- अरुण पुरी
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ हमले ने भारत को अचानक सबसे ऊंचे टैरिफ स्लैब में धकेल दिया है. अमेरिका और उसके प्रतिद्वंद्वियों के बीच जो कभी दूर की व्यापारिक लड़ाई थी, अब हमें भी अपनी चपेट में ले चुकी है. इसके चलते सालों की मेहनत से बने बाजारों, बिजनेस और रोजगारों पर खतरा मंडरा रहा है.
सौभाग्य से बाकी अर्थव्यवस्था मजबूती के संकेत दिखा रही है. जब 27 अगस्त को 50 फीसद अमेरिकी टैरिफ लागू हुए, तभी एक अप्रत्याशित सकारात्मक खबर ने थोड़ी राहत दी. अप्रैल-जून तिमाही में भारत की जीडीपी ग्रोथ 7.8 फीसद रही, जो काफी मजबूत है और आधा से एक फीसद के अनुमानित 'टैरिफ झटके' को झेल सकती है.
इसके साथ ही, लंबे समय से अटके जीएसटी सुधार तेजी से लागू हो रहे हैं, जिससे नकदी प्रवाह बढ़ेगा और घरेलू मांग को बल मिलेगा. शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में पीएम मोदी की हाइ-प्रोफाइल मौजूदगी ने दिखाया कि दुनिया की बदलती व्यवस्था में भारत की अहमियत लगातार बढ़ रही है. विडंबना यह है कि महत्वपूर्ण एक्सपोर्ट सेक्टर, जो रोजगार और वृद्धि के स्तंभ जैसे हैं, अब गंभीर संकट की स्थिति में पहुंच गए हैं.
भारत के कुल 437 अरब डॉलर के मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट का करीब पांचवां हिस्सा यानी करीब 86.5 अरब डॉलर, वित्त वर्ष 25 में अमेरिका को गया. व्यापारिक संगठनों का अनुमान है कि ट्रंप टैरिफ का सामूहिक प्रभाव करीब 47.5 अरब डॉलर होगा, यानी एक्सपोर्ट मूल्य का 55 फीसद. यह महज आंकड़ा नहीं बल्कि देशभर के फैक्ट्री यार्ड्स में अचानक आई बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की तरह है.
राजस्व पर चोट हो रही है, बिजनेस मॉडल बिखर रहे हैं और लाखों रोजगार अचानक खतरे में हैं. चुनौती तुरंत हुए नुक्सान को संभालने की नहीं है, बल्कि नुक्सान की भरपाई करने और उद्यमियों का आत्मविश्वास फिर से जगाने की है. भारत की मजबूती की यही असल परीक्षा है.
इंजीनियरिंग गुड्स इंडस्ट्री पर सबसे ज्यादा मार पड़ी. 20 अरब डॉलर के साथ अमेरिका को हमारी एक्सपोर्ट बास्केट का यह सबसे बड़ा हिस्सा है. लघु और मझोली इकाइयों (एसएमई) के लिए यह झटका बेहद दर्दनाक रहा. मुंबई की ज्योति स्टील इंडस्ट्रीज चलाने वाले भाइयों, पंकज और मनोज चड्ढा, का ही उदाहरण लीजिए. 800 करोड़ रुपए के टर्नओवर वाली उनकी कंपनी को रातोरात 50 करोड़ रुपए की सेल्स का नुक्सान उठाना पड़ा.
उनके इंडोनेशिया, थाइलैंड और मलेशिया के प्रतिद्वंद्वी अब ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो गए हैं, क्योंकि उन पर टैरिफ 19 फीसद है. लैटिन अमेरिका, पश्चिम एशिया और अफ्रीका जैसे दूसरे बाजारों में शिफ्ट होना इतना आसान नहीं. पंकज समझाते हैं, ''अमेरिका अब भी पुराना मेट्रिक सिस्टम इस्तेमाल करता है. हमारी फैक्ट्री के सारे डाई और टूल्स उसी हिसाब से बने हैं.'' इस बीच, करीब 6 अरब डॉलर के नुक्सान का असर हजारों कंपनियों पर पड़ सकता है जिससे 15 लाख कामगारों का भविष्य दांव पर लग जाएगा.
