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यौन संबंधों पर सख्त कानून कैसे समाज के लिए ही घातक साबित हो सकते हैं?

यौन संबंधों को लेकर नैतिक हाय-तौबा मचाने की जगह हमें सहमति से बने संबंधों में किशोरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए

सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 4 सितंबर , 2025

सहमति की उम्र या कानून में यौन संबंध के लिए सहमति देने की उम्र के मामले में देश में लंबा और घटनापूर्ण इतिहास रहा है. पिछले करीब 165 वर्षों में यह उम्र 10 से 12 और फिर 16 वर्ष में बदली गई और लगभग 73 वर्षों तक बनी रही.

फिर 2012 में यौन अपराध बाल संरक्षण कानून (पोक्सो) आया. इस कानून में 18 वर्ष से कम आयु को नाबालिग माना गया और इस उम्र से कम में यौन गतिविधि को अपराध माना गया.

इस प्रकार बिना किसी चर्चा या स्पष्टीकरण के कानून ने सहमति की आयु 16 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी. यह ज्यादा से ज्यादा नाबालिगों की सुरक्षा के सरोकार का सख्त रुख था. बदतर यह है कि यह नैतिक पहरुए वाला रुख सहमति की उम्र को विवाह की उम्र के साथ जोड़ता है और विवाहपूर्व यौन संबंध को अमान्य बनाता है.

पिछले एक दशक की घटनाओं से पता चला है कि इस कानूनी रुख का सबसे ज्यादा असर किशोरवय में सहमति से बने यौन संबंधों पर पड़ा है. उसे अपराध घोषित करने से परिवारों को उन विद्रोही किशोरों पर कहर बरपाने का बहाना मिल गया है जो प्यार में पड़कर जाति, वर्ग, धार्मिक या सामाजिक मानदंडों का उल्लंघन करते हैं. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की अगुआई में एक जनहित याचिका के जरिए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दलील पेश की गई जिसमें कहा गया कि सहमति से यौन संबंध बनाने की कानूनी उम्र 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष की जाए.

यह लंबे समय से प्रतीक्षित और स्वागत योग्य पहल है. सहमति की बढ़ी हुई उम्र ने न सिर्फ सहमति से बने संबंधों में लड़कों को 'बलात्कारी' करार दिया है, बल्कि इसका नतीजा भ्रूण-हत्या के साथ युवाओं को यौन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच से वंचित रखने के रूप में सामने आया. साथ ही इसने यौन संबंधों को लेकर चुप्पी और डर की संस्कृति को गहरा किया है.

सहमति की उम्र 16 साल किए जाने की दलील से बच्चों को दुर्व्यवहार से बचाने की प्रतिबद्धता कम नहीं होती. इसके उलट, इससे किशोरवय में यौन संबंध की हकीकत स्वीकार की जा सकती है और उसके लिए जवाबदेह व्यवस्था तैयार करने का कम डरावना माहौल बनता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के आंकड़े बताते हैं कि 15 वर्ष की आयु के बाद के युवा शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यौन गतिविधियों में शामिल हैं. सहमति की उम्र दूसरे देशों में अलग-अलग है, कई में यह 16 से कम है. नेपाल में अभी यह 18 और श्रीलंका में 16 है.

संस्कृति के सेक्सुअलाइजेशन के साथ इंटरनेट और सोशल मीडिया के प्रसार से यौन व्यवहार कई मायने में बदल गए हैं और सहनशीलता असमान रूप से बढ़ी है. हमें निजी और सरकारी स्कूलों में यौन शिक्षा पाठ्यक्रम और युवाओं के लिए गर्भनिरोधक और जानकारी की आसान उपलब्धता की जरूरत है. सहमति की उम्र कम करने से गर्भनिरोधक और गर्भपात तक सुरक्षित पहुंच के कारण किशोर उम्र में गर्भधारण को कम किया जा सकता है या अंकुश लग सकता है.

इस तरह किशोरावस्था के सवालों और सेक्स के अलावा अन्य रिश्तों की सहमति की तरफ भी ध्यान जाएगा. सवाल है कि हम युवाओं को सहमति से समझदारी भरे फैसले करने में कैसे मदद कर सकते हैं, जो विवाहपूर्व यौन संबंधों से जुड़े सामाजिक कलंक और वर्जनाओं के मद्देनजर काफी मुश्किल हो जाता है. खासकर उन लड़कियों के मामले में तो शर्मिंदगी का माहौल होता है, जो सेक्स के लिए हां कह देती हैं. शर्मिंदगी के मामले में दुर्भाग्य से रोक नहीं लगाई जा सकती लेकिन सहमति की उम्र कम करने से सेक्स से जुड़े भ्रम और शर्मिंदगी के बादल छंट सकते हैं.

दरअसल, सेक्स को लेकर काफी भ्रम है. उससे जुड़ी कई तरह की फिक्र और दूसरे मामले जुड़े होते हैं. दरअसल, असामान्य सेक्स के बदले किशोरवय की विशेष भावनाओं पर गौर करना ज्यादा उपयोगी है. किशोरावस्था, खासकर 16 से 18 वर्ष की उम्र की मानसिक अवस्था का अध्ययन अहम बनता जा रहा है. किशोरावस्था में बच्चों को सुरक्षा की जरूरत पर अलग ध्यान देने की जरूरत होती है. सहमति की उम्र घटाने से हम शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और न्याय के मामले में महत्वपूर्ण संस्थान किशोरों के अनुकूल नजरिया अपनाने के लिए मजबूर हो सकते हैं. अमूमन यौन चिंताओं के लिए पुलिस थाने या अस्पताल जाने वाली किशोरियों को कलंक और दोषारोपण झेलना पड़ता है.

हमें युवाओं पर अपने सुरक्षा के नजरिए को थोपने के लिए कठोर कानूनों की जरूरत नहीं है. हमें ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जो हमारी बात सुनें और वैसा ही करें.

मंजिमा भट्टाचार्य, (लेखिका एक समाजशास्त्री और इंटीमेट सिटी (जुबान 2021) पुस्तक की लेखिका हैं)

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