पटना में 'स्टूडियो-को-वर्किंग’ के पाटलिपुत्र वाले ब्रांच में हिटाची, हीरो मोटोकॉर्प, ज़ी-लर्न और बॉश सरीखी कंपनियों के दफ्तर अलग-अलग क्यूबिकल में मौजूद हैं. वहीं एक बड़े हॉल में सोशल सेक्टर में काम करने वाले एक बड़े फाउंडेशन का 100 से ज्यादा का स्टाफ बैठकर काम करता नजर आता है. दिलचस्प है कि 15,000-20,000 करोड़ रुपए टर्नओवर वाले इस फाउंडेशन ने अपना दफ्तर को-वर्किंग स्पेस में शुरू किया.
स्टूडियो-को-वर्किंग की पाटलिपुत्र स्थित ब्रांच देशभर में फैली आलोक कुमार सिंह की उन 50 इकाइयों में से एक है, जहां वे रेडीमेड दफ्तरों का कारोबार करते हैं. मतलब यह कि वे कंपनियों को उनके दफ्तर चलाने के लिए किराए की जगह और साथ ही ऐसी सभी सुविधाएं मुहैया कराते हैं जहां उनके स्टाफ बस लैपटॉप लेकर आएं और तत्काल अपना काम शुरू कर सकें. उन्हें ऑफिस बॉय भी स्टूडियो को-वर्किंग ही उपलब्ध कराता है.
अगर आप आलोक के अलग-अलग ब्रांच में जाएं तो कहीं आपको पेटीएम और पे-फोन के स्टाफ काम करते नजर आएंगे, तो कहीं जोमैटो और स्विगी की टीम.
आलोक बताते हैं, ''नए दौर में कंपनियां टियर-2 सिटीज में न बड़ा दफ्तर लेना चाहती हैं, न एसेट के नाम पर टेबल-कुर्सियां. उन्हें अमूमन प्लग ऐंड प्ले टाइप के दफ्तर चाहिए होते हैं. आज काम शुरू करना चाहें तो कर लें, कल दफ्तर बंद करना चाहें तो बंद करके चल दें. ऐसे में हमारे जैसे लोग रेडीमेड दफ्तर किराए पर उपलब्ध करा रहे हैं. यही हमारा कारोबार है.’’
दरअसल, पटना के 32 वर्षीय आलोक की कहानी दिलचस्प है. वे जयपुर के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने गए तो वहां उनके 27 बैकलॉग्स थे. उन्होंने जैसे-तैसे डिग्री ली. जयपुर में उस वक्त स्टार्टअप्स का एक इनक्यूबेशन सेंटर खुला था, वे वहां चले गए. उनके एक स्टार्टअप आइडिया को अवार्ड भी मिला. फिर उन्हें लगा कि यह एक ऐसी दुनिया है, जहां वे कुछ अच्छा कर सकते हैं. उन्होंने कई तरह के स्टार्टअप शुरू किए. 2013 में उन्होंने ऑग्मेंटेड रियलिटी ऐंड वर्चुअल रियलिटी (एआर-वीआर) की कंपनी स्थापित की मगर कोई आइडिया कारगर न हुआ. उन्होंने कुछ छोटी-मोटी नौकरियां कीं और फिर लौटकर पटना आ गए. यहां उन्हें को-वर्किंग दफ्तरों का आइडिया सूझा.
वे बताते हैं, ''उस वक्त (2017-18) बड़े शहरों में स्टार्टअप्स के लिए ऐसे दफ्तर खुल रहे थे. मैंने सोचा कि पटना जैसे छोटे शहर में भी ऐसे दफ्तर होने चाहिए. हम तीन दोस्त इसके लिए साथ आए. मगर हमारे पास पैसे नहीं थे. तभी हमारी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो पटना में अपनी कंपनी के लिए ऐसा ही दफ्तर चाहते थे. उन्होंने इसके लिए 25 लाख रुपए दिए. हमने उसी से कंकड़बाग में पहला को-वर्किंग स्टूडियो शुरू किया.’’
वैसे शुरू में यह प्रयोग सफल नहीं हुआ. बकौल आलोक, ''तब हमें समझ आया कि हमारा शुरुआती सेटअप पटना जैसे टियर टू शहर के मुताबिक नहीं है. हमने उस हिसाब से उसमें बदलाव किए. फिर वह चल निकला. रांची में हमने अगली यूनिट खोली, फिर दूसरे शहरों में. पटना में कई ब्रांच खुलीं.’’
उन्हें बिहार सरकार से 2020 में स्टार्टअप पॉलिसी के तहत पहले 10 लाख, फिर 15 लाख रुपए का लोन मिला. उससे मदद मिली, मगर आलोक, उनके साथी प्रख्यात कश्यप और राहुल सम्राट का यह आइडिया पहले ही हिट हो गया था. उस दौर में वे अलग-अलग शहरों में अपनी ब्रांच खोल रहे थे. देखते-देखते उनकी ब्रांच संख्या 50 के पार चली गई और फिर उन्होंने इन ब्रांचों के फर्नीचर के लिए एक फर्नीचर फैक्ट्री भी बिठा ली. अभी उनके साथ 150 से ज्यादा लोग काम करते हैं.
स्टूडियो को-वर्किंग का टर्नओवर पिछले साल आठ करोड़ रुपए हो गया था. आलोक बताते हैं, ''बस कोविड की दूसरी लहर में थोड़ा झटका लगा, जब ज्यादातर कंपनियों ने अपने दफ्तर बंद कर दिए. मगर कोविड खत्म होते ही फिर सब पहले जैसा हो गया.’’ उन्हें उम्मीद है कि इस साल उनका टर्न ओवर 10 करोड़ रुपए पार कर जाएगा.