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प्रधान संपादक की कलम से

संसद भवन में तोड़फोड़ के बाद उसमें आग लगा दी गई. राष्ट्रपति कार्यालय, सुप्रीम कोर्ट, पार्टी दफ्तर और यहां तक कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अलग-अलग नेताओं के घर भी बच नहीं सके.

24 सितंबर 2025 अंक
24 सितंबर 2025 अंक
अपडेटेड 15 अक्टूबर , 2025

—अरुण पुरी.

अमूमन 'जेन ज़ी’ शब्द सुनने पर किसी बड़े राजनैतिक विद्रोह की तस्वीर नहीं बनती. यह उस पीढ़ी को कहा जाता है जो 1990 के मध्य दशक के बाद पैदा हुई और जिसे डिजिटल दुनिया का वासी कहा जाता है. यह यूट्यूब, इंस्टाग्राम रील्स और ऐसे ही प्लेटफॉर्म्स पर पली-बढ़ी. नेपाल भी इससे अलग न था. वहां की नई पीढ़ी इतनी ज्यादा इन प्लेटफॉर्म्स की आदी हो गई थी कि जब इन्हें बैन करने की कोशिश हुई तो ऐसा लगा मानो इसी ने सरकार गिरा दी.

उस अचानक फैले हंगामे और हिंसा का यही छोटा-सा स्पष्टीकरण दिया गया जिसने पूरे हिमालयी देश को हिला दिया. पर जो तबाही हुई, उसने साफ कर दिया कि गुस्से की वजह कहीं गहरी और गंभीर थी. नौजवानों ने सत्ता के प्रतीकों पर पूरी ताकत से हमला बोला. संसद भवन में तोड़फोड़ के बाद उसमें आग लगा दी गई. राष्ट्रपति कार्यालय, सुप्रीम कोर्ट, पार्टी दफ्तर और यहां तक कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अलग-अलग नेताओं के घर भी बच नहीं सके.

बगावती मंजर जिस तेजी से एक गुबार में बदला वह हैरान कर देने वाला था. एक पूर्व प्रधानमंत्री और उनकी विदेश मंत्री पत्नी की पिटाई हुई. दूसरे पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी की आगजनी में लगी चोटों के चलते मौत हो गई. वित्त मंत्री को सड़कों पर दौड़ाया गया. एक सांसद के कपड़े उतार दिए गए. यह सब उस पीढ़ी के तपे हुए गुस्से की ओर इशारा था जो अब फटकर बाहर निकल आया था.

यह मान लेना कि सोशल मीडिया बैन ने ही नेपाल में इतनी बड़ी हिंसा भड़का दी, सतही सोच होगी. पहली नजर में तो यह ऐसा ही लगता है जैसे सोशल मीडिया की ताकत का कोई लाइव डेमो दिया गया हो कि कैसे यह लोगों के व्यवहार को बदल सकता है. नेपाल में ऑनलाइन ईकोसिस्टम खासा मजबूत है. लेकिन प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली शायद अंदाजा भी न लगा पाए कि शटडाउन इतना बड़ा धमाका कर देगा.

सच तो यह है कि सोशल मीडिया बैन आखिरी चिंगारी थी. इसके पीछे सालों का गुस्सा जमा था: भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और दिखावे में डूबे सत्ताधारी तबके के खिलाफ. वही तबका जिसने अच्छे शासन का वादा किया था पर दिया कुछ खास नहीं. सो, जैसा कि आंदोलनकारियों ने कहा, यह 'जेन ज़ी प्रोटेस्ट’ शासन की गंदगी साफ करने की कोशिश था, एक तरह का नैतिक शुद्धिकरण.

नेपाल में बदलाव की इस चाहत की जड़ में सबसे बड़ी समस्या वही पुरानी बेरोजगारी छिपी है. 2021 की जनगणना के मुताबिक, देश की करीब 56 फीसद आबादी 30 साल से कम उम्र की है और 42.5 फीसद 16 से 40 साल के बीच के कामकाजी उम्र वाले हैं. 2024 में नेपाल की कुल बेरोजगारी दर 10.8 फीसद थी. लेकिन जेन ज़ी यानी 15 से 24 साल के युवाओं में यह आंकड़ा 20.8 फीसद तक पहुंच गया, जो राष्ट्रीय दर से करीब दोगुना है.

