जब लग रहा था कि भाजपा अपना अध्यक्ष चुनने के लिए तैयार है, घड़ी की सूई फिर पीछे खिसक गई क्योंकि पहले देश का उपराष्ट्रपति चुनना जरूरी हो गया. तो क्या हुआ कि मौजूदा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल पूरा हुए एक साल से ज्यादा हो चुका है, वह भी तब जब सेवानिवृत्त होने की मूल तारीख 20 जनवरी, 2023 से उन्हें डेढ़ साल का विस्तार पहले ही मिल चुका था.
उपराष्ट्रपति का चुनाव 9 सितंबर को होना है, उसके बाद शायद मंत्रिमंडल में फेरबदल और हां, बिहार के चुनाव भी होंगे. मामला आखिर कहां अटका है? शायद यह आरएसएस की वैचारिक शाखा है, जिसने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को निराशाजनक 240 सीटें मिलने के बाद ड्राइवर की कुर्सी पर अपनी जगह फिर हासिल कर ली लगती है.
उस झटके ने संघ को बीच राह में सुधार की मांग करने के लिए उकसाया. अब वह किनारे बैठकर नजर रखने भर से संतुष्ट नहीं है और नियुक्तियों, अभियान के नैरेटिव तथा शीर्ष पर फेरबदल में अपनी बात माने जाने पर जोर दे रहा है. पार्टी का अध्यक्ष चुनने के मामले में भी ऐसा ही है.
दिसंबर 2024 में शुरू हुए संगठन के चुनाव में मूलत: बंधा-बंधाया काम होने थे, लेकिन अब उन्होंने नई अहमियत अख्तियार कर ली है. आरएसएस का पक्का विचार है कि इस बार अध्यक्ष उनका अपना होना चाहिए. वह न केवल करिश्माई चुनाव प्रचारक हो, बल्कि अनुशासित संगठनकर्ता और परिवार के पारिस्थितिकी तंत्र में गहरी जड़ों के साथ हिंदुत्व के प्रति वफादार हो. कोई अंदरूनी शख्स हो, न कि बाहर से आयातित. कोई ऐसा जो पार्टी को बेखटके नरेंद्र मोदी के बाद के युग में ले जा सके. तो इस सांचे में कौन फिट बैठता है?
संभावित दावेदार
फिलहाल केंद्र में शिक्षा मंत्री और इससे पहले पेट्रोलियम के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान एक दावेदार हैं. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की जमात से उनका उत्थान, मूल मतदाताओं को अलग-थलग किए बिना ओबीसी तक भाजपा की पहुंच बढ़ाने की उनकी काबिलियत, और आरएसएस में मौजूदा नंबर 2 दत्तात्रेय होसबाले के साथ उनकी घनिष्ठता उन्हें विचारधारा के लिहाज से सबसे माकूल और राजनैतिक तौर पर चुस्त-चपल उम्मीदवार बना देती है. वे पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और अमित शाह के साथ मिलकर काम कर चुके हैं. उनमें 56 साल की उम्र में विद्रोह को उकसाए बिना पीढ़ीगत बदलाव करने की संभावना है.
फिर केंद्रीय पर्यावरण मंत्री और तपे-तपाए संगठनकर्ता भूपेंद्र यादव हैं. पेशे से वकील यादव संघ की अधिवक्ता परिषद के स्तर से ऊपर उठे और खासकर राजस्थान व महाराष्ट्र में सयाने-समझदार चुनाव प्रबंधक के रूप में व्यापक स्वीकृति हासिल की. 2019 में जब नड्डा को पार्टी अध्यक्ष चुना गया, यादव के नाम पर भी गंभीरता से विचार किया गया था और घोषणा से पहले वे प्रमुख पार्टीजनों के साथ संपर्क करने में जुट गए थे.
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और फिलहाल केंद्रीय आवास मंत्री मनोहर लाल खट्टर एक और संभावना हैं. चुनावी राजनीति में आने से पहले प्रतिबद्ध प्रचारक खट्टर विचारधारा के कई खानों में फिट बैठते हैं. उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजदीकी हासिल है और अरुण कुमार जैसे संघ के प्रचारकों की सद्भावना भी उनके साथ है.
