मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव को मंत्रिमंडल की बैठकें तय जगह से हटकर दूसरी जगहों पर करने के रुझान के लिए जाना जाता है. जब भी उनका मन अपने मंत्रिमंडल के साथियों को खुश करने या कोई सियासी संदेश देने का होता है, वे भोपाल स्थित राज्य सचिवालय वल्लभ भवन के पांचवें तल पर मंत्रिमंडल कक्ष के बजाए कहीं और बैठक करते हैं.
20 मई को यह बैठक राजवाड़ा में की गई, जो इंदौर के तत्कालीन शासक होल्कर वंश का 200 साल पुराना महल है. मुख्यमंत्री मोहन यादव सजी-धजी कुर्सी पर बैठे, जबकि उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों को इस तरह बिठाया गया कि उसने होल्कर राजवंश का दरबार सजे होने की छाप ताजा कर दी.
वह बैठक महारानी अहिल्याबाई होल्कर की आगामी 300वीं जयंती की योजनाओं और उनके सम्मान में आयोजित होने वाले स्मृति समारोहों पर चर्चा के लिए बुलाई गई थी.
शाही नाटकीयता के इस प्रहसन का मंचन किसी की नजरों से छिपा न रहा. एक सूत्र ने कहा, '''देवी अहिल्या' सरीखी महान हस्ती का जश्न मनाने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. मगर, नियमित रूप से सामान्य होने वाली मंत्रिमंडल बैठक की यह शाही साज-सज्जा अलहदा थी.'' बात यहीं खत्म नहीं होती. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)-शासित मध्य प्रदेश ने रानी दुर्गावती, रानी अवंती बाई, अहिल्याबाई, राजा भभूत सिंह और साथ ही प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य की विरासत को फिर से जिंदा करने के लिए नया कार्यक्रम 'विरासत से विकास' भी शुरू किया है.
राजसी गौरव को अन्य जगहों पर भी तवज्जो मिल रही है. मसलन, रियासतों के योगदान को दर्ज करने के लिए गुजरात एक पूरा संग्रहालय—भारत के राजसी साम्राज्यों का संग्रहालय (एमओआरकेआइ)—समर्पित करने की योजना बना रहा है. कुल मिलाकर 260 करोड़ रुपए के खर्च से बन रहा यह संग्रहालय नर्मदा घाटी में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की बगल में स्थित होगा और इसके साल 2027 में खुलने की संभावना है.
भाजपा साफ तौर पर राजसी मोह के दौर से गुजर रही है. दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर और छत्तीसगढ़ में कांकेर के पूर्व राजघराने के सदस्य आदित्य प्रताप देव इसे इस तरह समझाते हैं, ''भाजपा और आरएसएस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उस रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें रीति-रिवाज, परंपरा और इतिहास प्राचीन राष्ट्र की उनकी कल्पना की आधारशिला का निर्माण करते हैं.
चूंकि राजतंत्रीय कही जाने वाली हुकूमतें दक्षिण एशिया में आला राजनीति और राजनैतिक व्यवस्था का सबसे आम और सबसे उल्लेखनीय प्रकार रही हैं, और भारतीय सभ्यता के स्वरूप की एक निश्चित समझ का अभिन्न अंग रही हैं, इसलिए उन्हें उदारवाद के बाद के भारत के सियासी विमर्श में ज्यादा स्वीकृति मिली.''
राज परियोजना
हालांकि कांग्रेस की जमात में भी कई राजघराने रहे हैं—उनमें जम्मू और कश्मीर रियासत के बराये-नाम महाराजा कर्ण सिंह, पटियाला राजघराने के अमरिंदर सिंह (अब भाजपा में), ग्वालियर के पूर्व राजघराने के दिवंगत माधवराव सिंधिया, राज्यसभा के सदस्य और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राघोगढ़ के दिग्विजय सिंह सबसे प्रमुख हैं.
फिर भी रियासतों के साथ पार्टी के रिश्ते हमेशा चिड़चिड़े ही रहे, खासकर 1971 से जब प्रिवी पर्स यानी राजभत्ता को खत्म कर दिया गया और साथ ही अनिश्चित संख्या में हथियार रखने और शाही उपाधियों का इस्तेमाल करने सरीखे अन्य विशेषाधिकार वापस ले लिए गए. उसके अगले साल, जैसा कि पूर्व वांकानेर राजघराने के सदस्य और पूर्व आइएएस अफसर रंजीत सिंह बताते हैं, ''वन्यजीव संरक्षण अधिनियम से पूर्व राजघरानों के ऐश्वर्य को चोट पहुंची, सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि वे शिकार में लिप्त थे बल्कि इसलिए भी कि उनमें से कई व्यावसायिक शिकार कंपनियां चलाते थे, जो विदेशी ग्राहकों को आकर्षित करती थीं.''