इसकी वजह है नेपाल का बुनियादी ढांचे और राजनीति में पिछड़ापन. एशिया की सबसे खराब सड़क व्यवस्था, भ्रष्टाचार और राजनैतिक अस्थिरता ने मिलकर विदेशी निवेशकों को हमेशा दूर रखा. एफडीआइ का स्तर जीडीपी का सिर्फ 0.2 फीसद है, पूरे दक्षिण एशिया में सबसे कम. खेती और विदेशी मदद के अलावा नेपाल की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है प्रवासी नेपाली कामगारों की कमाई. करीब 2.96 करोड़ की आबादी में से अनुमानित 45 लाख लोग रोजगार की तलाश में भारत, खाड़ी के और सुदूर पूर्व एशियाई देशों में जा चुके हैं.

उनका भेजा पैसा यानी रेमिटेंस लगभग 14 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है, जो जीडीपी का 33 फीसद है. तीन-चौथाई से ज्यादा घर इन्हीं पैसों से चलते हैं. ऐसे घरों की कुल आमदनी का एक-तिहाई इन्हीं से आता है. इतने बड़े पैमाने की रेमिटेंस भी इस बेचैन पीढ़ी की उम्मीदों और सपनों को समेट नहीं पा रही. तभी तो गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा.

इस उथल-पुथल ने नेपाल में लोकतंत्र की नाजुक हालत को उजागर कर दिया. नेपाल 2008 में एक कठिन और ऐतिहासिक संघर्ष के बाद पूरी तरह संसदीय गणराज्य बना था पर अब तक वह अपने लोगों की आर्थिक उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया. वही पुराने चेहरे सत्ता पर कब्जा जमाए हुए हैं, कुर्सी की अदला-बदली का नीरस खेल खेलते हुए-से. 2008 से अब तक 13 प्रधानमंत्री बदल चुके हैं.

इनमें ओली और पुष्प कमल दहल 'प्रचंड’ चार-चार बार सत्ता में आए, जबकि शेर बहादुर देउबा पांच बार प्रधानमंत्री बने, जिनमें आंशिक राजशाही के दौर की भी गिनती शामिल है. मामला पेचीदा इसलिए भी है क्योंकि देश में जातीय खाई गहरी हैं. ऊंची जातियों (करीब 31 फीसद) ने सत्ता पर कब्जा कर रखा है, जबकि आदिवासी समूह और मधेसी उपेक्षा और अलगाव का शिकार हैं. नौकरियां और गरिमा देने में नाकाम राजनीति अब एक ऐसे गड्ढे में फंसी है जहां से बेचैन और बढ़ती युवा आबादी की उम्मीदों का जवाब देना असंभव-सा लगता है.

आज नेपाल के सामने चुनौती सिर्फ कानून-व्यवस्था बहाल करने की नहीं, बल्कि पूरे राजनैतिक तंत्र को बचाने की भी है. सेना ने अब तक सत्ता से दूरी बनाकर सराहनीय भूमिका निभाई है और स्थिति को शांत किया है लेकिन अंतरिम सरकार की तलाश मुश्किलों से भरी है और संविधान पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. संसद को तहस-नहस कर देने की घटना ने लोकतंत्र विरोधी धारा को उजागर कर दिया है, जिसे कई लोग पुरानी राजशाही समर्थक लॉबी से जोड़कर देख रहे हैं.

भाग निकले ओली ने एक बार फिर भारत को जिक्वमेदार ठहराया है, जो नेपाल की राजनीति का पुराना बहाना रहा है. हमारे ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा और डिप्टी एडिटर प्रदीप आर. सागर इस हफ्ते की कवर स्टोरी में नेपाल के राजनैतिक इतिहास के इस अहम मोड़ को समझाते हुए बता रहे हैं कि इस संकटग्रस्त मुल्क के आगे क्या रास्ते निकल सकते हैं. साथ ही, भारत के लिए इसके मायने भी. हालांकि नई दिल्ली ने अतीत में गलतियां की हैं, जैसे 2015 का व्यापार अवरोध. पर भारत के लिए आज सबसे बड़ी प्राथमिकता एक ही हो सकती है: खुले बॉर्डर के उस पार स्थिरता.

भारत के लिए इसमें एक गहरी सीख छिपी है. पड़ोसी मुल्क की बेरोगजार युवा शक्ति काठमांडो की सड़कों पर आग बनकर फट पड़ी. ऐसा ही कुछ 2024 में बांग्लादेश और 2022 में श्रीलंका में भी देखा गया था. वही खतरा हर उस राजनीति पर मंडराता है, जो नौजवानों को नौकरी, इज्जत और उम्मीद नहीं दे पाती. आज की जुड़ी हुई दुनिया में इस नाकामी का नतीजा पूरी पीढ़ी को बागी बना सकता है. और एक अहम बात साफ हो गई है: नई पीढ़ी सोशल मीडिया को अब बुनियादी हक मानती है. यही है नेपाल के जेन ज़ी विद्रोह का असली और टिकाऊ संदेश.

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