कलीम गीलानी
लद्दाख में 24 सितंबर को भड़की हिंसा, चार लोगों की मौत, दर्जनों अन्य का घायल होना और जलवायु कार्यकर्ता और इनोवेटर सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी, इस बर्फीले क्षेत्र में आक्रोश की आंच का संकेत है.
इससे केंद्र शासित क्षेत्र में नई दिल्ली का राजनैतिक प्रयोग नाकाम होता दिखता है. 5 अगस्त, 2019 को लद्दाख के जम्मू-कश्मीर से अलग होने के बाद राज्य के दर्जे, एक विधायिका, संविधान की छठी अनुसूची (जो स्वायत्त शासन संरचना के तहत आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन का प्रावधान करती है) में शामिल होने, नौकरियों और भूमि अधिकारों की मांगें और तेज हो गई हैं.
अपनी 14 दिनों की भूख हड़ताल के दौरान वांगचुक ने चेताया था कि सार्थक रियायतें न मिलीं तो लद्दाख में भी ''नेपाल और बांग्लादेश के जैसे जेन ज़ी विरोध प्रदर्शन देखने को मिल सकते हैं...पिछले छह साल से बेरोजगारी और हर स्तर पर अधूरे वादों के कारण हताशा है.'' इसके बाद ही उनके नेतृत्व में जारी शांतिपूर्ण प्रदर्शन हिंसक हो गया. 26 सितंबर को 'भड़काऊ बयान' देकर 'भीड़ से हिंसा भड़काने' के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता को लद्दाख से राजस्थान की जोधपुर जेल भेज दिया गया.
सत्ताईस सितंबर को लद्दाख के डीजीपी एस.डी. सिंह जामवाल ने कहा कि वांगचुक के कथित पाकिस्तानी 'संबंधों' की जांच चल रही है. वांगचुक की पत्नी और उनके गैर-लाभकारी संगठन हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव्ज लद्दाख (एचआइएएल) के संचालन में अहम भूमिका निभा रहीं गीतांजलि अंगमो ने इस आरोप को सिरे से नकार दिया. उन्होंने इसकी बुनियाद पर ही सवाल उठाए हैं. उन्होंने मीडिया के साथ बातचीत में कहा कि उन पर 'शिकंजा' कसना चार साल पहले शुरू किया गया था, जब वांगचुक ने राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल करने को लेकर आवाज उठानी शुरू की.
'व्यापक भ्रष्टाचार में लिप्त' होने के आरोपों को लेकर एचआइएएल से उसकी जमीन छीन ली गई. विदेशी धन लेने के नाम पर उनके एक अन्य गैर-लाभकारी संगठन स्टूडेंट्स एजुकेशनल ऐंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख (एसईसीएमओएल) का एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिया गया. वांगचुक का कहना है कि एसईसीएमओएल ने कभी विदेशी चंदा नहीं लिया, बल्कि केवल संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संगठनों को दी गई सेवाओं के बदले भुगतान लिया, जिन पर भारत में कर भुगतान करना होता है.
आक्रोश की वजह
जब लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग किया गया तो कई निवासियों ने श्रीनगर और जम्मू की छाया से बाहर आकर केंद्र शासित प्रदेश बनने पर खुशी जाहिर की. लेकिन दो साल के भीतर ही सारा उत्साह काफूर हो गया. वजह यह थी कि एक तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभाव नजर आने लगा और फिर असहमति या आकांक्षाएं जताने का कोई मंच भी उपलब्ध न था. इससे पहले, लद्दाख ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा में चार विधायक भेजे थे. अब, बिना विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर उसके पास एक भी जनप्रतिनिधि नहीं है. निर्वाचित निकाय लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (एलएएचडीसी) की भूमिका सड़क, पानी और बिजली जैसी बुनियादी जरूरतों तक ही सिमटकर रह गई है. अक्तूबर में यहां चुनाव होने हैं और भाजपा को 2020 में लेह में हासिल बहुमत बरकरार रहने की उम्मीद है.
कश्मीर के 16,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के विपरीत लद्दाख करीब 60,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है लेकिन 2011 की जनगणना के मुताबिक, यहां की आबादी केवल 2,75,000 है. लोगों को जनसांख्यिकीय बदलाव का डर सता ही रहा है, प्रमुख पदों पर नियुक्तियों, प्रशासन और भूमि उपयोग आदि पर केंद्र की तरफ से नियुक्त उपराज्यपाल के नियंत्रण के कारण कई स्थानीय लोग हाशिए पर पहुंचने, अधिकार छिनने और यहां तक कि सांस्कृतिक क्षरण का अंदेशा भी जता रहे हैं. एलएएचडीसी सचिवालय और भाजपा दफ्तर फूंकने की घटना यही दर्शाती है कि 2020 के चुनावी वादे अधूरे रहने से आक्रोश है. चुनावी वादों में विधानमंडल और छठी अनुसूची में शामिल करने को सबसे आगे रखा गया था.
