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राहुल गांधी के सवालों से क्यों उठे चुनाव आयोग की साख पर सवाल?

कर्नाटक में 'वोट चोरी’’ से लेकर बिहार की मतदाता सूचियों में संशोधनों पर विवाद तक नेता विपक्ष राहुल गांधी के आरोपों ने चुनावी निष्पक्षता सुनिश्चित करने की निर्वाचन आयोग की साख पर संकट गहरा दिया है.

The big story: electoral rolls
राहुल गांधी 7 अगस्त को कांग्रेस मुख्यालय में संवाददाता सम्मेलन के दौरान
अपडेटेड 12 सितंबर , 2025

अगस्त की 7 तारीख को नई दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में सियासी सरगर्मी चरम पर थी, पार्टी नेता राहुल गांधी कैमरों से भरे कमरे में खड़े थे, और उनके हाथ में ऐसा कुछ था जिसे वे भारत के गंभीर लोकतांत्रिक संकट का सबसे बड़ा सबूत बता रहे थे.

लोकसभा में नेता विपक्ष ने वोटर लिस्ट के सात फुट लंबे ढेर से कागजों का एक पुलिंदा उठाया और एकदम नाटकीय अंदाज में आरोप लगाया: भारत के चुनाव आयोग (ईसीआइ) की शह पर सुनियोजित तरीके से 'वोट चोरी’ की जा रही है.

सबूत के तौर पर उन्होंने बेंगलूरू मध्य लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाली कर्नाटक की महादेवपुरा विधानसभा सीट की मतदाता सूचियों का हवाला दिया. राहुल ने आरोप लगाया कि वोटर लिस्ट में व्यवस्थित हेराफेरी करके 1,00,000 से ज्यादा फर्जी वोट डाले गए हैं, जिससे 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे सत्तारूढ़ भाजपा के पक्ष में आए.

राहुल की तरफ से पेश आंकड़े चौंकाने वाले थे: 11,965 पूरी तरह फर्जी मतदाता, 40,009 ऐसे पते पर पंजीकृत थे जो अस्तित्व में ही नहीं हैं और 10,452 मतदाता ऐसे पाए गए, जिनके पते पर एक साथ बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया गया है. उनके 'खुलासे’ की गूंज सिर्फ कर्नाटक तक ही सीमित नहीं रही बल्कि पूरे भारत में ऐसी चुनावी अनियमितताओं के व्यापक पैटर्न का संकेत मिला.

बतौर उदाहरण, केरल के त्रिशूर में हाल में एक महिला के बारे में पता चला, जिनके घर के पते का इस्तेमाल करके नौ अजनबियों के नाम मतदाता सूची में जोड़े गए थे. त्रिशूर राज्य की ऐसी लोकसभा सीट है, जहां भाजपा ने पहली बार जीत हासिल की है. 2019 और 2024 के बीच मतदाताओं की संख्या में 1,46,656 की वृद्धि हुई, जिससे यह केरल का सबसे बड़ा निर्वाचन क्षेत्र बन गया.

स्वाभाविक ही था और भाजपा ने राहुल गांधी के आरोपों पर तीखा पलटवार किया और एक डोजियर जारी कर आरोप लगाया गया कि 2024 में प्रमुख विपक्षी नेताओं की जीती सीटों पर भी ऐसी अनियमितताएं सामने आई हैं. दावा किया गया है कि रायबरेली, वायनाड, डायमंड हार्बर, कन्नौज, मैनपुरी और कोलाथुर की मतदाता सूचियों में 'भारी विसंगतियां’ पाई गई हैं. इन सीटों का प्रतिनिधित्व क्रमश: राहुल, प्रियंका गांधी वाड्रा, अभिषेक बनर्जी, अखिलेश यादव, डिंपल यादव और एम.के. स्टालिन करते हैं. भाजपा का आरोप है कि इसमें डुप्लिकेट वोटर कार्ड, फर्जी पते, काल्पनिक रिश्तेदार और एक ही पते पर बड़ी संख्या में नाम जोड़ने जैसी खामियां सामने आई हैं.

