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प्रधान संपादक की कलम से

भारत को एक ऐसा सबूत चाहिए जो नागरिकता का पक्का और असंदिग्ध प्रमाण हो. इसके बिना वोटर लिस्ट साफ करने की कोशिश से स्पष्टता नहीं बल्कि अफरातफरी पैदा होगी

8 अक्टूबर 2025 अंक- कौन है नागरिक?
8 अक्टूबर 2025 अंक- कौन है नागरिक?
अपडेटेड 21 अक्टूबर , 2025

- अरुण पुरी

भारतीय नागरिक कौन है? यह सवाल उतना ही पुराना है जितना हमारा गणराज्य, और उतना ही पेचीदा भी. खून-खराबे वाली बंटवारे की त्रासदी से पैदा हुए हमारे 75 साल पुराने लोकतंत्र के लिए नागरिकता की सीमाएं हमेशा कानूनी भी रही हैं और भावनात्मक भी.

अब एक नई बहस 24 जून 2025 को खड़ी हो गई, जब चुनाव आयोग ने ऐलान किया कि वह ''मतदाता सूचियों की शुचिता'' बनाए रखने के लिए देशभर में विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआइआर) चलाएगा. बिहार में चार महीने बाद चुनाव होने वाले हैं, इसलिए शुरुआत वहीं से होगी.

मकसद तो अच्छा था लेकिन इसकी टाइमिंग और शर्तें तुरंत विवाद में आ गईं. खासकर कागजी सबूत पर जोर देने वाली शर्त, जिसमें असल में पहले नागरिकता साबित करनी पड़ती. विपक्ष ने इसे एनआरसी का पिछला दरवाजा बताया, वही प्रोजेक्ट जिसे मोदी सरकार लाई थी लेकिन जो अपनी ही गड़बड़ियों से खेत रहा. विपक्ष ने चुनाव आयोग पर अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने का भी आरोप लगाया क्योंकि नागरिकता तय करना उसके कार्यक्षेत्र में नहीं आता.

बिहार के 7.64 करोड़ मतदाताओं को पहचान साबित करने के लिए चुनाव आयोग ने जो छोटा-सा वक्त दिया. उसमें सबसे बड़ी दिक्कत उन 11 कागजों की लिस्ट थी जिन्हें पहचान के सबूत के तौर पर मान्य बताया गया. इनमें जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, मैट्रिक सर्टिफिकेट, जमीन के कागज या 1987 से पहले की सरकारी नौकरी के रिकॉर्ड जैसे डॉक्युमेंट शामिल थे. लेकिन इसमें तीन अहम कागज बाहर कर दिए गए, जिनका अब तक नागरिकता या पहचान साबित करने में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता रहा है: आधार कार्ड, वोटर आइडी और राशन कार्ड.

इनका न होना गरीब और वंचित तबकों के लिए सबसे मुश्किल साबित हुआ. बिहार जैसे राज्य में, जहां 2025 में भी पुरुषों की साक्षरता दर 75 फीसद से कम और महिलाओं की सिर्फ 65 फीसद मानी जाती है, वहां यह फैसला और भी भारी पड़ा. ऊपर से लगभग आधी आबादी भूमिहीन है और जन्म प्रमाणपत्र की कवरेज ऐतिहासिक तौर पर बहुत कम रही है.

ऐसे में आयोग की शर्तें जैसे नाकाम ही होने वाली थीं. नतीजा यह हुआ कि पहले ही राउंड में करीब 65 लाख योग्य वोटरों के नाम लिस्ट में नहीं चढ़ पाए. मजबूरन आयोग को फाइलिंग की तारीख 30 सितंबर तक बढ़ानी पड़ी.

इस बीच, हर किसी के पास मौजूद बायोमेट्रिक पहचान के दस्तावेज आधार कार्ड को बाहर रखने के फैसले ने एक्टिविस्ट और विपक्षी नेताओं को अदालत का दरवाजा खटखटाने पर मजबूर कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के 8 सितंबर के फैसले ने आखिरकार चुनाव आयोग को आधार को मान्य पहचान पत्र मानने के लिए बाध्य किया लेकिन कोर्ट ने इसके साथ अहम शर्त भी जोड़ी. उसने कहा कि आधार का इस्तेमाल वोटर लिस्ट में किया जा सकता है लेकिन यह नागरिकता का सबूत नहीं होगा. यहीं से फिर असली समस्या सामने आती है.

