
वैश्विक अर्थव्यवस्था महामारी के बाद अपने सबसे गंभीर संकट से जूझ रही है और भारत भी इसकी चपेट में है. यूक्रेन में रूस की घमासान लड़ाई, गजा पर इज्राएल की बमबारी और डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे राष्ट्रपति कार्यकाल में घातक टैरिफ की मार—एक व्यापक राजनैतिक उथल-पुथल ने वैश्विक व्यापार को अस्त-व्यस्त कर डाला है और निवेशकों का भरोसा डगमगा दिया है. इसने भारत की रफ्तार में भी अड़ंगा लगाया है.
दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था का तमगा बरकरार रखने के बावजूद देश की वृद्धि दर दूसरे गियर में अटकी हुई है: मार्च 2025 को समाप्त वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में औसतन 6.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और इस वर्ष के लिए भी पूर्वानुमान बहुत अच्छे नहीं लग रहे.
लिहाजा, इसमें ताज्जुब की बात नहीं जो मोदी सरकार के आर्थिक नेतृत्व में जनता का भरोसा डिगने लगा है. इंडिया टुडे के नवीनतम देश का मिज़ाज सर्वेक्षण के अनुसार, सरकार के अर्थव्यवस्था संभालने को 'उत्कृष्ट’ या 'अच्छा’ बताने वाले उत्तरदाताओं की रेटिंग अब 4.5 प्रतिशत अंक घटकर 47.8 प्रतिशत रह गई है जो फरवरी में 52.3 फीसद थी.

अगस्त 2023 के बाद से यह सबसे कम है. तब 46.6 प्रतिशत लोगों की ऐसी राय थी. इसी तरह, सरकार के प्रदर्शन को 'औसत’ या 'खराब/बेहद खराब’ मानने वालों की संख्या में क्रमश: 1.7 और 1.8 प्रतिशत अंक का इजाफा हुआ है. जैसे-जैसे आर्थिक चुनौतियां बढ़ रही हैं, सरकार की इनसे निबटने की क्षमता पर भी सवाल उठ रहे हैं.
जल्द ही आर्थिक बेहतरी होने के बारे में उम्मीदें टूटती दिख रही हैं. देश का मिज़ाज सर्वे में केवल 33.1 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि अगले छह महीनों में अर्थव्यवस्था में सुधार होगा. पिछले सर्वे की तुलना में इस बार के आंकड़े में मामूली कमी आई है और यह अगस्त 2023 के बाद से सबसे कम है. फिर भी निराशा के बीच भरोसे की एक किरण है: हालात स्थिर बने रहने या बिगड़ने की राय रखने वालों का अनुपात फरवरी में 56.9 प्रतिशत था जो घटकर अब 55 प्रतिशत रह गया है.
आर्थिक विश्वसनीयता में मोदी की कभी अपने पूर्ववर्ती पर जो अहम बढ़त थी, वह घटती दिख रही है. किसने अर्थव्यवस्था का बेहतर प्रबंधन किया है—नरेंद्र मोदी ने या मनमोहन सिंह ने? यह पूछे जाने पर केवल 44.6 प्रतिशत ने मोदी का समर्थन किया. यह आंकड़ा फरवरी के 51.1 प्रतिशत से कम है और अगस्त 2023 के बाद से सबसे कम. दूसरी ओर, मनमोहन सिंह के लिए समर्थन छह महीने पहले के 39.9 प्रतिशत से बढ़कर 43.1 प्रतिशत हो गया है.
व्यक्तिगत आर्थिक बेहतरी पर जनता की राय भी ऐसी ही कहानी बयान करती है: 33.7 प्रतिशत का कहना है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से उनकी वित्तीय स्थिति खराब हुई, यह आंकड़ा फरवरी में 30.9 प्रतिशत था. 33.1 प्रतिशत लोगों ने ही सुधार की बात कही, जो इस साल की शुरुआत में 34.9 प्रतिशत के मुकाबले मामूली गिरावट है.

बढ़ती गैर-बराबरी
मई में नीति आयोग के सीईओ बी.वी.आर. सुब्रह्मण्यम ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के आंकड़ों का हवाला देते हुए घोषणा की कि जापान को पीछे छोड़कर भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. कुछ विश्लेषकों ने इसके समय को लेकर सवाल उठाया और कहा कि भारत को यह उपलब्धि हासिल करने का आधिकारिक दावा करने में अभी कुछ महीने और लगेंगे. फिर भी ऐसी आपत्तियां पंडिताऊ ज्यादा लगती हैं.
