
उन्नीस सौ अठानबे में बिल क्लिंटन ने भारत के एटमी परीक्षणों के बाद ''ईंट की बारिश'' की तरह टूट पड़ने की धमकी दी थी. उसके बाद से किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के बारे में इतने अपमानजनक शब्दों में बात नहीं की, जैसी डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में ट्रूथ सोशल पर एक के बाद एक पोस्ट में की.
30 जुलाई को ट्रंप ने भारत पर ''सबसे सख्त और अजीब गैर-मौद्रिक व्यापार बाधाएं'' खड़ी करने का आरोप लगाया और फिर कहा कि भारत ''चीन के साथ रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार है. वह भी ऐसे वक्त में जब हर कोई चाहता है कि रूस यूक्रेन में हत्याएं बंद करे—यह सब अच्छा नहीं है!''
ट्रंप ने फिर भारत पर 7 अगस्त से 25 फीसद टैरिफ लगाने का ऐलान किया. यह चेतावनी भी दी कि भारत ने रूस से तेल खरीदना जारी रखा तो अतिरिक्त जुर्माना लगाएंगे. अगले दिन एक और सोशल मीडिया पोस्ट में ट्रंप ने कहा कि भारत और रूस ''अपनी मुर्दा अर्थव्यवस्थाओं को मिलकर और नीचे ले जाएं'' तो उन्हें कोई परवाह नहीं.
6 अगस्त को ट्रंप ने एक कदम आगे बढ़ाकर 25 फीसद अतिरिक्त शुल्क लगा दिया, जो 21 दिनों के भीतर लागू होगा. इस तरह अमेरिका को होने वाले भारतीय निर्यातों पर औसत शुल्क 50 फीसद हो गया. ब्राजील के साथ अब भारत पर ही सबसे ज्यादा व्यापार शुल्क लगाया गया है. चीन पर महज 30 फीसद टैरिफ लगाया गया है, जिसे ट्रंप कट्टर प्रतिद्वंद्वी मानते हैं.
भारत के लिए राहत की बात इतनी ही है कि अमेरिका को होने वाले इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्युटिकल्स और पेट्रोलियम उत्पादों जैसे प्रमुख निर्यात अभी इस शुल्क से बचे हुए हैं. अमेरिका को भारत के 87.3 अरब डॉलर (करीब 7.6 लाख करोड़ रुपए) के कुल वस्तु निर्यात में इन चीजों का हिस्सा करीब 40 फीसद है. न ही अभी तक कोई संकेत हैं कि ट्रंप भारत के साथ व्यापार वार्ता रद्द करने जा रहे हैं.
छठे दौर की बातचीत के लिए अमेरिकी टीम के अगस्त के आखिरी हफ्ते में दिल्ली आने की संभावना है. यही कारण है कि ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट के संस्थापक तथा पूर्व भारतीय व्यापार वार्ताकार अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ''यह बस दबाव बनाने की रणनीति है जिसके लिए ट्रंप जाने जाते हैं. वे भारत से निराश नहीं हैं वरना व्यापार वार्ता खत्म करने का ऐलान कर देते. मैं इसे वार्ता में एक अल्पविराम मानता हूं, पूर्ण विराम नहीं.''
हालांकि मोदी सरकार भारत के बारे में अपमानजनक बातें कहने और भारी टैरिफ लगाने से स्वाभाविक रूप से ट्रंप से खीझी हुई है, जबकि वे दावा कर रहे थे कि भारत 'मित्र' है. भारत की प्रतिक्रिया नपी-तुली लेकिन सख्त थी. विदेश मंत्रालय ने एक बयान में 50 फीसद टैरिफ को ''अनुचित, अन्यायपूर्ण और अतार्किक'' करार दिया और कहा कि ''राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कार्रवाई'' की जाएगी. लेकिन 7 अगस्त से 25 फीसद टैरिफ लागू होने के बाद भारतीय निर्यातक इसे झेलने और प्रतिस्पर्धी बने रहने की क्षमता को लेकर चिंतित हैं.
फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गनाइजेशन (फियो) ने इसे ''भारी झटका'' बताया, जिसका असर अमेरिका जाने वाली 55 फीसद से ज्यादा भारतीय शिपमेंट पर पड़ेगा. उसे डर है कि अतिरिक्त 25 फीसद दंडात्मक टैरिफ लग गया तो भारत को दूसरे देशों की तुलना में 30-35 फीसद प्रतिस्पर्धी नुक्सान हो सकता है. कपड़ा और परिधान बाजार पर इसका फौरन असर पड़ने का अंदेशा है क्योंकि अमेरिकी बाजार में चीन और विएतनाम से कड़ी होड़ है.
आसमान से बिजली गिरी हो जैसे
भारत के लिए ट्रंप का शत्रुतापूर्ण रवैया अनजान झटके की तरह आया. फरवरी में ही तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने मोदी को ह्वाइट हाउस आने का न्यौता दिया था और दोनों नेताओं ने मैत्रीपूर्ण माहौल में भारत-अमेरिका संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की बात की थी. दोनों पक्षों ने आपसी व्यापार को मौजूदा 212 अरब डॉलर (लगभग 18.6 लाख करोड़ रुपए) से बढ़ाकर 2030 तक सालाना रिकॉर्ड 500 अरब डॉलर तक ले जाने की प्रतिबद्धता जताई थी. दोनों ने बसंत आने तक व्यापक व्यापार समझौते पर बातचीत करने पर सहमति जताई.
दोनों देशों ने रक्षा के साथ-साथ महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों में रणनीतिक सहयोग बढ़ाने का भी फैसला किया. इसके तुरंत बाद व्यापार वार्ताएं शुरू हो गईं. पिछले महीने तक तो एक ऐसे छोटे समझौते को लेकर चर्चा चल रही थी जिससे भारत को ज्यादातर देशों पर लगाए गए ट्रंप के 26 फीसद के एकतरफा शुल्क से कम ही झेलने पड़ेंगे. इन टैरिफ को 1 अगस्त से लागू होना था.
भारत ने मैन्युफैक्चरिंग और औद्योगिक वस्तुओं पर अपने ऊंचे शुल्कों को कम करने का संकेत दिया था जो औसतन 17 फीसद थे जबकि अमेरिका भारत से निर्यात होने वाली इसी तरह की वस्तुओं पर 2 फीसद शुल्क लगाता था. लेकिन जब अमेरिका ने भारत पर अपने कृषि और डेयरी क्षेत्र को अमेरिकी किसानों के लिए खोलने पर जोर दिया तो भारत राजी न हुआ और मक्खन और चीज के अलावा मक्का और सोया जैसी कृषि उपजों के लिए दरवाजे खोलने से मना कर दिया.
खेती पर भारत की दोहरी चिंताएं हैं—एक तो अमेरिकी किसान आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों का उपयोग करते हैं. भारत ने कपास को छोड़कर उसकी कभी इजाजत नहीं दी; दूसरा, भारत में कृषि से लगभग 40 फीसद श्रम शक्ति जुड़ी हुई है, बड़े पैमाने पर आयात से रोजगार खत्म होंगे और यह कदम इस क्षेत्र के लिए हानिकारक होगा. जहां तक अमेरिकी डेयरी उत्पादों का सवाल है, भारत अमेरिकी किसानों के गायों के चारे को लेकर चिंतित है—चारे में रक्त, मांस और हड्डी का चूरा जैसे बाय प्रोडक्ट होते हैं और इन सबसे भारतीय खाद्य सुरक्षा और सांस्कृतिक मानदंडों का उल्लंघन होता है.
हालांकि भारत सेब और सूखे मेवों जैसे बागवानी आयातों पर रियायतों के लिए राजी हो गया था. लेकिन उसने अनाज और डेयरी उत्पादों पर दो-टूक रेखा खींच दी थी. ट्रंप टैरिफ लागू होने के एक दिन बाद दिल्ली में एक कृषि सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ''हमारे लिए हमारे किसानों का हित सर्वोपरि है. भारत उनके हितों से कभी समझौता नहीं करेगा. मुझे व्यक्तिगत रूप से इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, लेकिन मैं तैयार हूं.''
अधिकांश विशेषज्ञ ट्रंप के व्यापार हमले को ऊंचे दांव की चाल की तरह देखते हैं. भारत पर व्यापार बाधाओं को घटाने के लिए दबाव डालना या ऊंचे अमेरिकी टैरिफ पर सहमत होने के लिए मजबूर करना एक तरह से रूस से कच्चे तेल के आयात पर बांह मरोड़ना है, ताकि जिद्दी रूस यूक्रेन युद्ध को खत्म करने के लिए सहमत हो जाए. विदेश मंत्रालय ने ट्रंप के कदमों के दोहरे मानदंडों की ओर इशारा करने में फुर्ती दिखाई.