भाजपा ने रायबरेली में 2,00,000 से ज्यादा 'संदिग्ध’ वोटरों की सूची बनाई है, जिसमें 19,512 डुप्लिकेट, 71,977 फर्जी पते वाले, 15,853 'साझे’ पते वाले और 92,747 कथित तौर पर सामूहिक रूप से जोड़े गए, जिनमें कुछ की आयु 85-92 वर्ष के बीच है. डायमंड हार्बर में भाजपा ने 2,59,779 संदिग्ध नामों का आरोप लगाया है, जिनमें 3,613 डुप्लिकेट, 1,55,000 फर्जी पते वाले और ऐसे मतदाता केंद्रों के मतदाता हैं जहां चार साल में 15 फीसद से अधिक वृद्धि हुई है. कन्नौज की मतदाता सूची में 2,91,798 संदिग्ध प्रविष्टियां होने का आरोप है, जिनमें 100 वर्ष से अधिक आयु के मतदाता भी शामिल हैं. कोलाथुर में भाजपा ने 19,476 संदिग्ध मतदाताओं का दावा किया है, जिनमें एक ही मतदान केंद्र पर कई मतदाता पहचान पत्रों के तहत डुप्लिकेट वोटर कार्ड पाए गए हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने तो यह तक दावा किया कि इटली में जन्मीं कांग्रेस नेता सोनिया गांधी का नाम 1980 में मतदाता सूची में जोड़ा गया था, जबकि उन्हें नागरिकता इसके तीन साल बाद मिली थी. कांग्रेस के भीतर भी कम बवाल नहीं मचा. कर्नाटक के सहकारिता मंत्री के.एन. राजन्ना ने कहा कि राहुल गांधी जिन अनियमितताओं की बात कर रहे, वे राज्य में कांग्रेस की सत्ता के दौरान हुई थीं. उन्होंने कहा कि यह एक चूक थी, और एक ऐसा मुद्दा है जिसे पार्टी को चुनाव से पहले उठाना चाहिए था न कि चुनाव के बाद. इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि इसके तुरंत बाद ही उन्हें अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी.

चुनाव आयोग का अड़ियल रुख
इस पूरे विवाद में चुनाव आयोग एकदम नौकरशाही वाले अंदाज में अपने रुख पर अड़ा रहा है. राहुल गांधी के आरोपों का जवाब आंकड़ों से देने के बजाए उसने एक औपचारिक, हस्ताक्षरित शपथपत्र दाखिल करने को कहा, जो एक राजनैतिक आरोप को संभवत: कानूनी जवाबदेही में बदल सकता है. हालांकि, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत का कहना है कि ऐसी मांग अनावश्यक है क्योंकि मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 के नियम 20(3)(बी) के तहत दावे और आपत्तियां शपथ पर प्रस्तुत करने का प्रावधान केवल मतदाता सूची संशोधन के दौरान लागू होता है.

रावत यह भी कहते हैं कि चूंकि राहुल के आरोप एक राजनैतिक दल के शोध पर आधारित हैं, इसलिए यह नियम लागू ही नहीं होता और चुनाव आयोग को तो उनके आरोपों की तुरंत जांच शुरू करनी चाहिए थी. राहुल के शपथपत्र देने से इनकार करने पर आयोग के अफसरों ने यह संकेत देने की कोशिश की कि वे खुद अपने दावों पर अडिग रहने को तैयार नहीं हैं. मामला 11 अगस्त को सियासी नौटंकी में तब्दील हो गया जब लगभग 300 विपक्षी सांसदों ने संसद से चुनाव आयोग के दफ्तर तक मार्च निकाला.

दूसरी तरफ, कई भाजपा नेताओं का दावा है कि राहुल गांधी के खुलासे से चुनाव आयोग को ही फायदा पहुंचा. उनका तर्क है कि मतदाता सूचियों में खामियां निकालकर उन्होंने एक तरह से बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) की चुनाव आयोग का मौन समर्थन ही किया है. उनका कहना है कि यह प्रक्रिया, फर्जी वोटरों को सूची से बाहर करने के लिए ही अपनाई गई है. 24 जून, 2025 को घोषित एसआइआर बिहार की मतदाता सूचियों को केवल 90 दिनों में पूरी तरह से संशोधित करने का एक अभूतपूर्व प्रयास है, जिसका उद्देश्य मृत मतदाताओं, डुप्लिकेट कार्ड रखने वाले और स्थायी रूप से दूसरी जगह बस चुके वोटरों को हटाना है. कम से कम शुरुआत में तो इसकी वैधता पर सवाल सिर्फ इसलिए उठे क्योंकि इसे चुनाव से ऐन पहले शुरू किया गया.

