जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जो तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) के खिलाफ अपनी शिकायतों का अभूतपूर्व प्रदर्शन था. टेलीविजन कैमरों के सामने लॉन में बैठकर उन्होंने न्यायिक वाक्संयम की एक लंबी परंपरा ही तोड़ डाली. दशकों से भारतीय न्यायाधीश किसी बातचीत में एक-दूसरे को लर्नेड ब्रदर या लर्नेड सिस्टर (काबिल सहयोगी) कहकर संबोधित करते रहे हैं. लेकिन आजकल वह बंधुत्व वाला नियम टूटता दिख रहा है. सार्वजनिक टीका-टिप्पणियों से लेकर कथित तौर पर जान-बूझकर लीक किए गए पत्रों तक, जज अब अपने मतभेदों को खुलकर जता रहे हैं. ऐसा तमाशा कभी अकल्पनीय था.
अब पूर्व सीजेआइ जस्टिस डी.वाइ. चंद्रचूड़ के सरकारी बंगले से जुड़े घटनाक्रम को ही देख लीजिए. वे नवंबर, 2024 में सेवानिवृत्त हुए और छह माह की मोहलत के बाद भी 2025 के मध्य तक नई दिल्ली के कृष्ण मेनन मार्ग स्थित सीजेआइ बंगले में बने रहे. जुलाई में सुप्रीम कोर्ट प्रशासन ने सरकार से अनुरोध किया कि वह उन्हें ''बिना किसी और देरी'' के बंगले से बेदखल कर दे क्योंकि समयावधि बीत चुकी है और यह नियम का उल्लंघन है. सार्वजनिक हुए पत्र के कारण जस्टिस चंद्रचूड़ की खासी फजीहत हुई.
कुछ हफ्ते बाद अगस्त में एक विदाई समारोह में सीजेआइ जस्टिस बी.आर. गवई ने नवंबर में सेवानिवृत्ति से पहले बंगला खाली करने की कसम खाई और एक सेवानिवृत्त सहयोगी की प्रशंसा भी की, जिसने तुरंत आधिकारिक आवास खाली करके ''एक अच्छी मिसाल'' कायम की थी. जाहिरा तौर पर टिप्पणी उनके पूर्ववर्ती पर परोक्ष हमला थी. सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज कहते हैं, ''यह प्रकरण काफी असामान्य था. इसके पीछे बेहद निजी कारण हो सकता है, न कि प्रक्रियागत.''
बंगले के मामले ने खुलकर सामने आए व्यक्तिगत विद्वेष को दर्शाया. एक अन्य घटनाक्रम में पिछले माह जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक जज की तरफ से सुनाए फैसले को 'बेतुके' तरीके से निबटाया गया मामला बताया. उन्होंने उनको सेवानिवृत्ति तक आपराधिक केसों की सुनवाई से रोक दिया और आदेश दिया कि उन्हें एक वरिष्ठ न्यायाधीश के साथ जोड़ा जाए.
इस कदम को न्यायिक अतिक्रमण करार दिया गया. इलाहाबाद में आक्रोश भड़क उठा और 13 न्यायाधीशों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही असंवैधानिक करार दे डाला. संकट बढ़ता देख सीजेआइ जस्टिस गवई के मामले में हस्तक्षेप करने पर जस्टिस पारदीवाला की पीठ ने अपने आदेश में संशोधन कर दिया. हालांकि, बाद में लोगों को इस बात पर खासा आश्चर्य हुआ कि जस्टिस गवई और उनके उत्तराधिकारी जस्टिस सूर्यकांत दोनों ने मीडिया से बातचीत के दौरान अपने सहयोगियों की कड़ी आलोचना की.
कॉलेजियम में दरार
न्यायिक एकता में एक और दरार पिछले महीने उस समय सामने आई जब सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की एकमात्र महिला न्यायाधीश जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने एक दुर्लभ लिखित असहमति के साथ अपनी अलग राय रखी. उन्होंने 'लक्ष्य के प्रतिकूल' और कॉलेजियम की विश्वसनीयता को नुक्सान पहुंचाने वाला कदम बताते हुए पटना हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस के तौर पर जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पदोन्नति का विरोध किया. कॉलेजियम ने पंचोली का 4-1 से समर्थन किया, लेकिन जस्टिस नागरत्ना का नोट प्रेस तक पहुंच गया.