मगर मुख्यमंत्री के तौर पर खट्टर का कार्यकाल ऐसी फुसफुसाहटों के बीच खत्म हुआ कि वे आसानी से सुलभ नहीं होते और ऊपर से नीचे की उनकी कार्यशैली ने पार्टी कार्यकर्ताओं और सहयोगियों दोनों को अलग-थलग कर दिया. मंत्रिमंडल में उनकी शांत और विनम्र मौजूदगी ने भी उस धारणा को उलटने के लिए कम ही कुछ किया.
छुपे रुस्तम भी हो सकते हैं. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान उनमें से एक हैं. भाजपा के जनाधार के बीच अब भी लोकप्रिय शिवराज ने मंत्रिमंडल और संघ के पदाधिकारियों में चुपचाप साख और सद्भावना कायम कर ली है. उनके समर्थकों में दिग्गज प्रचारक सुरेश सोनी, जो प्रधान का भी समर्थन कर रहे हैं, हैं और उन्हें ऐसे शख्स के तौर पर देखा जाता है जो भिन्न-भिन्न गुटों को एकजुट कर सकता है.
उनका राजकाज का रिकॉर्ड और जनसाधारण से जुड़ाव उनका ट्रंप कार्ड है. लेकिन उनकी उम्र खिलाफ जा सकती है: शिवराज 66 साल के हैं. लगातार धीरे-धीरे पीढ़ीगत बदलाव की तरफ ले जाई जाती पार्टी में उन्हें बदलावकारी शख्सियत के तौर पर देखा जा सकता है, जो फिलहाल तो ठीक है लेकिन मोदी के बाद के समय में नहीं.
फिर एक वाइल्ड कार्ड भी है: संजय जोशी. नागपुर के लाडले, पूर्व महामंत्री (संगठन) और विचाराधारा के मामले में शुद्धतावादी. नागपुर में 63 वर्षीय जोशी के रिश्ते मजबूत हैं. मोहन भागवत, मनमोहन वैद्य और नितिन गडकरी के साथ उनके पुराने रिश्ते हैं. वे उम्र के खांचे में स्वीकार्य हैं, लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान मोदी के साथ हुए उनके मतभेद मायूसी का सबब हो सकते हैं.
पार्टी की कमान संभालने के लिए महिला दावेदार की कुछ अफवाहें थीं. लेकिन कोई भी गंभीर महिला नेता सर्वसम्मत उम्मीदवार बनकर उभर न सकी, और हो सकता है यह विचार शायद चुपचाप अपनी मौत मर जाए.
अटकलों की छूट
भाजपा और संघ दोनों ही अक्सर चौंकाने वाले फैसले करते हैं. जितनी ज्यादा अटकलें लगती हैं, उतनी ही संभावना होती है कि फैसला दायरे से बाहर के किसी शख्स के हक में हो जाए. 2009 में नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाना इसकी बड़ी मिसाल है. उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 52 साल थी और महाराष्ट्र से बाहर बहुत कम लोग उनको जानते थे.
उन्होंने शिवसेना-भाजपा सरकार में मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर काम किया था, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का अनुभव लगभग नहीं था. तब संघ दिल्ली के पुराने नेताओं की आपसी खींचतान और पार्टी में आई सुस्ती से नाराज था. संघ चाहता था कि पार्टी में नई ऊर्जा और विचारधारा की स्पष्टता लाई जाए. उन्होंने गडकरी को लाकर यही किया. इस फैसले से दिल्ली की लीडरशिप पूरी तरह हैरान रह गई. सत्ता संतुलन बदल गया और संगठन में एक नई दिशा शुरू हो गई.
आरएसएस और भाजपा अक्सर दिखने वाली योग्यता या तर्कों से नहीं चलते. उन्हें चुनाव नहीं, सहमति पसंद है. और यह सहमति बनने में हफ्ते, कभी-कभी महीने भी लग सकते हैं. हाल के महीनों में उनका ध्यान दिल्ली चुनाव में ताकत झोंकने, ऑपरेशन सिंदूर के साथ राजनैतिक पहुंच मजबूत करने और अब उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार खोजने पर रहा है.
