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देश का मिज़ाज सर्वे 2025 : दोराहे पर लोकतंत्र

भारत के लोग मानते हैं कि इन्फ्रास्ट्रक्चर और लोकहित के मामलों में तरक्की हुई है लेकिन वे लोकतांत्रिक संस्थाओं, भ्रष्टाचार और आपसी एकजुटता को लेकर चिंतित

हिंदी थोपे जाने के खिलाफ मुंबई में लगा एमएनए का एक पोस्टर
अपडेटेड 16 अक्टूबर , 2025

अगस्त 2025 के देश का ‌मिज़ाज या इंडिया टुडे मूड ऑफ द नेशन (एमओटीएन) सर्वे ने भारतीय लोकतंत्र की ऐसी तस्वीर पेश की है जो विरोधाभासों, बेचैनी और थोड़ी सी उम्मीद के बीच झूलती नजर आती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के 11 साल से चल रहे जीत के नैरेटिव के उलट ये नतीजे दिखाते हैं कि देश अपनी लोकतांत्रिक यात्रा पर गर्व तो करता है लेकिन उसके रास्ते को लेकर असहज भी है. जनता की राय एक तरफ इन्फ्रास्ट्रक्चर और गवर्नेंस में मिली ठोस कामयाबी को मान्यता देती है और दूसरी तरफ लोकतांत्रिक संस्थाओं की नाजुक हालत को लेकर चिंता भी जताती है. सरकार की बड़ी योजनाओं को समर्थन तो है, लेकिन उसके साथ भ्रष्टाचार, संस्थाओं की साख और सामाजिक एकजुटता पर बढ़ती आशंका भी है. यह इस बात का सबूत है कि मतदाता अब सरकार से सवाल किए बिना उस पर आंख मूंदकर भरोसा करने को तैयार नहीं है.

खुद लोकतंत्र को ही लें. करीब आधे यानी 48.3 फीसद लोगों का मानना है कि भारत का लोकतंत्र 'खतरे में' है, जो 2021 के बाद से अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. यह कोई अचानक नहीं हुआ बल्कि पहले हुए सर्वे से लगातार धारणा बदल रही है. जो चिंता कभी चिंता सी नहीं लगती थी वही अब लोगों की प्रमुख सेंटीमेंट सी बन गई है. दिलचस्प यह है कि ज्यादातर लोग अब भी मानते हैं कि उन्हें राजनीति और धर्म पर खुलकर अपनी राय रखने की आजादी है. यह विरोधाभास बहुत कुछ कहता है. भारतीय लोग निजी स्पेस या लोकल स्तर पर अपनी आवाज उठाते रहते हैं, लेकिन उन्हें साफ महसूस होता है कि लोकतंत्र की संस्थाएं, उस पर निगरानी रखने वाले संस्थान कमजोर हो रहे हैं. अब चिंता बोलने या न बोलने की नहीं हैं, बल्कि बोलने का कोई असर भी पड़ता है या नहीं, इस बात की है.

संस्थाओं को लेकर बेचैनी

सर्वे से पता चलता है कि भारत की संघीय संरचना में खींचतान बढ़ रही है. 43.2 फीसद लोग मानते हैं कि विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपाल राजनैतिक मकसद से काम करते हैं, जबकि 18.3 फीसद लोग आंशिक तौर पर इस बात से सहमत हैं. यह धारणा संविधान की उस बुनियादी सोच को चुनौती देती है जिसमें राज्यपालों को राज्य और केंद्र के बीच निष्पक्ष मध्यस्थ माना गया था.

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी लोगों के भीतर यही बेचैनी दिखती है. जब मोदी 2014 में सत्ता में आए थे तो उनका सबसे बड़ा वादा भ्रष्टाचार जड़ से खत्म करना था. लेकिन दस साल से ज्यादा बीतने के बाद 45.2 फीसद लोग मानते हैं कि उनकी सरकार ने भ्रष्टाचार कम किया है, जबकि 47.2 फीसद इससे असहमत हैं. यह बदलाव पिछले छह महीनों में आया है, जबकि इस मामले में सरकार को 10 अंकों की बढ़त हासिल थी. असल में 2024 के बाद से ही भ्रष्टाचार रोकने में सरकार को सफल मानने वालों का अनुपात तेजी से घटा है. इसके साथ ही 45.5 फीसद लोग कहते हैं कि भाजपा सरकार, पिछली सरकारों से भी ज्यादा ईडी और सीबीआइ जैसी एजेंसियों का राजनैतिक इस्तेमाल करती है. भ्रष्टाचार रोकथाम पर आशंका और एजेंसियों के दुरुपयोग पर बढ़ते शक, मिलकर उस नींव को हिला रहे हैं जिस पर सरकार सत्ता में आई थी. इसका मतलब है कि ''बाकियों से ज्यादा साफ-सुथरी'' वाली मोदी ब्रांड की छवि अब गंभीर दबाव में है.