जापान जैसे विकसित देश भारत की तुलना में बहुत धीमी गति से विकास कर रहे हैं, ऐसे में जर्मनी को पछाड़कर तीसरा स्थान हासिल करने के बारे में सहज सवाल हो सकता है कि यह कब हो रहा है. लेकिन इससे आम लोगों को क्या लेना-देना? देश का मिज़ाज सर्वे में इसका जवाब है-बहुत कम. यह पूछने पर कि चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होना क्या सार्थक उपलब्धि है या महज दिखावटी, लगभग आधे लोगों—49.5 प्रतिशत—ने इसे एक ऐसी सुर्खी से ज्यादा कुछ नहीं माना जिसका रोजमर्रा की जिंदगी पर कोई वास्तविक असर नहीं.
यह भी व्यापक धारणा है कि भारत की आर्थिक वृद्धि नीचे तक पहुंचने में विफल रही है. केवल 26.3 प्रतिशत लोगों का मानना है कि 'व्यापक रूप से’ सभी को लाभ हुआ है जबकि 42.5 प्रतिशत का कहना है कि फायदा केवल अमीरों को मिला है. अन्य 19.6 प्रतिशत की राय है कि मध्य वर्ग ही समृद्ध हुआ है. महामारी के बाद से आर्थिक असमानता ज्यादा बढ़ी है, जिससे अंग्रेजी के य अक्षर के आकार की रिकवरी हुई है—जहां अमीर आगे बढ़ जाते हैं और गरीब और पीछे चले जाते हैं. यह रुझान मौजूदा सर्वे में स्पष्ट नजर आता है.

मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचे पर बड़ा दांव लगाया है और वित्त वर्ष 2026 में सड़कों, पुलों और रेलवे के लिए 11.2 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए हैं. हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों को शहरी केंद्रों से जोड़ने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है. फिर भी प्रगति नजर आती है: 58.5 प्रतिशत का मानना है कि भारत की वैश्विक आर्थिक छवि उनके इलाकों में बुनियादी ढांचे और सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता में दिखने लगी है. फिर भी 32.3 प्रतिशत को भारत की ओर से पेश अंतरराष्ट्रीय छवि और जमीनी हकीकत के बीच भारी फासला दिखता है.
यह धारणा खत्म नहीं हो रही कि भारत की आर्थिक नीतियां मुख्य रूप से अमीरों और ताकतवरों के हित में हैं. बड़ी संख्या में—55.8 प्रतिशत—लोगों ने कहा कि मोदी सरकार बड़े कारोबारियों की तरफदार है जबकि पिछले सर्वे में यह आंकड़ा 51.2 प्रतिशत था. क्रमश: 9.8 प्रतिशत और 8 प्रतिशत लोग ही मानते हैं कि किसानों और छोटे उद्यमों को फायदा हुआ.
46.2 प्रतिशत का मानना है कि सरकार छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप को मदद देने में नाकाम रही है. जहां 29.4 प्रतिशत उत्तरदाता महसूस करते हैं कि मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी अहम योजनाओं से 'बड़ा भारी’ बदलाव आया है, वहीं 26.7 प्रतिशत ने कहा कि कोई असर नहीं हुआ है और 11.9 प्रतिशत का कहना है कि इन योजनाओं ने उनकी स्थिति और खराब कर दी है.
अनुपालन की लागत
यह कोई रहस्य की बात नहीं कि भारत में उद्यमियों को व्यवसाय शुरू करने से पहले ही केंद्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर अनुपालन के जाल से गुजरना पड़ता है. कंसल्टेंसी फर्म टीमलीज रेगटेक के एक श्वेतपत्र में पिछले साल बताया गया था कि भारतीय व्यवसाय 1,536 अधिनियमों से संचालित होते हैं, जिनमें 69,233 अनुपालन और 6,618 वार्षिक फाइलिंग शामिल हैं.
ये नियम केंद्र और राज्य दोनों के कानूनों का हिस्सा हैं और व्यवसायों तथा भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार अलग-अलग हैं. ये लगातार बदल भी रहे हैं, जो अक्सर व्यवसायों के लिए नुक्सानदेह होते हैं. निर्णय में देरी, बढ़ती लागत और उद्यम लगाने के उत्साह को लगते झटके के रूप में इसका संभावित असर दिखता है.
अचरज नहीं कि 48.3 प्रतिशत लोग नौकरशाही को भारत के आर्थिक विकास में अड़चन मानते हैं. बहुमत, 53.5 प्रतिशत, का कहना है कि व्यवसाय शुरू करना और चलाना मुश्किल है, जबकि 18 प्रतिशत इसे 'बहुत आसान’ मानते हैं. फिर भी सुधार की झलक नजर आती है: 54.1 प्रतिशत ने माना कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ने अनुपालन का बोझ घटाया है. जीएसटी स्लैब को चार से घटाकर दो करने के केंद्र के प्रस्ताव से चीजें और भी सहज होने की उम्मीद है.