गायब होते लोग
जब बिहार के ड्राफ्ट वोटर लिस्ट 1 अगस्त को जारी हुई तो शक-संदेह एक नए मोड़ पर पहुंच गए. इस बार 65.6 लाख नाम गायब थे, यानी 8.3 फीसद की भारी कटौती हुई. इससे राज्य के मतदाताओं की संख्या 7.89 करोड़ से घटकर 7.24 करोड़ रह गई. इनमें से 22.3 लाख को मृत, 36.3 लाख को स्थायी रूप से पलायन कर चुका या गुमशुदा और 7 लाख को डुप्लिकेट के रूप में दर्ज किया गया.

विपक्ष का आरोप है कि यह महज तकनीकी अपडेट नहीं, बल्कि सुनियोजित राजनैतिक सफाई है ताकि आने वाले विधानसभा चुनाव को 'फिक्स’ किया जा सके. मॉनसून सत्र के दौरान इंडिया गठबंधन ने संसद में रोज विरोध प्रदर्शन किए और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उनका तर्क था कि यह प्रक्रिया निर्वाचन आयोग के संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से बाहर है, क्योंकि इसमें नागरिकता से जुड़े दस्तावेज मांगे जा रहे हैं, जिससे लाखों लोग मताधिकार से वंचित हो सकते हैं.

उन्होंने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 22 का हवाला दिया, जिसमें लिखा है कि किसी भी नाम को हटाने से पहले संबंधित व्यक्ति को 'अपना पक्ष रखने का उचित मौका’ दिया जाना चाहिए. विपक्ष के नेताओं ने पूछा, कुछ हक्रतों में 65 लाख लोगों को कैसे सुना जा सकता है? उनका कहना है कि इस प्रक्रिया ने नागरिकों पर ही अपनी पात्रता साबित करने का बोझ डाल दिया है, जिससे वोट देने का अधिकार एक ऐसा 'विशेषाधिकार’ बन गया है, जिसे बार-बार हासिल करना पड़ेगा.

उनका विरोध खासतौर पर चुनाव आयोग की उन 11 स्वीकार्य दस्तावेजों की सूची पर था, जिसमें आधार कार्ड, वोटर आइडी कार्ड और राशन कार्ड शामिल नहीं थे, जबकि बिहार के गरीब तबके में पहचान के लिए ये सबसे ज्यादा इस्तेमाल होते हैं. इसके बजाए आयोग ने पासपोर्ट, जन्म प्रमाणपत्र या 1987 से पहले जारी सरकारी नौकरी के आइडी जैसे दस्तावेज मांगे, जिससे लाखों लोगों के लिए वोट डालना लगभग नामुमकिन हो जाता.

राजनैतिक विश्लेषक से नेता बने योगेंद्र यादव ने सरकारी आंकड़ों और जमीनी सर्वे के आधार पर अनुमान लगाया कि बिहार के 18 से 40 साल के केवल 45-50 फीसद लोगों के पास ही आयोग की ओर से मांगे गए 11 में से कोई एक दस्तावेज है. उन्होंने चेताया कि अगर इसे सख्ती से लागू किया गया, तो राज्य के 7.24 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में से कम से कम 2.4 करोड़ लोग मताधिकार से वंचित हो जाएंगे. इसे उन्होंने ''किसी भी लोकतांत्रिक चुनावी इतिहास में सबसे बड़ा मताधिकार हनन’’ कहा.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इससे सहमति नहीं जताई और माना कि अधिकांश लोगों के पास जरूरी दस्तावेज मौजूद हैं. जस्टिस सूर्यकांत ने 12 अगस्त की सुनवाई में आधार पर आयोग की स्थिति का समर्थन किया और कहा कि इसे नागरिकता का निर्णायक सबूत नहीं माना जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने 13 अगस्त को कहा कि बिहार एसआइआर के लिए 11 दस्तावेजों में से किसी को भी मान्य करना, इसे सामान्य संक्षिप्त पुनरीक्षण की तुलना में ज्यादा 'मतदाता-हितैषी’ बनाता है, क्योंकि सामान्य पुनरीक्षण में सिर्फ सात दस्तावेज ही मान्य होते हैं.