पार्टी अगस्त 2025 तक नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए जरूरी कोरम पूरा कर चुकी है. भाजपा के संविधान के मुताबिक, पार्टी को देश के कम से कम 50 फीसद राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में आंतरिक चुनाव पूरे करने होते हैं. यह अब तक 18 से ज्यादा राज्यों में काम हो चुका है. हालांकि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, झारखंड, गुजरात और दिल्ली जैसे अहम राज्य अभी बाकी हैं. पंजाब में अगस्त के पहले हफ्ते तक सिर्फ छह जिला अध्यक्षों के नाम तय हुए थे, जिसकी वजह से वह (मणिपुर को छोड़कर) सबसे पीछे है.
उत्तर प्रदेश पार्टी और आरएसएस दोनों के लिए वैचारिक और चुनावी लिहाज से बेहद अहम है. यहां चार बड़े बदलाव होने हैं: नया प्रदेश अध्यक्ष, आनंदीबेन पटेल की जगह नया राज्यपाल, कैबिनेट में फेरबदल और राष्ट्रीय परिषद के लिए नए नाम. 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से भाजपा सिर्फ 80 में से 37 सीटें जीत पाई थी. इसके बाद पार्टी ने गंभीर मंथन शुरू किया.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अब भी लोकप्रिय हैं और संघ के लिए वैचारिक तौर पर अहम चेहरा हैं. लेकिन 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा को अपनी जातिगत रणनीति और उम्मीदवारों की योजना को दोबारा दुरुस्त करना होगा. यही काम हरियाणा, दिल्ली, झारखंड, गुजरात और कर्नाटक में भी चल रहा है.
मोदी के बाद की अग्निपरीक्षा
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने पार्टी को नए वर्गों तक पहुंचाया है—इनमें शहरी मध्यवर्ग, युवा, महिलाएं और हाशिये पर खड़ी जातियां शामिल हैं, यह संघ को पता है. उनकी छवि ने संघ को बड़े-बड़े एजेंडे पर आगे बढ़ने की ताकत दी, जैसे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह रहा कि फैसले ऊपर से नीचे आते गए और पार्टी में आंतरिक बहस कमजोर पड़ गई.
अब जबकि नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत, दोनों 75 साल की रिटायरमेंट की उम्र के करीब हैं, एक नया दौर शुरू होने वाला है. हालांकि भाजपा और संघ दोनों को नहीं लगता कि मोदी अभी जल्द राजनीति छोड़ेंगे. सभी मानते हैं कि पार्टी को आगे भी उनकी जरूरत है. लेकिन अगला पार्टी अध्यक्ष वही होगा जो मोदी और संघ के बीच पुल का काम करेगा.
उसे संघ का भरोसा, मोदी की सहमति और भाजपा कार्यकर्ताओं का सम्मान, ये तीन चीजें साथ लेकर चलनी होंगी. उसे चुनाव भी जिताने होंगे—2026 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में चुनाव हैं—और पार्टी में वैचारिक गहराई भी लौटानी होगी. उसे नए जातीय समीकरण भी बनाने होंगे, पार्टी की आंतरिक गुटबाजी को रोकना होगा और मोदी की छाया के भीतर और बाहर दोनों जगह नेतृत्व परिवर्तन को संभालना होगा.
एक वरिष्ठ नेता ने हाल ही में मजाक में कहा: ''हम सिर्फ पार्टी अध्यक्ष नहीं चुन रहे. हम तय कर रहे हैं कि मोदी के बाद नक्शा किसके हाथ में होगा.’’ संघ के पास विचारधारा की दिशा जरूर है. लेकिन यह खाका किसे सौंपा जाएगा, इस पर ही आगे का सफर टिका है.
आरएसएस का पक्का विचार है कि इस बार अध्यक्ष उनका अपना होना चाहिए. वह न केवल करिश्माई चुनाव प्रचारक हो, बल्कि हिंदुत्व के प्रति वफादार हो और उसकी परिवार में गहरी जड़ें हों. भारतीय जनता पार्टी के अगले पार्टी अध्यक्ष को संघ का विश्वास, मोदी का भरोसा और कार्यकर्ताओं का सम्मान हासिल करना होगा.