नौकरियों की चुनैतियां
कारोबारी अनिश्चितताएं, एआइ-संचालित तकनीकों में उछाल और रूस से तेल मंगाने पर 25 प्रतिशत दंड समेत भारतीय निर्यात पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने का अमेरिका का कदम, इन सबसे नौकरियों के बाजार का मूड खराब होता जा रहा है. दक्रतरों में काम करने वाले पहले से दबाव महसूस कर रहे हैं: भारत की दिग्गज आइटी कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज में हाल ही हुई छंटनी को मोटे तौर पर इस क्षेत्र के लिए आने वाले मुश्किल समय का संकेत माना जा रहा है.
इससे वेतन की आगे की संभावनाओं पर बादल मंडरा रहे हैं. 34.7 प्रतिशत उत्तरदाताओं का अनुमान है कि अगले छह महीनों में उनका वेतन और घरेलू आमदनी स्थिर रहेगी, यह आंकड़ा पहले के 33.8 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है जबकि 30.3 प्रतिशत को स्थिति और बिगड़ने का अंदेशा है.
हालांकि खाद्य कीमतों में नरमी आई है जिससे जुलाई में महंगाई दर घटकर 1.55 फीसद रह गई है लेकिन स्थिर वेतन और नौकरी की असुरक्षा के कारण घरेलू बजट लगातार सिकुड़ रहा है. मुख्य आंकड़े, जिसे सालाना आधार पर मापा जाता है, से सिर्फ यह संकेत मिलता है कि कीमतें बढ़ तो रही हैं मगर धीमी गति से, इससे लागत में पूरी तरह से गिरावट का संकेत नहीं मिलता.
नतीजतन, 60.6 प्रतिशत उत्तरदाता कहते हैं कि रोजमर्रा के खर्चों का प्रबंध करने के लिए जूझना पड़ता है, हालांकि यह आंकड़ा पिछले सर्वेक्षण में ऐसा कहने वालों की तुलना में 3.7 प्रतिशत अंक कम है. इस बीच, 30.7 प्रतिशत ने बताया कि उनके खर्च बढ़े हैं. लेकिन उससे निबटा जा सकता है. यह आंकड़ा फरवरी के 27.5 प्रतिशत से ज्यादा है.
पिछले साल केंद्र ने बेरोजगारी से निबटने और शिक्षा तथा रोजगार के बीच की खाई पाटने के लिए प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना समेत कई पहल शुरू कीं. इसके तहत वित्त वर्ष 26 के लिए 10,831 करोड़ रुपए आवंटित किए गए ताकि 1 करोड़ युवाओं को इंटर्नशिप दी जा सके, खासकर उन युवाओं को जो शिक्षा, रोजगार या प्रशिक्षण में शामिल नहीं हैं.
फिर भी प्रगति सुस्त रही है. इसकी वजह नियामकीय बाधाएं और सीमित जागरूकता है. बेरोजगारी गंभीर है: 50.7 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने नौकरियों की स्थिति को 'बहुत गंभीर’ बताया, जो फरवरी के 55 प्रतिशत के मुकाबले थोड़ी सुधरी है, जबकि 20.8 प्रतिशत इसे 'कुछ हद तक गंभीर’ मानते हैं. अधिकांश (48.5 प्रतिशत) निजी क्षेत्र (8.5 प्रतिशत लोग) की तुलना में सरकारी नौकरियों को पसंद करते हैं. हालांकि 34.7 फीसद ने खुद का कारोबार चलाने को प्राथमिकता दी.
अर्थव्यवस्था सरकार के लिए लगातार सिरदर्द बनी हुई है. इस बार चुनौतियां कई गुना ज्यादा हैं और कुछ मामलों में केंद्र के नियंत्रण से बाहर भी. ऐसे में देश को उतार-चढ़ाव भरे इस दौर से उबारने के लिए मोदी सरकार से आर्थिक कुशाग्रता की उम्मीद की जाएगी.
36 फीसद
उत्तरदाताओं, जिनकी उम्र 18-24 साल है, ने मोदी सरकार के अर्थव्यवस्था को संभालने के काम को 'खराब’ या 'बहुत खराब’ आंका
49 फीसद
उत्तर भारत के लोगों का मानना है कि आर्थिक वृद्धि का फायदा केवल अमीरों को मिल रहा, यह सभी क्षेत्रों में सबसे ज्यादा है; पूर्वोत्तर के केवल 35 फीसद लोग ऐसा मानते हैं.