—अरुण पुरी
जलवायु संकट अब भारत के लिए नई हकीकत बन चुका है. इसके सबूत हर तरफ नजर आते हैं. पंजाब के हालात देखिए: 23 जिलों के करीब 1,900 गांव पानी में डूब गए हैं. सितंबर के पहले हफ्ते में सामान्य से 1,000 फीसद ज्यादा बारिश हुई. नतीजा: 56 लोगों की मौत, करीब पांच लाख एकड़ खेती डूब गई और लगभग 12,000 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ.
पड़ोसी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर की तस्वीरें भी डरावनी हैं: भयानक बाढ़ गांवों को बहा ले गई, पहाड़ धंस गए, पुल, ट्रक और नदी किनारे बने होटल मलबे में तब्दील हो गए. सिर्फ इस सीजन में हिमाचल ने 45 बादल फटने की घटनाएं, 91 अचानक आई बाढ़ और 105 बड़े भूस्खलन देखे हैं. यह साफ चेतावनी है. भारत अब उन शीर्ष दस देशों में शामिल है जो जलवायु परिवर्तन के असर के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित माने जाते हैं.
भारत पर हर साल बाढ़, सूखा, चक्रवात या लू जैसी चरम मौसम की घटनाओं का असर और गहरा होता जा रहा है. 2022 में ऐसे हालात 314 दिन देखने को मिले. 2023 में ये बढ़कर 318 दिन हो गए और 2024 में 322 दिन तक पहुंच गए. मतलब पिछले साल 366 दिनों में से 88 फीसद दिनों तक भारत मौसम के आपातकाल में था. इस साल भी जनवरी से मार्च के 90 दिनों के बीच, 87 दिन चरम मौसम की मार पड़ी.
नतीजा बेहद डरावना रहा: 2024-25 में 3,080 मौतें जलवायु संकट से जुड़ी थीं, जो पिछले 10 साल में सबसे ज्यादा हैं. जून में आई डेवलपमेंट कंसल्टेंसी कंपनी आइपीई ग्लोबल और एडवांस्ड मैपिंग सॉल्यूशंस प्रोवाइडर एसरी इंडिया की रिपोर्ट ने बताया कि भारत के 738 जिलों में से 85 फीसद चरम मौसम की घटनाओं के लिए संवेदनशील हैं.
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने 1998 से 2017 के बीच भारत में जलवायु आपदाओं से हुए कुल नुक्सान का अनुमान 79.5 अरब डॉलर (करीब 7 लाख करोड़ रुपए) लगाया. रिजर्व बैंक का अनुमान है कि 2030 तक भारत की जीडीपी का 4.5 फीसद तक (यानी अनुमानित 255 लाख करोड़ रुपए की जीडीपी में से 11.5 लाख करोड़ रुपए) सिर्फ भीषण गर्मी और उमस से काम के घंटों के नुक्सान की वजह से दांव पर लग सकता है.
भारत के लिए अब ग्लोबल वॉर्मिंग मिथक नहीं है. साल 1900 से अब तक के सबसे गर्म 10 साल पिछले 15 साल में ही दर्ज हुए हैं. सिर्फ पिछले दो दशकों में हमारे यहां औसत तापमान 0.69 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया. जलवायु विज्ञान में हर डिग्री का छोटा हिस्सा भी बहुत तेजी से असर डालता है. पूरी धरती तप रही है, खतरे की लाल रेखाएं लांघी जा चुकी हैं.
वर्ल्ड मेटेरोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन ने 2024 को 175 साल में सबसे गर्म साल घोषित किया, और यह पहला साल रहा जब औसत वैश्विक तापमान, औद्योगीकरण से पहले के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर चला गया. 2015 के पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट में साफ कहा गया है कि अगर तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हुआ तो दुनिया ऐसे हालात में पहुंच जाएगी, जिनका अनुभव मानव सभ्यता ने कभी नहीं किया.