केवल कार्यरत न्यायाधीश ही नहीं, सेवानिवृत्त न्यायाधीश भी सार्वजनिक तौर पर एक-दूसरे को निशाना बनाने में पीछे नहीं. अगस्त में दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों समेत 50 पूर्व न्यायाधीशों ने अपने 18 सेवानिवृत्त सहयोगियों की आलोचना की. वजह थी कि उन्होंने विपक्ष की तरफ से उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी का समर्थन किया था. 18 न्यायाधीशों ने रेड्डी का समर्थन उस वक्त किया जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2011 के एक फैसले को लेकर उन पर 'नक्सलवाद समर्थक' होने का आरोप लगाया. 18 पूर्व न्यायाधीशों ने शाह के दावे को 'गलत व्याख्या' करार देते हुए संयम बरतने का आग्रह किया. लेकिन जवाबी पत्र में उन पर विपक्षी राजनीति को न्यायिक स्वतंत्रता का जामा पहनाने का आरोप लगाया गया.
आखिरकार, लंबे समय से अलिखित नियम-कानूनों से बंधे न्यायाधीश अचानक देश के सामने अपनी असहमति जताने के लिए इतने आतुर क्यों हैं? इसका जवाब मीडिया की बढ़ती दिलचस्पी में निहित है, खासकर सोशल मीडिया की. यह जजों को ज्यादा मुखर होने को प्रेरित करता है. वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा कहते हैं, ''हर बात के निहितार्थ तलाशने की आदत ने अदालतों के अंदर और बाहर की हर बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का चलन बढ़ाया है. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और लाइव रिपोर्टिंग के कारण गैर-वकील दर्शक अदालती कार्यवाही पर कुछ ज्यादा बहस-मुबाहिसा करने लगे हैं. मीडिया ने न्यायाधीशों को सार्वजनिक हस्ती बना दिया है. इसीलिए हमें उनकी सार्वजनिक टीका-टिप्पणियां भी सुनाई देने लगी हैं.'' सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस हृषिकेश रॉय इस बात से सहमति जताते हैं. उनके मुताबिक, ''अदालत में मौखिक तौर पर की जाने वाली टिप्पणियों का भी विश्लेषण किया जाने लगा है, जो अक्सर संदर्भ से परे होते हैं. आमतौर पर न्यायाधीश चुप ही रहते हैं लेकिन हकीकत यही है कि उन पर प्रतिक्रिया देने का दबाव होता है, भले ही दस में से नौ बार वे ऐसा न चाहते हों.''
ताकत और व्यक्तित्व
हालिया विवादों का एक मानवीय पहलू भी है. आज सुप्रीम कोर्ट ऐसी मजबूत हस्तियों के कारण अलग पहचान बना चुका है जो सार्वजनिक तौर पर किसी आलोचना की परवाह नहीं करते. जस्टिस चंद्रचूड़ ने खुद को प्रगतिशील शख्स और नागरिक स्वतंत्रता के पैरोकार के तौर पर पेश किया. जस्टिस गवई की छवि अनुशासनप्रिय व्यक्ति वाली है, जो मर्यादाएं बहाल रखने के पक्षधर हैं. जस्टिस रॉय कहते हैं, ''कुछ न्यायाधीश अपनी छवि चमकाने के लिए सक्रिय तौर पर मीडिया का सहारा लेते हैं, जिसका खामियाजा कभी-कभी उनके सहयोगियों को भुगतना पड़ता है.''
बहरहाल, अगर ये झगड़े गुटबाजी में बदले तो सुप्रीम कोर्ट अपनी नैतिक सत्ता खो सकता है और बाहरी दखल की राह भी खुल सकती है. मतभेद केवल उन आलोचकों को ही सशक्त बनाते हैं कि जो 'सुधार' के नाम पर कार्यकारी नियंत्रण की मांग उठाते हैं. पिछले महीने इंडिया टुडे के 'देश का मिज़ाज' सर्वेक्षण से सामने आया कि दस में से सात भारतीय अब भी न्यायपालिका पर भरोसा रखते हैं. ये ईमानदारी और सामूहिक सद्भाव की भावना की वजह से हासिल की गई पूंजी हैं. न्यायाधीशों को इसका सम्मान करना चाहिए, न कि इसे गंवाने पर आमादा होना चाहिए.
टकराव के बिंदु
> पूर्व सीजेआइ चंद्रचूड़ सरकारी आवास में निर्धारित से ज्यादा समय तक रहने के लिए निशाना बने. सीजेआइ जस्टिस गवई ने एक भाषण में उन पर टिप्पणी की.
> सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक जज को सुनवाई से रोका; तो जजों ने इसे असंवैधानिक हस्तक्षेप बताया.
> जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने जस्टिस पंचोली की पदोन्नति का विरोध किया; असहमति सार्वजनिक होने से कॉलेजियम में गहराती दरारें उजागर.
> विपक्ष के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी के नक्सलवाद समर्थक होने की अमित शाह की टिप्पणी के खिलाफ आए 18 पूर्व जजों को 50 पूर्व जजों ने खरी-खोटी सुनाई.