सामाजिक उठापटक

पहचान और संस्कृति के सवाल पर मतदाता गहराई से बंटा हुआ नजर आता है. सामाजिक बराबरी के लिए आरक्षण को चौथाई से ज्यादा लोग जरूरी मानते हैं, लेकिन लगभग उतने ही लोग इसे पूरी तरह खत्म कर देने के पक्ष में हैं. सबसे बड़ी संख्या इनके बीच है, जो कहती है कि आरक्षण व्यवस्था में सुधार की जरूरत है. यह बीच का हिस्सा अहम है. इसमें न तो आंख मूंदकर बचाव है और न ही पूरी तरह विरोध, बल्कि एक नई तरह का संतुलन बनाने की मांग है. यह सबूत है कि आरक्षण पर बहस अब नए दौर में पहुंच चुकी है, जहां पीढ़ियों और वर्गों की बेचैनियां जातिगत राजनीति से मिल रही हैं.

इतिहास और भाषा का मसला भी उतना ही पेचीदा है. 71.9 फीसद लोग इतिहास की किताबें दोबारा लिखने का समर्थन करते हैं, लेकिन इनमें आधे (36 फीसद) मानते हैं कि इतिहास को 'गलत तरीके से पेश' किया गया है और लगभग उतने ही (35.9 फीसद) चिंता जताते हैं कि इसमें राजनैतिक दखल दिया गया है. यह दिखाता है कि इतिहास जहां वैचारिक वैधता का अखाड़ा बन चुका है, वहां भारतीय लोग अपने अतीत की फिर से जांच तो चाहते हैं लेकिन वे इस बात से भी चिंतित हैं कि कहीं यह प्रक्रिया राजनैतिक फायदे के लिए हाइजैक न हो जाए.

भाषा के मामले पर लोग ज्यादा व्यावहारिक दिखते हैं. बड़ी संख्या में उनका मानना है कि लोकल भाषा सीखना ‌‌जिंदगी आसान बनाता है, लेकिन ज्यादातर लोग इसे थोपे जाने के खिलाफ हैं. यानी भारतीय रोजाना कई तरह की पहचान के बीच संतुलन साधते हैं, लेकिन भाषा की बात पर वे दबाव नहीं, अपनी मर्जी को तरजीह देते हैं.

डिजिटल ध्रुवीकरण के इस दौर में 81.4 फीसद लोग मानते हैं कि सोशल मीडिया पर फैलने वाली गलत जानकारी और नफरती भाषण को रोकने के लिए सरकार को सख्त नियम बनाने चाहिए. एक तरह की यह सर्वसम्मति, पार्टी वफादारी और डेमोग्राफी की सीमाओं से परे है और दिखाती है कि लोग ऑनलाइन बातचीत की जहरीली फिजा से थक चुके हैं.

महिलाओं की सुरक्षा को लेकर देश लगभग बराबर बंटा हुआ है. कुछ लोग मानते हैं कि हालात बेहतर हुए हैं तो कुछ का मानना है कि हालात और बिगड़े हैं. दोनों ही नजरियों में एक बात साफ है कि बहुत ठोस तरक्की नहीं हुई, और अक्सर यह राजनैतिक चश्मे से देखी जाती है.

ब्यूरोक्रेसी को लेकर आम लोगों की झुंझलाहट साफ झलकती है. लोग योजनाओं से मिली सुविधाओं का ‌जिक्र तो करते हैं लेकिन रिश्वत और अड़चनों की बात भीकरते हैं. 