सीधी बात यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग, कोयला, तेल और गैस जलाने और बेतहाशा जंगल कटाई की वजह से फैले कार्बन उत्सर्जन का नतीजा है. इसका असर यह होता है कि समुद्र और जलस्रोत ज्यादा तेजी से वाष्पित होते हैं, जिससे ग्लोबल क्लाइमेट पैटर्न में गड़बड़ी बढ़ती है. वैज्ञानिक मानते हैं कि वैश्विक तापमान में हर 1 डिग्री बढ़ोतरी पर वायुमंडल में नमी करीब 7 फीसद बढ़ जाती है, जो फिर भारी बारिश के रूप में संवेदनशील इलाकों पर टूट पड़ती है.
पहाड़ों और उत्तर के मैदानी इलाकों में जो तबाही मची है, उसकी तस्वीर हमारी कवर स्टोरी में दर्ज है और यह सीधा सबूत है. असली चुनौती जलवायु संकट के प्रभाव को कम करना और इससे सामंजस्य बैठाने के लिए रणनीति बनाना है. दुर्भाग्य से राज्यों ने इसमें भारी लापरवाही बरती और उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है.
पंजाब को अप्रैल में ही बाढ़ के खतरे की चेतावनी दी गई थी, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया गया. हिमाचल में नदियों और डैम की सफाई को प्राथमिकता नहीं दी गई. इसके उलट, नदी किनारों और पहाड़ों पर नई इमारतों और इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेझिझक मंजूरी दी गई. यही हाल उत्तराखंड और कश्मीर का भी है. बड़े शहर प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए हैं.
दिल्ली, मुंबई, बेंगलूरू और चेन्नै हर साल खराब ड्रेनेज मैनेजमेंट की वजह से डूबते रहते हैं. इंटर-गवर्नमेंटल क्लाइमेट रेजिलियंस बॉडी के चेयर प्रो. संजय श्रीवास्तव साफ कहते हैं, ''सबसे बड़ी समस्या यह है कि स्थानीय निकाय पर्यावरण से जुड़े नियमों को लागू नहीं करते. ठेकेदारों और सरकारी एजेंसियों की मिलीभगत और उन्हें प्राप्त राजनैतिक संरक्षण के चलते सुरक्षा मानदंडों की धज्जियां उड़ जाती हैं.’’
विशेषज्ञ कहते हैं कि कंस्ट्रक्शन, सड़क, जलनिकासी और बिजली सप्लाइ पर सख्त नियम लागू होने चाहिए. शहरों को 'अर्बन स्पॉन्ज’ की तरह डिजाइन करना होगा, जहां पानी सोखने वाले फुटपाथ, पार्क, रेन गार्डन और जलनिकासी के असरदार सिस्टम हों. डैम की समय-समय पर गाद साफ कर उनकी क्षमता बहाल करनी होगी.
नदी किनारों और पहाड़ियों पर कब्जा पूरी तरह से बैन करना होगा. आपदा प्रबंधन बल को मजबूत कर आपातकाल में निकासी के रास्तों का नक्शा तैयार करना होगा, शेल्टर बनाने होंगे और लोगों को जागरूक करना होगा. ओडिशा ने दिखाया है कि दूरदर्शिता और सख्त प्रोटोकॉल से चक्रवातों में हजारों जिंदगियां बचाई जा सकती हैं. तैयारी की यह संस्कृति पूरे देश में फैलनी चाहिए.
नितांत स्थानीय मौसम की भविष्यवाणी भी उतनी ही जरूरी है. सामंजस्य बैठाने के लिए हर क्षेत्र में जलवायु के प्रति संवेदनशील नीतियों की भी जरूरत है. खेती को ऐसी फसलों की तरफ मोड़ना होगा जो सूखा बर्दाश्त कर सकें. अर्बन प्लानिंग में बारिश और जलनिकासी का डेटा शामिल करना होगा. सरकार का 2070 तक नेट जीरो कार्बन और 2030 तक 50 फीसद ऊर्जा रिन्यूएबल स्रोतों से लाने का लक्ष्य सही दिशा है. लेकिन महत्वाकांक्षा तभी मायने रखती है जब उसे लगातार अमल में बदला जाए.
जलवायु परिवर्तन अब कल का खतरा नहीं है, बल्कि आज की हकीकत है. भारत लापरवाही या शॉर्टकट नहीं झेल पाएगा. रोकथाम की मानसिकता होनी चाहिए, न कि जुगाड़ की. तभी हम अपने लोगों को एक स्थाई इमरजेंसी वाले भविष्य से बचा पाएंगे.