उसने खुलासा किया कि कैसे अमेरिका और यूरोप दोनों ने हाल तक भारत को उनकी ओर से तय की गई कीमतों पर रूसी तेल खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया था, ताकि वैश्विक तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव कम किया जा सके. इसके अलावा, चीन रूस से रोजाना 2 अरब बैरल से ज्यादा खरीद रहा था जो भारत की खरीद से थोड़ा ज्यादा था. फिर भी ट्रंप ने बीजिंग को कटौती के लिए मजबूर नहीं किया क्योंकि अमेरिकी कंपनियां चीन के आयात पर ज्यादा निर्भर हैं.

ट्रंप के इस तूफान से कैसे निबटें
तो फिर भारत को दुनिया की नाक में दम कर रहे ट्रंप से कैसे निबटना चाहिए? संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन बताते हैं कि ट्रंप का भारत पर रूस से कम तेल लेने के लिए दबाव डालना ''रणनीतिक से ज्यादा सामरिक'' है. उनके अनुसार, ''अतीत में भी व्यापार विवादों के कारण अमेरिका और यूरोप, यहां तक कि जापान के बीच भी, तनातनी होती रही है. लेकिन शायद ही कभी संबंधों में दरार आई हो.
भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक समानताएं हैं जिनमें रक्षा और चीन से निबटना शामिल है. इसलिए दोनों देशों को एक-दूसरे से जोड़ने वाली और भी कई बातें हैं.'' भारत के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि रूस और अमेरिका यूक्रेन पर जल्द समझौता कर लें. अगर ऐसा नहीं होता है तो उनकी सलाह है कि भारत को शांत रहना चाहिए, जवाबी टैरिफ नहीं लगाना चाहिए और वैकल्पिक बाजार तलाशते हुए बातचीत जारी रखनी चाहिए.
मोदी सरकार का रुख साफ है कि वह अमेरिका के आगे झुकने नहीं जा रही. विदेश मंत्रालय ने संकेत दिया है कि मोदी 31 अगस्त को तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में जा सकते हैं जो 2018 के बाद पहली चीन यात्रा होगी. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय बैठक की भी संभावना है, जिससे ट्रंप को कड़ा संदेश जाएगा.
उधर, अमेरिका में ट्रंप की भारत-विरोधी टिप्पणियों को लेकर विशेषज्ञों में बेचैनी साफ दिखती है. हूवर इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो सुमित गांगुली कहते हैं, ''अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत के प्रति मौजूदा रवैया अदूरदर्शी और नुक्सानदेह है. इससे पिछले कुछ दशकों में अमेरिका-भारत संबंधों में हुई सारी प्रगति पर पानी फिर जाने का खतरा है. भारत को कृषि क्षेत्र खोलने की मांगों के आगे नहीं झुकना चाहिए; हम सब जानते हैं कि यह पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा.'' गांगुली बताते हैं कि भारत अमेरिका के हथियारों के लिए बाजार है और ''मुर्दा अर्थव्यवस्था'' तो कतई नहीं.
अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को अमेरिका के लिए दीर्घावधिक निवेश पैकेज पेश करने की जरूरत है. इससे ट्रंप को लाभ होगा और वे टैरिफ घटाने को तैयार हो सकते हैं. कुल मिलाकर उम्मीद यही है कि अल्पावधि में भारत-अमेरिकी संबंध कष्टदायक होंगे और उसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा. लेकिन इससे भारत को अपने सारे फल एक ही टोकरी—अमेरिका—में रखने के बजाय दूसरे व्यापार साझेदार खोजने और अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने का भी मौका मिलेगा.
भारतीय निर्यातकों को डर है कि अतिरिक्त टैरिफ से भारत को दूसरे निर्यातक देशों से प्रतिस्पर्धा के मामले में 30-35 फीसद तक का नुक्सान झेलना पड़ सकता है. जानकारों की सलाह है कि भारत के नीति-निर्माता दिमाग ठंडा रखें, जवाबी टैरिफ लगाने से बचें और बातचीत जारी रखते हुए वैकल्पिक बाजार की तलाश करें.