हाल में नवंबर 2024 में मीडिया में आए एक लेख में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने महाराजाओं और नवाबों को ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ मिलीभगत का दोषी ठहराकर कई पूर्व राजे-रजवाड़ों की नाराजगी मोल ले ली.
भाजपा अब उस 'ऐतिहासिक भूल' को सुधारने की कोशिश कर रही है जिसे वह अपने हितों के लिए उपनिवेशवादियों का फैलाया एकतरफा नैरेटिव मानती है. गुजरात सरकार में पुरातत्व और संग्रहालय विभाग के डायरेक्टर डॉ. पंकज शर्मा कहते हैं, ''राजघरानों को अक्सर ऐसे विरोधियों के तौर पर पेश किया गया जो खराब प्रशासक थे, स्थानीय लोग उन्हें नापंसद करते थे, और जिन्होंने अपने विशेषाधिकार बनाए रखने के लिए जनता के हितों से समझौता करते हुए ब्रिटिश राज के आगे घुटने टेक दिए. भारत संघ को एकजुट करने में उनके योगदान, बलिदान, जनकल्याणकारी पहलों, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, बहादुरी की कहानियों और समाज सेवा को अनदेखा कर दिया गया.''
भाजपा के इस नजरिए से आरएसएस भी इत्तेफाक रखता है. संघ के करीबी एक सूत्र कहते हैं, ''आरएसएस राजतंत्र से पूरी तरह सहमत है. यह हिंदुत्व की अवधारणा के अनुरूप है. भारत के गौरवशाली इतिहास में राजे-रजवाड़े भी शामिल हैं, जिनका जश्न मनाने की जरूरत है.'' इसके अलावा मंदिरों की देखभाल करने वाले न्यासों पर कई पूर्व राजघरानों का नियंत्रण कायम है, जो भाजपा के हिंदुत्व अभियान में मददगार है.
राजघरानों के साथ भाजपा की गलबहियों के पीछे एक राजनैतिक तर्क है. ऐसे वक्त में, जब वह विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों और समुदायों के बीच अपनी पहुंच बढ़ा रही है, वह ऐसी हस्तियों की तलाश करती रही है जिनका इस्तेमाल वह मतदाताओं को गोलबंद करने में कर सके, और उनके नाम पर मूर्तियां और स्मारक बनवाती रही है. राजघराने इस मकसद को बराबरी से पूरा करते हैं. प्रमाण के तौर पर देखिए कि तमिलनाडु की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में किस तरह राजराजा चोल और उनके बेटे राजेंद्र चोल प्रथम की विरासत का जिक्र किया.
सिंहासनों का खेल
भाजपा की रणनीति टिकट बांटने के नियमों और चुने हुए प्रतिनिधियों के रिश्तेदारों को टिकट नहीं देने की नीति में ढील देने से साफ दिखाई देती है. मसलन, मेवाड़ के बराए-नाम महाराजा और राजस्थान में नाथद्वारा से भाजपा के विधायक विश्वराज सिंह को दिसंबर, 2023 के विधानसभा चुनाव में मैदान में उतारा गया, और छह महीने बाद उनकी पत्नी महिमा कुमारी को भी लोकसभा चुनाव का टिकट दे दिया गया. दोनों ने अपने-अपने चुनाव जीते.
इसी तरह मध्य प्रदेश में आदिवासी नेता और मंत्री कुंवर विजय शाह को, जो तत्कालीन मकरई रिसायत से ताल्लुक रखते हैं, हरसूद से टिकट दिया गया. उनके भाई ने पड़ोसी टिमरनी सीट से चुनाव लड़ा, मगर वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे अपने भतीजे से हार गए.
पूरब में भाजपा ने 2024 में पार्टी के दिग्गज नेता और बोलांगीर के पूर्व राजघराने के कनक वर्धन सिंह देव को ओडिशा का उपमुख्यमंत्री बनाया, जबकि उनकी पत्नी संगीता सिंह देव लोकसभा के लिए फिर चुनी गईं. कभी भारत की सबसे लंबे वक्त चली कम्युनिस्ट सरकार का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में उसने कृष्णानगर लोकसभा सीट से कृष्णानगर की 'राजमाता' अमृता रॉय को मैदान में उतारा. मगर वे चुनाव हार गईं.
उससे पहले 2023 में पार्टी ने कूच राजघराने के स्वयंभू सदस्य और उत्तर बंगाल के राजबंशी समुदाय के राजा होने का दावा करने वाले अनंत महाराज को राज्यसभा में भेजा. उनके चुनाव को चौतरफा कूचबिहार और अलीपुरद्वार के आसपास के सियासी उतार-चढ़ाव वाले इलाके में राजबंशी वोटों को गोलबंद करने की कोशिश माना गया. इसी तरह पार्टी ने 2023 में वांकानेर के केसरीदेवसिंह झाला और 2024 में पूर्व रायगढ़ रियासत के देवेंद्र प्रताप सिंह को क्रमश: गुजरात और छत्तीसगढ़ से ऊपरी सदन में मनोनीत किया.
