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मॉड्युलर ग्रीनहाउस के जरिए कैसे जलवायु जोखिमों से निपट रहे हैं किसान?

जलवायु से संबंधित जोखिमों के कारण किसानों की आय में गिरावट आ रही है. ऐसे में एक मॉड्युलर ग्रीनहाउस ने इन जोखिमों से बचाव का तरीका खोजा

कौशिक कप्पागंतुलु अपने ग्रीनहाउस में
अपडेटेड 1 अक्टूबर , 2025

अपने अगले प्रोजेक्ट की तलाश में जुटे उद्यमी कौशिक कप्पागंतुलु जब 2015 में दक्षिण भारत की एक छोटी किसान रेशमा से मिले तो उसकी हिम्मत देखकर हैरान रह गए. हर बार कुदरत का कहर झेलने के बावजूद वह टूटी नहीं.

उस साल उसकी टमाटर की आधी फसल कीड़ों ने बर्बाद कर दी थी. उससे एक बरस पहले बेमौसम बारिश ने उनकी काली मिर्च की फसल नष्ट कर दी थी. साल के छह महीने उसकी जमीन गरमी के कारण परती पड़ी रहती थी. कप्पागंतुलु कहते हैं, ''और यह अकेले रेशमा का मसला नहीं है.

भारत में औसतन दस करोड़ छोटे किसान खेती में पूंजी गंवा देते हैं. रेशमा से मिलकर यह बात साफ हुई कि छोटे किसानों को जलवायु जोखिमों से निबटने के लिए किफायती उपायों की जरूरत है. इसी से खेती नाम के उपक्रम की हमारी राह निकली.''

वैसे, कौशिक के पास अपनी बेहतर सोच के जरिए भारत के वंचित लोगों का जीवन बेहतर बनाने का पुराना अनुभव था, फिर भी उन्हें मदद की जरूरत थी. अपने जैसे तीन अन्य लोगों, 35 वर्षीया सौम्या, 39 वर्षीय आयुष शर्मा और 39 वर्षीय सत्य रघु मोक्कापति के साथ मिलकर उन्होंने देशभर के छोटी जोत वाले किसानों से बात करना शुरू किया, यह पता लगाने के लिए कि उनकी समस्या क्या है. आइआइटी खड़गपुर और कोलंबिया बिजनेस स्कूल से इंजीनियरिंग तथा बिजनेस की अपनी ट्रेनिंग के बूते उन्हें तब एक ग्रीनहाउस बनाने का विचार आया. किसान की जमीन के एक छोटे-से हिस्से पर उसके खेत की मिट्टी और जलवायु के अनुरूप हराभरा क्षेत्र, जिसके चारों ओर फेंसिंग हो, तथा वह उपलब्ध संसाधनों का कुशल इस्तेमाल करते हुए प्रतिकूल हालात से निबटने में सक्षम हो.

मगर चुनौतियां भी थीं. ग्रीनहाउस सैद्धांतिक रूप से मजबूत था—एक एकड़ के 16वें हिस्से में घेरा होगा, कीटों के हमले रोकने को जाल होगा, गरमी कम करने के लिए छाया और पानी बचाने के लिए ड्रिप सिंचाई की सुविधा होगी—मगर किसानों के लिए यह बहुत महंगा था. शुरू में तो मदद की जाएगी लेकिन आखिरकार उन्हें ग्रीनहाउस पर खर्च करने, उससे जुड़ी तकनीकें सीखने और रोजमर्रा की मदद पाने के लिए सक्षम होना होगा. मगर सबसे बड़ी बाधा क्या थी? उन्हें यह यकीन दिलाना कि ऐसा गैर-परंपरागत समाधान उनके लिए काम का है.

अगले कुछ वर्षों में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सरीखे विभिन्न जलवायु क्षेत्रों—जिनमें शुष्क और आदिवासी इलाके भी थे—के हजारों किसानों से फीडबैक लिया गया और 'खेती' फलने-फूलने लगी. टीम ने स्थानीय सामग्रियों के इस्तेमाल से ग्रीनहाउस बनाया, जिससे लागत 80 फीसद घट गई. गरमी का असर भी नौ डिग्री फारेनहाइट तक कम हो गया. पानी 98 फीसद तक संरक्षित किया गया. सफलता की शुरुआती कहानियों और सावधानी के साथ नियमित ट्रैकिंग करने वाली भरोसेमंद स्थानीय टीमों ने विश्वास बनाने का काम किया.

एक ग्रीनहाउस फसल चक्र ने पारंपरिक खेती की तुलना में उसी फसल की सात गुना अधिक उपज दी. फसल के चुनाव, ग्रीनहाउस उपयोग की निरंतरता और बाजारों तक पहुंच के आधार पर किसानों की आय में दो से चार गुना वृद्धि हुई है. और किसान अब बिना मौसम वाली फसल भी पैदाकर सकते हैं, इसलिए उन्हें बेहतर दाम मिलते हैं. तीन राज्यों आंध्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश ने तो इस मॉडल को सरकारी सब्सिडी के कार्यक्रमों में भी शामिल कर लिया है. आज देशभर के 7,000 छोटे किसान खेती उपक्रम के साथ काम कर रहे हैं और साल 2030 तक इनकी संख्या को दस लाख तक पहुंचाने का लक्ष्य है.

कौशिक कहते हैं, ''खेती का मॉडल सिर्फ तकनीक के कारण ही नहीं बल्कि समय के साथ किसानों के भरोसे से सफल हो रहा. समाधान बाहर से थोपा नहीं गया. इसे वर्षों की बातचीत, परीक्षण और बार-बार अभ्यास के साथ किसानों की मदद से बनाया गया है...खेती के जरिए छोटी जोत वाले किसान न सिर्फ जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बिठा रहे हैं, बल्कि वे इसके समाधान में अग्रणी भूमिका भी निभा रहे हैं.''

कौशिक कप्पागंतुलु के मुताबिक, ''भारत में औसतन दस करोड़ छोटे किसान खेती में पैसा गंवा देते हैं. ऐसे में यह साफ है कि छोटे किसानों को जलवायु जोखिमों से बचने के लिए किफायती सुझाव-समाधान की जरूरत है.'

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