उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ के चिलबिला चौराहे से पट्टी की ओर जाने वाली सड़क पर तीन किलोमीटर चलने पर बाईं ओर स्थित इकलौती फैक्ट्री ने इस शहर को एक नई पहचान दिलाई है. यहां एक छत के नीचे आंवला, बेल और जामुन जैसे पारंपरिक भारतीय फलों से बने खाद्य उत्पाद सात समंदर पार तक पहुंचने लगे हैं.
यह उपक्रम है आलोक कुमार खंडेलवाल का. आंवले को कुटीर उद्योग से निकालकर मशीनों से संवारकर एक नई पहचान दिलाने का उनका यह सफर कई उतार-चढ़ावों के बाद यहां तक पहुंचा है. प्रतापगढ़ में पलटन बाजार के रहने वाले 55 वर्षीय खंडेलवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.कॉम और वकालत की पढ़ाई के बाद सिविल सेवा परीक्षा में भी भाग्य आजमाया पर कामयाब नहीं हुए.
प्रतापगढ़ लौटने के बाद उनके पास कपड़े के पुश्तैनी कारोबार से जुड़ने का मौका था लेकिन वे कुछ नया करना चाहते थे. इसी सोच को लेकर उन्होंने प्रतापगढ़ में आसानी से उपलब्ध आंवले से जुड़े उत्पादों के व्यवसाय में कदम रखा. 1999 में खंडेलवाल फूड प्रोडक्ट्स नाम की कंपनी बनाई और बैंक से लोन लेकर 14 बिस्वा जमीन खरीदी. कुछ किसानों और कारीगरों को साथ जोड़ा और प्रयोग के तौर पर एक क्विंटल आंवले का मुरब्बा बनाया.
मुरब्बा बना और बिका भी मगर आलोक को यह भी समझ आ गया कि अगर इस व्यवसाय में आगे बढ़ना है तो इसे परंपरागत शैली से बाहर निकालना होगा. आलोक ने मैसूर जाकर सेंट्रल फूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट और इसके बाद लखनऊ के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर सबट्रॉपिकल हॉर्टीकल्चर से फलों और सब्जियों की प्रोसेसिंग का प्रशिक्षण लिया.
आलोक ने आंवला और अन्य उत्पादों को बाजार में लाने के लिए 'इंडिका’ नाम रजिस्टर करा लिया. इसके लिए उन्हें टाटा समूह से लड़ाई भी लड़नी पड़ी. 12 साल कानूनी लड़ाई के बाद यह तय हो गया कि आलोक की कंपनी अपने फूड आइटम के लिए 'इंडिका’ नाम का उपयोग करेगी.
आंवले का मुरब्बा बनाने में सबसे बड़ी समस्या उसकी गोदाई की थी. मजदूरों के हाथ से गोदाई करवाने पर एकरूपता नहीं रहती और मुरब्बे का स्वाद भी बदल जाता था. आलोक ने दिल्ली से आंवला गोदाई की खास तरह की फैब्रिकेटर मशीन तैयार करवाई. इसके अलावा 2002 में पहली बार ब्वायलर, कैटल्स, ड्रायर जैसी मशीनों से आंवले का मुरब्बा बनाना शुरू किया. अब 'इंडिका’ में तैयार आंवले के मुरब्बे का एक-सा स्वाद लोगों को पसंद आने लगा.
बिजनेस आगे बढ़ने पर 2014 में आलोक ने फैक्ट्री में आंवले को गर्म करने के लिए 'ब्लांचर’, ठंडा करने के लिए कूलिंग टैंक, एलिवेटर, कन्वेयर मशीनों के अलावा 400-400 लीटर के 25 टैंक लगवाए. इन टैंकों में लोहे की दो चादरों के बीच ठंडा पानी बहता है ताकि आंवला ठंडा रह सके. ठंडे पानी की सप्लाइ के लिए फैक्ट्री की छत पर कोल्ड वाटर टैंक भी लगवाया गया. अब आंवले का मुरब्बा पूरी तरह से मशीनों के जरिए ही बनने लगा. इस तरह आंवला और इससे जुड़े उत्पादों को पूरी तरह मशीनों से तैयार करने वाली खंडेलवाल फूड प्रोडक्ट्स पहली कंपनी बनी.
मधुमेह रोगियों के लिए आलोक ने बहुत कम चीनी में तैयार आंवले का मुरब्बा बाजार में उतारा. कंपनी की रेंज में आंवला मुरब्बा, कैंडी, जूस, पाउडर, चटनी, चूरन, माउथ फ्रेशनर और सुपारी से लेकर बेल कैंडी, बेल प्रिजर्व और जामुन बार तथा पाउडर तक शामिल हैं. देश में पहली बार आंवला बर्फी का निर्माण आलोक के दिमाग की उपज थी. आलोक के ही शब्दों में, ''आंवले का मुरब्बा खाने में काफी मीठा और भारी होता है.
ऐसे में बहुत कम चीनी वाली आंवला कैंडी, बर्फी लोगों को काफी पसंद आई. बिना किसी प्रिजर्वेटिव के बनने वाले ये उत्पाद लंबे समय तक खराब नहीं होते. इस कारण विदेशों में भी इनकी काफी मांग है.’’
यह उद्यम ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देने का जरिया बन गया है. कंपनी ने आंवला और बेल के स्थानीय किसानों को स्थायी बाजार दिया है. इससे करीब 60 से ज्यादा किसान सीधे तौर पर जुड़े हैं, साथ ही 100 से ज्यादा कर्मचारियों को रोजगार मिला है जिनमें आधे से ज्यादा महिलाएं हैं.
कंपनी का नेतृत्व एक पेशेवर टीम करती है जिसमें खाद्य विश्लेषक, गुणवत्ता जांच विशेषज्ञ और प्रशासनिक कर्मचारी शामिल हैं. भारत के साथ-साथ इसके ग्राहक ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पूर्वी एशिया, पश्चिम एशिया, कनाडा और अमेरिका तक फैले हैं. इस विस्तार की बुनियाद कंपनी की सुव्यवस्थित अवसंरचना, उन्नत पैकेजिंग और समय पर डिलिवरी ने रखी है. यही वजह है कि प्रतिस्पर्धी बाजार में भी खंडेलवाल फूड प्रोडक्ट्स अलग पहचान बना सका है.
आलोक कुमार खंडेलवाल के मुताबिक, हमारा सपना प्रतापगढ़ की धरती से उपजने वाले आंवले, बेल और जामुन को वैश्विक पहचान दिलाना है. गुणवत्ता और अच्छी सेहत की फिक्र ही हमारी असली पूंजी और भविष्य की राह है.