scorecardresearch

दो युवा उद्यमियों ने कैसे पुराने जूतों से गरीब बच्चों में जगाई नई उम्मीद

रमेश धामी और श्रीयंस भंडारी पुराने और बेकार जूतों से काम के जूते, स्कूल बैग और मैट वगैरह बना रहे, जिससे गरीब बच्चों को उम्मीद मिल रही है.

78 Years of independence  the micromoguls
रमेश धामी और श्रीयंस भंडारी मुंबई में बटोरे गए पुराने जूतों के साथ
अपडेटेड 24 सितंबर , 2025

मैराथन दौड़ने वाले श्रीयंस भंडारी और रमेश धामी उन दिनों एक अजीब समस्या से जूझ रहे थे. वे हर साल कई जोड़ी जूते इस्तेमाल करते थे, जिससे उनके पास पुराने जूतों का ढेर लग जाता था. भंडारी कहते हैं, ''हम पुराने जूतों को रिसाइकल करना चाहते थे लेकिन तब इन्हें दोबारा इस्तेमाल करने और नया रूप देने का कॉन्सेप्ट ही लोगों के लिए अनसुना था.’’

उदयपुर के रहने वाले भंडारी अपनी पढ़ाई के लिए मुंबई आए थे. वहीं उनकी दोस्ती धामी से हुई. धामी महज नौ साल की उम्र में उत्तराखंड के अपने गांव से भागकर मुंबई आए थे क्योंकि उन्हें फिल्मों में अभिनय करना था. दोनों को एक-दूसरे से जोड़ने वाली एक ही चीज थी, दौड़ने का उनका साझा जुनून.

दोनों ने मिलकर 2016 में ग्रीनसोल फाउंडेशन की शुरुआत की, ताकि पुराने जूतों को चप्पल और नए फुटवियर में बदला जा सके. इसकी ज्यादातर फंडिंग सीएसआर डोनेशन से आती है. अब वे फेंके गए फ्लेक्स बोर्ड, बैनर और पुराने कपड़ों से बैग और मैट भी बनाते हैं.

बनाए गए जूते और चप्पल उन बच्चों को मुफ्त दिए जाते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं. जैसे पुणे के पास पीरांगुट स्थित जिला परिषद प्राइमरी स्कूल के बच्चे, जो अक्सर कई किलोमीटर नंगे पैर या फिर ढीले-ढाले जूतों में स्कूल जाते थे. वहीं बैग उन पुराने झोलों या टूटे-फूटे थैलों की जगह लेते हैं जिनमें बच्चे अपनी किताबें रखते थे. भंडारी कहते हैं, ''इससे बच्चों को स्कूल जाने की प्रेरणा मिलती है.’’

धामी ने सालों तक सड़क पर रहकर गुजारा किया था. उसके बाद उन्हें एक स्वयंसेवी संस्था ने अपना लिया था. वे याद करते हैं कि दूसरे तमाम बेसहारा बच्चों के साथ नंगे पैर रेलवे ट्रैक पर चलते हुए किस तरह से वे प्लास्टिक की बोतलें और कबाड़ इकट्ठा करते थे. अक्सर उनके पैरों में नुकीली चीजें या टूटे बीयर की बोतलों के टुकड़े चुभ जाते थे.

दुनिया भर में हर साल करीब 35 करोड़ जोड़ी जूते फेंक दिए जाते हैं, जबकि करीब 1.5 अरब लोग उन बीमारियों से पीड़ित होते हैं जिन्हें सही जूते पहनकर रोका जा सकता है. धामी कहते हैं, ''दुनियाभर में सिर्फ 3 फीसद जूतों को ही अपसाइकल किया जाता है, बाकी सीधे लैंडफिल में चले जाते हैं.’’ असली चुनौती यही थी कि इन जूतों को‌ रिसाइकल करके उन लोगों तक पहुंचाया जाए जो नए खरीदने की क्षमता नहीं रखते.

ग्रीनसोल ने पूरे भारत में 15 से ज्यादा कलेक्शन सेंटर खोले हैं जहां लोग अपने पुराने जूते दान कर सकते हैं. भंडारी के मुताबिक, अमेजन और एडिडास जैसी कंपनियां भी अपने रिजेक्टेड या रिटर्न किए हुए जूते उन्हें दे देती हैं. अब तक फाउंडेशन ने सात लाख से ज्यादा अपसाइकल किए हुए जूते बांटे हैं.

भंडारी कहते हैं, ''वरना ये सब जूते लैंडफिल में चले जाते.’’ अब दोनों का लक्ष्य है कि 2026 तक 10 लाख से ज्यादा जूते बांटे जाएं. साथ ही महाराष्ट्र और कर्नाटक में स्किलिंग सेंटर खोलने की योजना है ताकि लोकल कम्युनिटी को ट्रेनिंग और रोजगार मिल सके. इसके अलावा वे फॉर-प्रॉफिट रिटेल बिजनेस में भी उतरने की सोच रहे हैं. उनकी देखरेख में फेंके हुए जूतों को चलने के लिए नई ‌‌जिंदगी मिल रही है.

Advertisement
Advertisement