श्रुति मलिक ओबेरॉय ने 2012 में एक ऐसा साहसी फैसला किया, जिसने न केवल उनकी बल्कि उनके आसपास के सैकड़ों लोगों की जिंदगियों को नए सांचे में ढाल दिया. गुरुग्राम में सेपिएंट नाइट्रो नाम की एक फर्म में कामयाब कार्यकाल के बाद वे कॉर्पोरेट जगत की धकापेल और शहर की बावरी भागदौड़ से बाहर निकल आईं.
उनका दिल हरियाणा के अपने गृहनगर यमुनानगर में बसा था, जहां वे प्रियजनों के करीब रहकर कुछ गहरा सार्थक काम कर सकती थीं. वह जो महत्वाकांक्षाओं को तिलांजलि देने जैसा लग रहा था, दरअसल उद्यमिता के प्रेरणादायी सफर की शुरुआत था. 35 वर्षीया श्रुति कहती हैं, ''मैं नौ से पांच की कॉर्पोरेट नौकरी करने की बजाए हमेशा कुछ ऐसा करना चाहती थी जिसका लोगों की जिंदगी पर असर पड़े.’’
उन्होंने यह फैसला उस वक्त किया जब कौशल विकास के प्रति जागरूकता राष्ट्रीय स्तर पर अंगड़ाई ले रही थी. कौशल की खाई को पाटने के लिए भारत आक्रामक नवाचारों में जुटा था. ग्रामीण युवाओं को आधुनिक नौकरियों के हिसाब से तैयार करने के लिए सरकार और उद्योग नए कार्यक्रम लॉन्च कर रहे थे.
श्रुति ने इस लहर को जल्द पहचानकर कौशल विकास के पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप अपने को ढाला. इस तरह आइरिस लर्निंग्स का जन्म हुआ, जो जमीनी स्तर पर युवाओं को ताकतवर बनाने का प्रयोग है. शुरू में उन्होंने खेतिहर मजदूरों को ट्रैक्टर चलाने और मरम्मत करने का प्रशिक्षण दिया, फिर प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत ट्रैक्टर खरीदने में मदद की. दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (डीडीयू-जीकेवाइ) जैसी सरकारी योजनाएं जल्द ही इस मिशन में उनकी साझेदार बन गईं.
एक दशक बाद श्रुति के कामकाज का दायरा काफी बढ़ चुका था. उन्होंने शादी भी कर ली और पति के पारिवारिक उद्यम—ओबेरॉय वुड प्रोडक्ट्स (ओडब्ल्यूपी)—की बैलेंस शीट का फायदा उठाते हुए उन्होंने अपना असर और गहरा कर लिया. आइरिस लर्निंग्स चलाने के साथ उन्होंने उस कंपनी के भीतर एक नया वर्टिकल बनाया वर्ना वह तो बस प्लाइवुड का कारोबार करने वाली कंपनी थी.
इस बार उनका जोर गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे परिवारों की ग्रामीण महिलाओं पर था. आज ओडब्ल्यूपी सरकार की योजनाओं से जुड़े कार्यक्रम संभालती है, तो आइरिस कॉर्पोरेट घरानों के लिए कौशल विकसित करती है. श्रुति बताती हैं, ''सरकारी परियोजनाओं में मुनाफा कम और नियम-कायदे बहुत ज्यादा होते हैं.
इसलिए हमने यह अलग से करने का फैसला किया.’’ बाजार में खासी मांग वाले कामों—शोरूम होस्ट, कंप्यूटर ऑपरेटर, डेटा एंट्री ऑपरेटर, कस्टमर हैंडलिंग—के लिए एहतियात से डिजाइन किए गए प्रशिक्षण के जरिए वे पक्का करती हैं कि युवतियां न केवल प्रशिक्षित बल्कि पहले दिन से ही काम के लिए तैयार हों.
पूरी तरह आवासीय मॉडल उनकी पहल को दूसरों से अलग बनाता है. ये लड़कियां तीन से चार महीने हॉस्टल्स में रहती हैं जहां रहना, खाना, यूनिफॉर्म और किताबें सरकारी योजनाओं के तहत मुफ्त मिलते हैं.
नतीजे कायापलट की शक्ल में सामने आए. अभी तक 280 ग्रामीण लड़कियों को प्रशिक्षित किया गया है, जिनमें से 210 को अमेजन, फ्लिपकार्ट, रॉयल एनफील्ड, हीरो मोटोकॉर्प, ब्लिंकिट के अलावा अव्वल बीपीओ में नौकरी मिल चुकी है. आइरिस लर्निंग्स के जरिए श्रुति ने सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के ईको सिस्टम का भी फायदा उठाया और हीरो के साथ 910 लड़कियों को प्रशिक्षण देने की साझेदारी कायम की, जिनमें से 640 को नौकरी मिल गई. उनकी पहल ने बीते एक दशक में 18,000 से ज्यादा जिंदगियों पर असर डाला.
आंकड़ों के पीछे साहस और बदलाव की कहानियां छिपी हैं. वर्षा कुमारी को ही लीजिए, जो नजदीकी भगवानपुर गांव के किसान की बेटी हैं. श्रुति के कार्यक्रम से जुड़ने तक वे गांव से बाहर नहीं गई थीं. आज वे फ्लिपकार्ट में काम करते हुए 14,000 रुपए महीना कमाती हैं. आमदनी से वे न केवल परिवार को सहारा देती हैं बल्कि अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्चा भी उठा रही हैं.
श्रुति का रोडमैप साफ है: प्रशिक्षण कार्यक्रमों का पूरे राज्य में विस्तार करना, प्लेसमेंट के स्रोतों को बढ़ाना और पर्यावरण के अनुकूल आजीविकाओं को उतना ही सुलभ बनाना जितना वे आकांक्षाओं से ओतप्रोत हैं. उनकी कहानी याद दिलाती है कि असल विकास बोर्डरूम में नहीं बल्कि तब शुरू होता है जब हाशिए पर रहने वालों को ऊपर उठने का हुनर, आत्मविश्वास और गरिमा दी जाती है.