सुबह 6 बजे जब ज्यादातर लोग अब भी अलार्म बंद करके सोने की कोशिश कर रहे होते हैं, तब तक आयशा रिंबाई अपने दिन की दौड़-भाग शुरू कर चुकी होती हैं. वे सुबह 9 बजे तक घर के सारे काम निबटा कर स्कूल पहुंच जाती हैं. दोपहर 2 बजे तक पढ़ाने के बाद क्लासरूम से निकलकर सीधे अपने ऑफिस जाती हैं. आराम करने के लिए नहीं, बल्कि उस काम को संभालने के लिए जिसे वे कहती हैं, ''एक ऐसा मूवमेंट जो मेघालय की ग्रामीण महिलाओं का जीवन स्तर बढ़ाता है.’’
यह कोई आम स्टार्टअप की कहानी नहीं है. इसमें न सिलिकॉन वैली का बैकग्राउंड है और न ही वेंचर कैपिटल की मोटी फंडिंग. यह कहानी है कडोंगहुलू गांव की एक तलाकशुदा, चार बच्चों की सिंगल मदर की, जिन्होंने अपनी 40 साल की उम्र में सिर्फ 20,000 रुपए की बचत और 30,000 रुपए के चंदे से कारोबार शुरू किया. उनके पास था तो बस विरासत में मिला बुनाई का हुनर और अटूट हिम्मत.
जो उद्यम 2022 में एरीवीव बना, वह किसी बिजनेस प्लान से नहीं बल्कि हताशा से जन्मा था. रिंबाई याद करती हैं, ''मैं बुनाई कर रही थी, लेकिन पर्याप्त लोकल यार्न नहीं मिल पा रहा था, जबकि हमारे इलाके में इतने सारे कोकून बनते हैं.’’ सालों तक मेघालय का दुर्लभ एरी सिल्क कोकून, जिन्हें स्थानीय सामिया रिसिनी नाम के कीट से पैदा किया जाता है, बिचौलियों के जरिए असम भेजा जाता रहा था.
वहां उसकी प्रोसेसिंग होती और फिर महंगे दामों पर वही धागा वापस बेचा जाता. स्थानीय जबान में ''पीस सिल्क’’ कहलाने वाला एरी सिल्क खास इसलिए है क्योंकि इसमें पतंगे को कोकून से निकलने दिया जाता है, उसके बाद रेशे निकाले जाते हैं. यह रेशम अपनी मुलायमियत, ऊन जैसी बनावट, झीने टेक्सचर और गहरा प्राकृतिक रंग आसानी से सोखने की क्षमता के लिए मशहूर है. रिंबाई सोचने लगीं, ''क्यों न यहीं पर वैल्यू एडिशन किया जाए? कोकून से यार्न बने, यार्न से कपड़ा और हर कदम पर लोकल महिलाओं को जोड़ा जाए.’’
उनका 2019 में पहला उद्यम किसी ब्रांड नाम के साथ नहीं आया था. उन्होंने इसे कमाई हबा शोंगकाई कहा—खासी भाषा में जिसका मतलब है ''घर बैठे कमाओ’’. आइडिया बहुत सीधा था—लंबे मॉनसून के महीनों में जब खेती का काम रुक जाता है, तो महिलाएं घर पर बैठकर धागा कात सकती हैं. रिंबाई कहती हैं, ''उनके पास पहले से ही ज्ञान था. बस थोड़ी-सी राह दिखाने और ढांचे में ढालने की जरूरत थी.’’
रिंबाई ने 12-13 गांवों में एक विकेंद्रीकृत प्रोडक्शन नेटवर्क तैयार किया. न कोई फैक्ट्री फ्लोर, न बड़े गोदाम, बस घर ही काम की जगह बन गई. महिलाएं कोकून पालतीं, धागा काततीं, कपड़ा बुनतीं और फिर तैयार प्रोडक्ट क्वालिटी चेक और डिस्पैच के लिए एक छोटे-से सेंट्रल ऑफिस भेज देतीं. इसका असर तुरंत दिखने लगा. धागा कातने वाली महिलाएं महीने के करीब 5,000 रुपए कमाने लगीं. बुनकरों की आमदनी 20,000 रुपए तक पहुंच गई. जिन महिलाओं ने घर के कामकाज के अलावा कभी एक रुपया तक नहीं कमाया था, उनके लिए 3,000 रुपए भी जिंदगी बदल देने वाले साबित हुए.
लेकिन रिंबाई के लिए यह सिर्फ आमदनी तक सीमित नहीं था. एरीवीव पारंपरिक डिजाइन और लोकल पौधों से बने प्राकृतिक रंगों के जरिए खासी पहचान को भी संजोए रखता है. रिंबाई कहती हैं, ''ज्यादातर प्रोड्यूसर नेचुरल डाइ का इस्तेमाल नहीं करते, हम करते हैं.’’ एरी सिल्क की बनावट भले ही अलग-अलग इलाकों में एक जैसी हो लेकिन हर कपड़े में बुनी कहानियां इसे खास तौर पर खासी बना देती हैं.
बहरहाल 2020 में कोविड-19 आया और सब कुछ लगभग ठप पड़ गया. रिंबाई बताती हैं, ''मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं बचे थे.’’ मजबूर होकर उन्होंने अपनी कार 1.5 लाख रुपए में बेच दी. उन्होंने 70,000 रुपए में एक स्कूटी खरीदी और बाकी पैसे फिर से काम को बचाने में लगा दिए.
धीरे-धीरे हालात संभले और पहचान भी मिली. मेघालय सरकार के आंत्रप्रेन्योरशिप प्रोग्राम प्राइम मेघालय ने 2021 में उनके काम को प्रदर्शित किया, जिससे विजिबिलिटी और बिक्री दोनों बढ़ीं. फिर उन्हें 10 लाख रुपए की सरकारी ग्रांट मिली, जिससे नए करघे और एक बुनाई शेड खड़ा किया गया.
असली कामयाबी मिली जब रिंबाई और उनकी बेटी लेबाइनी शार्क टैंक इंडिया में नजर आईं. उनके लिए यह नेशनल एक्सपोजर बेशकीमती था. रिंबाई कहती हैं, ''यह पैसों से ज्यादा विजिबिलिटी की बात थी.’’ शो के बाद पूरे भारत से ऑर्डर आने लगे और जो काम पहले सिर्फ लोकल आजीविका का जरिया था, वह अब तेजी से बढ़ता हुआ ब्रांड बन गया.
प्रोडक्शन अब भी पूरी तरह हाथ से होता है ताकि हस्तनिर्मित पहचान बरकरार रहे लेकिन बिक्री पूरी तरह डिजिटल हो चुकी है—व्हाट्सऐप ऑर्डर, इंस्टाग्राम स्टोरफ्रंट, अमेजन लिस्टिंग, अपनी वेबसाइट और यहां तक कि एक डेडिकेटेड ऐप भी. रिंबाई कहती हैं, ''ज्यादातर कमाई सीधे कारीगरों तक जाती है. हम करीब 20 फीसद रखते हैं.’’ आज एरीवीव के नेटवर्क से 200 से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं, जो इसके समावेशी मॉडल की बड़ी मिसाल है.
आयशा रिंबाई के मुताबिक, पारंपरिक कलाएं इसलिए मर रही हैं क्योंकि कारीगरों की कमाई नहीं होती. अगर बाजार नहीं होगा तो मोटिवेशन भी नहीं होगा. हमें अपने लोगों की जरूरत है, जो सिर्फ बनाएं नहीं बल्कि हमारे काम को बेचें भी.
- अपरमिता दास