इन मांगों ने लद्दाख के दो जिलों—मुस्लिम बहुल करगिल और बौद्ध बहुल लेह को एकजुट कर दिया है. भाजपा छोड़ बाकी राजनैतिक दल और नागरिक समाज समूह लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और करगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के तहत एकजुट हो चुके हैं. 28 सितंबर को लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर तीखा हमला बोला और भाजपा और आरएसएस पर लद्दाख को कमजोर करने का आरोप लगाया. राज्य के दर्जे की मांग का समर्थन करते हुए उन्होंने केंद्र से लद्दाख को छठी अनुसूची के तहत लाने का आग्रह किया.
बढ़ता गतिरोध
केंद्र अपनी ओर से बातचीत के जरिए आक्रोश घटाने की कोशिश करता रहा है लेकिन ज्यादा सफलता नहीं मिली. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय के नेतृत्व वाली उच्चस्तरीय समिति ने मई में लद्दाखी नेताओं से मुलाकात कर मूल निवास और आरक्षण के मुद्दों पर चर्चा की थी. सरकार ने आंकड़ों का हवाला देकर उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश की—बहुसंख्यक अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण 45 फीसद से बढ़ाकर 84 फीसद कर दिया गया और 1,800 पदों के लिए विज्ञापन दिए गए हैं. हालांकि, भर्ती में तेजी लाने के लिए एक लोक सेवा आयोग के गठन, एक के बजाए दो लोकसभा सीटें आवंटित करने और नौकरियों, जमीन और संस्कृति के लिए वास्तविक सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसी अनसुलझी मांगों ने गतिरोध बढ़ाया ही है.
वांगचुक का आरोप है कि सरकार राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची की मूल मांगों की अनदेखी कर नौकरी में आंशिक आरक्षण के नाम पर लोगों को गुमराह कर रही है. उन्होंने कहा, ''सरकार असल में शांति के लिए कदम नहीं उठा रही. बल्कि ऐसे कदम उठा रही है जो लोगों की मूल मांगों से ध्यान भटकाकर स्थिति को और बिगाड़ देंगे.'' उनकी यह चेतावनी कि ''सोनम वांगचुक का जेल में होना भी इससे कम बड़ा संकट नहीं होगा,'' मुद्दों को सुलझाने के लिए बातचीत की प्रक्रिया को संदेह के घेरे में लाता है. एलएबी और केडीए दोनों गृह मंत्रालय के साथ 6 अक्तूबर को होने वाली बैठक से पीछे हट गए हैं और चार स्थानीय युवकों की हत्या की न्यायिक जांच और लोगों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं.
इस अशांति ने लद्दाख की संवेदनशील भू-राजनीतिक स्थिति को भी रेखांकित किया है. चीन सीमा से सटा यह क्षेत्र 2020 में गलवान संघर्ष के दौरान टकराव का केंद्र बन गया था. लद्दाख में कोई भी उथल-पुथल भारत की घरेलू राजनीति के लिहाज से बहुत अहम हो जाती है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने भी आगाह किया था कि ''चीन सीमा से सटे इस ठंडे रेगिस्तान का फायदा उठाया जा सकता है.''
उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता ने सुरक्षा समीक्षा के दौरान हिंसा के पीछे विदेशी हाथ होने का आरोप लगाया, जिसे एलएबी ने तुरंत खारिज कर दिया. हालांकि, केंद्र के लिए वार्ता विफल होना एक बड़े संकट का संकेत है.
मुख्य मांगें
> राज्य का दर्जा: लद्दाख को अलग राज्य बनाया जाए
> छठी अनुसूची में शामिल करना: स्वायत्त शासन के माध्यम से संवैधानिक सुरक्षा उपाय हों
> नौकरियां: स्थानीय लोगों को सही ढंग से आरक्षण और रोजगार के मौके मिलें
> भूमि अधिकार: भूमि आवंटन और संरक्षण के उपाय हों
> केंद्रीय प्रतिनिधित्व: एक के बजाए दो लोकसभा सीटें आवंटित की जाएं