अमेरिका में 10.8 अरब डॉलर की हिस्सेदारी वाला टेक्सटाइल सेक्टर में भी डर है. तिरुपुर के निटवेयर हब से दिल्ली-एनसीआर की बड़ी गारमेंट फैक्ट्रियों तक, छंटनी की तलवार लटक रही है. इस सेक्टर में 4.5 करोड़ लोग काम करते हैं. टीस और गहरी तब होती है जब दिखता है कि बांग्लादेश और वियतनाम जैसे सीधे प्रतियोगी देशों पर सिर्फ 20 फीसद टैरिफ लग रहा है.
हीरे का कारोबार भी मुश्किल में है. भारत ने वित्त वर्ष 25 में कटे और तराशे गए पत्थरों का करीब 16 अरब डॉलर का एक्सपोर्ट किया था, जिसमें अकेले 10 अरब डॉलर अमेरिका गया. पहले ही लैब-ग्रोन (कृत्रिम) हीरे की चुनौती से जूझ रहे सूरत और गुजरात के छोटे शहरों की मशहूर बेल्ट अब बिखराव के कगार पर है. विजय मंगुकिया जैसे आम एक्सपोर्टर, जिन्होंने शून्य से 60 करोड़ का बिजनेस खड़ा किया, आधा टर्नओवर खत्म होता देख रहे हैं. 15 फीसद टैरिफ वाले तुर्की के प्रतिद्वंद्वी अमेरिकी बाजार पर कब्जे के लिए तैयार खड़े हैं. यूरोप, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया शिफ्ट होना आसान हल नहीं है. करीब एक लाख कटर्स-पॉलिशर्स का भविष्य अंधेरे में है. यही हाल सीफूड एक्सपोर्ट का है. 2.8 अरब डॉलर का सीफूड अमेरिका भेजा जाता है, अब दो करोड़ मछुआरों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाएगी.
इस हफ्ते की कवर स्टोरी, ट्रंप के टैरिफ से हिल चुके 10 अहम सेक्टरों की तबाही का जायजा ले रही है, जिसे मैनेजिंग एडिटर एम.जी. अरुण ने देशभर से आए ब्यूरो इनपुट्स के साथ तैयार किया है. हजारों कंपनियां घटती ऑर्डर बुक्स, संभावित बंदी और छंटनी के खतरे से दो-चार हैं. असर साफ दिख रहा है: बंद मिलें, सन्नाटा पसरी वर्कशॉप्स और उन मजदूरों की आंखों में चिंता जिन्हें अपने कल का भरोसा नहीं. यहीं पर इंडिया टुडे जैसी पत्रिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, जो आंकड़ों से लदी कहानी को मानवीय चेहरा देती है. देखिए, उन लोगों को जिन पर ट्रंप की बेतुकी और पाखंडी नीतियों का सर्वाधिक असर होगा, जबकि पश्चिमी देश बेफिक्र होकर रूस से सस्ती ऊर्जा खरीद रहे हैं.
फिर भी, भारत ने ट्रंप के आगे घुटने नहीं टेके. सराहना की जानी चाहिए कि सरकार ने न तो भारत को गुलाम बनने दिया, न ही शिकार. 'ट्रंप टैरिफ के मारे' लोगों के लिए कुछ राहतकारी कदम उठाए जाने की संभावना है. लेकिन सरकार को सिर्फ ढाल नहीं बनना, बल्कि मददगार भी बनना होगा. दीर्घकालिक रणनीति डाइवर्सिफिकेशन आधारित होनी चाहिए. भारत अब किसी एक बड़े बाजार पर ज्यादा निर्भर नहीं रह सकता, चाहे वह कितना ही आकर्षक क्यों न हो. लेकिन डाइवर्सिफिकेशन का मतलब त्याग भी नहीं है. अमेरिका अब भी दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है. कोई रणनीति इसे नजरअंदाज नहीं कर सकती. बातचीत जारी है और सबसे अच्छा यही होगा कि सामान्य व्यापार बहाल हो. दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का एक विनाशकारी चक्र में फंसे रहना न सिर्फ अजीब है बल्कि आत्मघाती भी.
इतिहास गवाह है कि भारत की असली ताकत हमेशा उसके बदलने, नए रास्ते खोजने और डटे रहने की क्षमता में रही है. यह टैरिफ शॉक भी उसी क्षमता की एक और परीक्षा है. इसे सुधार और नए सिरे से शुरुआत के लिए कैटलिस्ट की तरह इस्तेमाल करना चाहिए.