चुनाव आयोग के इस खुलासे के बाद कि 65 लाख नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने याचिका दायर कर इन नामों और प्रत्येक नाम हटाने के पीछे के सटीक कारण सार्वजनिक करने की मांग की. आयोग ने यह मांग ठुकरा दी.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जिलावार हटाए गए वोटरों की सूची नाम हटाने के कारण समेत जारी करने आदेश के बाद आयोग ने अपना रुख बदल लिया है. आयोग अब बूथवार सूची जारी करेगा, जिसे जिला निर्वाचन कार्यालय में लगाया जाएगा, सोशल मीडिया और अखबारों टीवी और रेडियो में विज्ञापन के जरिए सार्वजनिक किया जाएगा. इसे बीएलओ दफ्तरों, पंचायत और ब्लॉक डेवलपमेंट दफ्तरों के नोटिस बोर्ड पर लगाया जाएगा. 
 
भरोसे का संकट
कागज पर तो ईसीआइ की सुरक्षा व्यवस्था काफी मजबूत दिखती है, बिना नोटिस, सुनवाई और लिखित आदेश के कोई नाम डिलीट नहीं होना चाहिए, और अपील का विकल्प भी मुख्य निर्वाचन अधिकारी तक है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि इतने बड़े पैमाने पर, इतनी कम समय-सीमा में, इन प्रक्रियाओं का सही तरह से व्यवहार में पालन होना असंभव है.

सुप्रीम कोर्ट ने अब तक बिहार की एसआइआर प्रक्रिया पर रोक नहीं लगाई, बस ईसीआइ को 'मास एक्सक्लूजन’ से बचने की चेतावनी दी है. जस्टिस सूर्यकांत ने इस विवाद को 'भरोसे के संकट’ का मामला बताते हुए ईसीआइ से अपने दावों को पारदर्शी डेटा के साथ साबित करने को कहा, लेकिन अब तक इसका जवाब सिर्फ अफसरशाही की चुप्पी रही है.

पारदर्शिता के मामले में एसआइआर कई सवाल छोड़ गया है. जिस राज्य में आधिकारिक मृत्यु पंजीकरण वास्तविक मौतों का सिर्फ एक हिस्सा ही दर्ज करता है, वहां ईसीआइ ने 22.3 लाख मौतों की पुष्टि कैसे की? 36.3 लाख लोगों को 'स्थायी रूप से पलायन’ का दर्जा देने के लिए कौन से मानदंड अपनाए गए? ईसीआइ ने इस पर कोई साफ जवाब नहीं दिया जबकि रिपोर्टें आईं कि मौसमी प्रवासी मजदूरों को भी स्थायी रूप से पलायन कर चुका मानकर नाम काट दिए गए.

योगेंद्र यादव 12 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में दो ऐसे 'मृत वोटरोंं’ को लेकर पहुंचे, जिनके नाम सूची से हटाए गए थे ताकि वे अपनी 'पद्धतिगत अराजकता’ वाली दलील साबित कर सकें. ईसीआइ के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि ऐसी छोटे-मोटे गलतियां ड्राफ्ट रोल में आम होती हैं और बूथ लेवल अधिकारी इन्हें ठीक कर सकते हैं. जस्टिस सूर्यकांत ने भी माना कि अनजाने में गलतियां संभव हैं, पर उन्हें सुधारा जा सकता है.

एक निष्पक्ष संवैधानिक संस्था के रूप में ईसीआइ की साख सवालों के घेरे में है. डिजिटल दौर में भी उसने डेटा को लेकर पुराने ढर्रे वाली और अफसरशाही सोच अपनाई है. कांग्रेस की ओर से महाराष्ट्र की वोटर लिस्ट का मशीन-रीडेबल वर्जन मांगने पर ईसीआइ ने इनकार कर दिया. आयोग ने कहा कि पार्टी के पास पहले से इसका प्रिंटेड रूप मौजूद है.