भारत के पास ऐसा कोई ठोस दस्तावेज नहीं है जो नागरिकता साबित करता हो. पासपोर्ट एकमात्र विकल्प है लेकिन ताजा आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ 12 फीसद से थोड़े ही ज्यादा भारतीयों के पास पासपोर्ट है. इसके अलावा हमारे पास हैं कई उलझाने वाले और आपस में ही गड्डमड्ड होते रिकॉर्ड: जनगणना, नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर, वोटर आइडी और आधार. इनमें से कोई भी नागरिकता साबित नहीं करता.

यही वह कमी थी जिसे सिटिजन (अमेंडमेंट) ऐक्ट (सीएए) 2003 में पूरा करने की कोशिश की गई. इसमें 'गैर-कानूनी प्रवासी' की नई श्रेणी बनाई गई ताकि तय हो सके कि किसे बाहर रखना है. साथ ही केंद्र सरकार को सभी नागरिकों को नेशनल आइडी कार्ड देने का अधिकार दिया गया. एनआरसी इसी का हिस्सा था, ताकि जन्म और वंश के आधार पर राज्यों में नागरिकता का सबूत तय हो सके लेकिन 2019 में आए सीएए के अपडेटेड वर्जन में धार्मिक आधार पर छूट के कारण देश में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. उधर, असम में एनआरसी कई व्यावहारिक दिक्कतों में फंस गया. दोनों वजहों से पूरा मामला ठप हो गया.

नागरिकता का मुद्दा अब फिर से चर्चा में आ गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में 'हाइ-पावर्ड डेमोग्राफी मिशन' की बात कही, जिसका मकसद गैर-कानूनी प्रवासियों को बाहर निकालना है. उन्होंने इन्हें सुरक्षा और रोजगार के लिए खतरा बताया. यह सब उस राजनैतिक माहौल में हो रहा है जहां बिहार के बाद 2026 में पश्चिम बंगाल और असम में चुनाव होने हैं.

यह महज संयोग नहीं है कि दोनों ही राज्यों में मुसलमानों की बड़ी आबादी है: 2011 की गणना के मुताबिक, असम में 34 फीसद और बंगाल में 27 फीसद. आलोचक मानते हैं कि यही वे जगहें हैं जहां नागरिकता की परिभाषा उलझे तरीके से फिर लिखी जाएगी. विपक्ष देश में एसआइआर को राजनैतिक हथकंडा मान रहा है. उसका कहना है कि यह उन नागरिकों को वोटर लिस्ट से बाहर करने की चाल है, जो इन पूर्वी राज्यों में एनडीए और भाजपा के खिलाफ वोट डाल सकते हैं.

इस हफ्ते की कवर स्टोरी में मैनेजिंग एडिटर कौशिक डेका ने इस जटिल मुद्दे को आसान भाषा में समझाने की कोशिश की है. असलियत यह है कि सरहद पार से लोगों का आना-जाना हमेशा से संवेदनशील मसला रहा है. धर्म और भाषा की वजह से पहचान अक्सर धुंधली हो जाती है और गैर-कानूनी प्रवासी खोजने की कवायद पूरी आबादी में डर और अनिश्चितता फैला सकती है.

अगर बड़ी संख्या में लोगों को अनजाने में भी वोटिंग अधिकार से वंचित किया गया, तो इससे सामाजिक अशांति और पहचान-आधारित राजनीति को बल मिल सकता है. चूंकि ऐसा माहौल भाजपा को राजनैतिक फायदा पहुंचाता है, आलोचकों का आरोप है कि यही असली वजह है देशभर में एसआइआर लागू करने की. अगर 'ग्रेडेड और सस्पेंडेड' नागरिकता का नया सिस्टम बनाया गया और डिटेंशन सेंटर्स पूरे देश में खड़े हो गए, तो यह भारत की राजनीति पर हमेशा के लिए गहरा दाग छोड़ देगा.

नागरिकता लोकतंत्र की नींव है. इसी से अधिकार, दायित्व और वोट देने की ताकत मिलती है. इसके अनिश्चित बनने से पूरा गणराज्य खतरे में पड़ सकता है. भारत को एक ऐसा सबूत चाहिए जो नागरिकता का पक्का और असंदिग्ध प्रमाण हो. इसके बिना वोटर लिस्ट साफ करने की कोशिश से स्पष्टता नहीं, अफरातफरी पैदा होगी. देश को इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत पहचान के पक्के कार्ड की है, पहचान के संकट की नहीं.

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