कभी गवर्नेंस के रामबाण बताए गए सामाजिक सुधार अब अपनी चमक खोते दिख रहे हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए समर्थन हाल के बरसों में काफी कम हुआ है. इसी तरह 'वन नेशन, वन पोल' का आइडिया अब भी मजबूत है लेकिन लोगों का जोश पहले जैसा नहीं रहा. वक्फ ऐक्ट में बदलाव, जिससे धार्मिक संपत्तियों पर सरकार का ज्यादा कंट्रोल हो, उस पर भी अब शक और सवाल बढ़ रहे हैं.

इसी तरह किसानों के लिए कानूनी गारंटी वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का 75.5 फीसद के साथ अब भी भारी समर्थन है, लेकिन यह आंकड़ा फरवरी के 86.6 फीसद तुलना में कम हुआ है. यह दिखाता है कि कृषि संकट के प्रति सहानुभूति रखते हुए लोग अब राजकोषीय चिंता को समझने लगे हैं. 

एक और अहम राय सामाजिक सद्भाव और सुरक्षा को लेकर सामने आई है. सांप्रदायिक रिश्तों पर थोड़े से कुछ ही ज्यादा लोग मानते हैं कि एनडीए सरकार में हालात बेहतर हुए हैं. लगभग उतने ही लोग कहते हैं कि हालात बिगड़े हैं और इनमें से हर चार में से एक सीधे भाजपा-आरएसएस को इसकी वजह मानता है.

उम्मीद की झलक

पर कुछ चीजें उम्मीद जगाती हैं. जैसे सरकार के इन्फ्रास्ट्रक्चर पुश को लोग मान्यता दे रहे हैं और करीब 50 फीसद लोग सड़कों की क्वालिटी से संतुष्ट हैं. यह देशभर में हाइवे और एक्सप्रेसवे के निर्माण की कामयाबी की मिसाल है. जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया भर में बढ़ती चिंताओं के बीच भारतीय एक आत्मविश्वास भरे सुकून में दिखते हैं. आधे से ज्यादा लोग मानते हैं कि देश पर्यावरण बचाने के लिए पर्याप्त काम कर रहा है.

सबसे बड़ा समर्थन न्यायपालिका को मिला है, जिसे अक्सर लोकतंत्र की रक्षा का अंतिम पहरुआ माना जाता है. कुल 71 फीसद लोग कहते हैं कि उन्हें न्यायपालिका पर या तो बहुत ज्यादा या कुछ हद तक भरोसा है. लेकिन यह भी सच है कि करीब 59 फीसद रिस्पॉन्डेंट अदालतों पर पूरा भरोसा नहीं करते. यह बताता है कि लोग देर से मिलने वाले इंसाफ और न्यायपालिका के राजनीतिकरण की धारणा से झुंझलाहट महसूस कर रहे हैं.

सर्वे यह दिखाता है कि मतदाता सिस्टम को खारिज नहीं कर रहे बल्कि उसके साथ नए सिरे से रिश्ते तय कर रहे हैं. भारत अब भी बड़े जनादेश और बड़े वादों वाला देश है, लेकिन नागरिक सिर्फ दूर से ताली बजाकर खुश होने को तैयार नहीं हैं. वे नाकामियों को अब महज महत्वाकांक्षा की कीमत मानकर नजरअंदाज करने के मूड में नहीं हैं. मतदाता अब भी स्ट्रक्चरल सुधारों का समर्थन करते हैं, मजबूत लीडरशिप की कद्र करते हैं और अपनी लोकतांत्रिक आजादी पर गर्व करते हैं, लेकिन अब वे चाहते हैं कि विजन के साथ इंसाफ और बड़े आइडिया पर ईमानदारी के साथ अमल भी हो.

31 फीसद ओबीसी उत्तरदाताओं का कहना है कि उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में जाति-आधारित आरक्षण हटा देना चाहिए

91 फीसद दक्षिण भारत के लोगों का मानना है कि जिस राज्य में आप रहते हैं, वहां की स्थानीय भाषा सीखना और बोलना जरूरी

53 फीसद लोगों का मानना है कि भारत पर्यावरण को बचाने के लिए पर्याप्त कोशिश कर रहा; 36 फीसद लोग इससे सहमत नहीं

45 फीसद पूर्वोत्तर के लोगों का कहना है कि भारत महिलाओं के लिए कम सुरक्षित हो गया है, यह बाकी क्षेत्रों के मुकाबले सबसे अधिक है

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