रावत डिजिटल रूप में वोटर लिस्ट सार्वजनिक करने के खिलाफ हैं, इसे एक संवेदनशील डेटाबेस मानते हैं जिसे आसानी से छेड़ा जा सकता है. पर वे मानते हैं कि ईसीआइ को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में जनविश्वास मजबूत करने के लिए राहुल के आरोपों की जांच करनी चाहिए.

राहुल के 'वोट चोरी’ के आरोप और बिहार की एसआइआर के बीच सवाल उठता है: क्या मतदाता सूचियां जो लोकतंत्र की नींव हैं, जनता का भरोसा कायम रख सकती हैं? यह भरोसा हिल गया तो फिर यह मायने नहीं रखेगा कि डिलीशन कानूनी थे या पुख्ता सबूत थे.

कई भाजपा नेताओं का दावा है कि राहुल गांधी के खुलासे से अनजाने में चुनाव आयोग को ही फायदा पहुंचा. मतदाता सूचियों में खामियां निकालकर उन्होंने एक तरह से बिहार में एसआइआर का मौन समर्थन किया है

भरोसे का संकट
विपक्षी दल लगातार चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं. कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि प्रक्रियागत नियमों की आड़ लेने के बजाए आयोग को संस्था के प्रति जनता का भरोसा मजबूत करने वाले कदम उठाने चाहिए

मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार (बीच में) चुनाव आयुक्त डॉ. सुखबीर सिंह संधू (बाएं) और डॉ. विवेक जोशी के साथ

आरोप  राहुल गांधी का आरोप है कि फर्जी और डुप्लिकेट कार्डधारी मतदाताओं की वजह से ही 2024 के आम चुनाव में बेंगलूरू मध्य लोकसभा सीट के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में भाजपा को बढ़त मिली.

आयोग का जवाब: मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 के नियम 20(3)(बी) के तहत एक औपचारिक शपथपत्र देकर शिकायत दर्ज कराएं.

भरोसे की खातिर: विशेषज्ञों का कहना है कि चुनाव आयोग को जांच शुरू करनी चाहिए थी और निष्कर्ष प्रकाशित करने चाहिए थे.
 

आरोप  राहुल का कहना है कि पिछले 10-15 साल की मशीन-रीडेबल मतदाता सूची उपलब्ध कराने से चुनाव आयोग के इनकार से भाजपा के साथ उसकी मिलीभगत साफ नजर आती है.

आयोग का जवाब: राजनैतिक दलों को भौतिक प्रतियां पहले ही मुहैया कराई जा चुकी थीं.

भरोसे की खातिर : मतदाता सूची में संवेदनशील डेटा होता है; ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि इन्हें डिजिटली प्रकाशित करने से हैकिंग का खतरा हो सकता है.

आरोप  विपक्ष का कहना है कि चुनाव आयोग बिहार के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) में आधार को स्वीकृत सत्यापन दस्तावेजों की सूची से बाहर करके बड़ी संख्या में मतदाताओं को मतदाता सूची से बाहर करना चाहता है. विपक्ष का दावा है कि ज्यादातर निवासियों के पास अन्य दस्तावेज नहीं हैं.

आयोग का जवाब: आधार नागरिकता साबित नहीं कर सकता.

भरोसे की खातिर : सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के रुख को बरकरार रखा है और इस दावे को खारिज कर दिया है कि ज्यादातर निवासियों के पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं.

आरोप बिहार की मतदाता सूची से 65 लाख नाम हटाने की जानकारी सामने आने के बाद एसआइआर को चुनौती देने वालों ने प्रत्येक नाम को हटाए जाने का कारण पूछा.

आयोग का जवाब: हटाए नामों की सूची प्रकाशित करने या व्यक्तिगत स्पष्टीकरण देने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है.
भरोसे की खातिर: सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद चुनाव आयोग हटाए गए नामों की सूची नाम हटाने के कारण समेत प्रकाशित करने पर सहमत हो गया है.

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