जशपुर के हरे-भरे और अब तक अपनी प्राकृतिक अवस्था में रहे जंगलों से निकला नाम जशप्योर सिर्फ एक ब्रांड नहीं बल्कि 50 से ज्यादा महिला स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की साझा पहचान है. फरवरी 2024 में तत्कालीन जिला कलेक्टर रवि मित्तल ने इस पहल की शुरुआत की थी.
इसका उद्देश्य एसएचजी को अपने उत्पाद बेचने में आने वाली मुश्किलों से बाहर निकालना और आदिवासी समुदायों को उनके संसाधित (प्रोसेस्ड) सामान के लिए बाजार उपलब्ध कराना है. नाम के मुताबिक, जशप्योर शुद्धता का प्रतीक है, एक ऐसी गुणवत्ता जो इन आदिवासी इलाकों में आसानी से कायम है क्योंकि यहां की मिट्टी मैदानों की तुलना में रासायनिक खादों से कम प्रभावित है.
जय जंगल फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी के डायरेक्टर समर्थ जैन बताते हैं, ''एसएचजी के सामने आने वाली सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उनके उत्पादों को खरीदार नहीं मिल पाते. इसकी वजह है लंबी अवधि तक सही मार्गदर्शन और सहयोग (हैंडहोल्डिंग) न मिल पाना. इसके अलावा महिलाओं को ब्रांडिंग, पैकेजिंग और मार्केटिंग जैसे बिजनेस से जुड़े पहलुओं की पूरी जानकारी नहीं होती.’’
36 वर्षीय जैन जोड़ते हैं, ''खाद्य उत्पाद बेचने के लिए बहुत कागजी काम करना पड़ता है, रिटर्न भरनी होती है और राज्य तथा केंद्र की एजेंसियों से मंजूरी लेनी होती है. यह ऐसी कवायद है जिन्हें स्थानीय लोग, खासकर आदिवासी न तो अफोर्ड कर सकते हैं और न ही आसानी से समझ सकते हैं. जशप्योर इसी फासले को पाटने की कोशिश है.’’
एसएचजी के उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने में आने वाली दिक्कतें कैसे दूर की गईं? जैन बताते हैं, ''हमने शुरुआत बुनियादी ट्रेनिंग से की. एसएचजी की सदस्यों को सिखाया कि प्रोफेशनल ढंग से काम कैसे करना है, तय समय पर काम पर पहुंचना क्यों जरूरी है, लंच ब्रेक सीमित क्यों होना चाहिए और खाद्य उत्पादों की शुद्धता बनाए रखने का विज्ञान क्या है.’’
यह ट्रेनिंग हरियाणा के सोनीपत स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फूड टेक्नोलॉजी आंत्रप्रेन्योरशिप ऐंड मैनेजमेंट में हुई, जहां हाइजिन और पैकेजिंग पर खास जोर दिया गया. जैन के शब्दों में, ''आज एक बड़ा बाजार ऐसा है जो शुद्ध खाद्य उत्पाद चाहता है, जिसमें न केमिकल हो, न एडिटिव्स, न मिलावट. एसएचजी सदस्य ज्यादातर उरांव और पहाड़ी कोरवा जनजातियों से हैं, जो कच्चे माल की खेती पारंपरिक तरीकों से करते हैं. जशप्योर उनकी मदद करता है ताकि वे इन उत्पादों की पैकेजिंग करके शहरी ग्राहकों तक बेच सकें.’’
सारे उत्पाद पूरी तरह स्थानीय हैं और इसका लगभग 25 फीसद हिस्सा महुआ से बने उत्पादों का है. इसमें महुए का रस (शहद या मेपल सीरप का विकल्प) और लड्डू शामिल हैं. महुए का फल औषधीय गुणों वाला होता है और इससे सिर्फ शराब ही नहीं, बल्कि तरह-तरह के खाद्य पदार्थ भी बनाए जा सकते हैं. महुए के उत्पादों के अलावा इसमें शहद, गाढ़ा च्यवनप्राश, परंपरागत ढेकी के जरिए धान कूटकर निकाला गया चावल (मिल में नहीं), चाय, हर्बल चाय, मोटे अनाज की कुकीज, कोल्ड-प्रेस्ड तेल, घी और पास्ता जैसे कई सामान भी हैं.
कम समय में ही जशप्योर ने इससे जुड़े स्वयं सहायता समूहों की आमदनी बढ़ानी शुरू कर दी है. एक छोटा लेकिन असरदार कदम था महुआ फल बीनने वालों को जाल (नेट) उपलब्ध कराना. पेड़ों के चारों तरफ बांध दिए जाने वाले इस जाल की बदौलत फल जमीन पर गिरकर खराब नहीं होते.
इससे संग्रह की दक्षता भी बढ़ गई. लोग पेड़ के इर्द-गिर्द लगे जाल से महुए के फूलों को चुन लेते हैं. अब एक व्यक्ति पहले की तरह सिर्फ तीन-चार पेड़ों से नहीं, बल्कि कई पेड़ों से महुआ बीन सकता है. साथ ही बिना खराब हुए फल की कीमत भी ज्यादा मिलती है, आमतौर पर करीब 20 रुपए किलो.
अब अगली चुनौती है बड़ा बाजार खोजना. इसके लिए एसएचजी सदस्य विभिन्न फूड फेस्टिवल्स में ले जाए गए, जहां उन्होंने अपने स्टॉल लगाए और सीधे खरीदारों से संपर्क किया. यह कदम जशप्योर के उत्पादों का स्वाद और उनकी शुद्धता को जशपुर के जंगलों से कहीं दूर तक ले जाने की कोशिश है.
खाद्य उत्पादों के बारे में आदिवासी समुदायों की जानकारी को सही मार्गदर्शन और सहयोग की जरूरत थी ताकि उनके तैयार किए उत्पाद दूसरे स्थापित ब्रांडों से मुकाबला कर सकें. इसके बिना उन्हें खरीदार नहीं मिल पाते. जशप्योर ने इसी अंतर को पाटने की कोशिश की है.