक्नोलॉजी सिर्फ चुनिंदा देशों के पास है और भारत के लिए जरूरी हो गया है कि वह इस क्लब का पूर्ण सदस्य बने.’’

यह एक ब्लू-चिप ड्रीम है जिसे हकीकत में बदलना जरूरी है, ताकि जब हालात कठिन हों, तो हमारे चिप्स मजबूती से खड़े हों. उम्मीदें पक्की हैं, बेसब्री से इंतजार है.

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