राजघरानों को साधने से भाजपा को व्यावहारिक स्तर पर क्या मिलता है? रंजीतसिंह बताते हैं, ''आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में तत्कालीन राजघरानों के कई सदस्य अपने निवास स्थानों से शहरों में आकर बस गए. मगर पर्यटन के बढ़ने और संपत्तियों को होटलों में बदलने, और उनमें से कइयों के राजनीति में आने के साथ स्थानीय लोगों के साथ उनका जुड़ाव कायम रहा. कई मामलों में यह चुनावी फायदे में तब्दील हो गया, जिससे सियासी पार्टियां राजघरानों के सदस्यों को चुनाव में उतारने लगीं.'' जैसा कि मध्य प्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय बताते हैं, उनका राजसी दर्जा उन्हें जीतने की क्षमता देता है, जो भाजपा के टिकट वितरण में प्रमुख कारक है.
राजघरानों की तरफ भाजपा का झुकाव अलबत्ता पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है, जो अक्सर धार्मिक और ऐतिहासिक नैरेटिव से तय होते हैं. मसलन, भोपाल में पार्टी के सांसद आलोक शर्मा तत्कालीन राजघराने के खिलाफ अभियान चला रहे हैं और आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खान को आजादी के बाद विलय में देरी करने और पाकिस्तान से जुड़ने के मंसूबे पालने का दोषी ठहरा रहे हैं.
यह वह आरोप है जो अक्सर गैर-मुस्लिम रिसायतों के खिलाफ लगाया जाता रहा है. फिर 2024 के चुनाव से कुछ ही वक्त पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता पुरुषोत्तम रूपाला ने जो हंगामा बरपा दिया था, उसे भला कौन भूल सकता है. उन्होंने कहा था कि तत्कालीन राजा-महाराजाओं ने अंग्रेजों के आगे घुटने टेक दिए थे, उनके साथ रोटियां तोड़ते थे, और यहां तक कि अपनी बेटियों की शादी उनके साथ कर देते थे.
उनके इस बयान का पूरे क्षत्रिय समुदाय ने कड़ा विरोध किया था. रूपाला फिर भी खुशकिस्मत रहे कि उस साल वे अपने निर्वाचन क्षेत्र राजकोट से चुनाव जीत गए. इतना ही गौरतलब भाजपा सरकार की तरफ से 2019 में शस्त्र अधिनियम में किया गया संशोधन भी है, जिसके जरिए एक व्यक्ति के पास रखे जा सकने वाले हथियारों की संख्या तीन से घटाकर दो कर दी गई. यूपीए के जमाने में उठाए गए ऐसे ही एक कदम को सांसदों और खासकर राजघरानों से जुड़े सांसदों के दखल के बाद रोक दिया गया था.
शाही व्यावहारिकता
खुद राजघराने भाजपा के इस तरह पींगें बढ़ाने के बारे में क्या सोचते हैं? विश्वराज कहते हैं, ''सौभाग्य से परमपिता और हमारे पूर्वजों के आशीर्वाद और साथ ही हमारे अपने आचरण की बदौलत हमने हमेशा जनता का विश्वास हासिल किया है. देश के विकास में योगदान देने का मौका देने के लिए मैं पार्टी (भाजपा) और लोगों का आभारी हूं.'' मगर, दिग्विजय ''सभी के लिए बराबरी की हिमायत करने वाले संविधान के सिद्धांतों में भाजपा की आस्था पर'' शक करते हैं. राजघरानों के प्रति भाजपा के नरम रुख रखने का दावा करते हुए वे कहते हैं, ''जहां तक मेरे परिवार की बात है, हमने लोकतंत्र का रास्ता चुना और जनसंघ या भाजपा में शामिल नहीं हुए, जबकि वे काफी उत्सुक थे.''
समाजशास्त्रियों के एक तबके का कहना है कि ऐतिहासिक नजरिए से राजघराने हमेशा जीतने वाले पक्ष के साथ रहे हैं. लेखक मनु पिल्लै कहते हैं, ''तमाम तरह के राजनैतिक कर्ताधर्ताओं की तरह शाही वंशज भी रणनीतिक गठबंधनों वगैरह के जरिए कायम रहते हैं. जिस तरह हमारे यहां ऐसे सियासतदां हैं जिन्होंने बहुत निपुणता से अपने को बनाए रखा है, उसी तरह शाही राजघराने भी हैं जो तमाम ऐतिहासिक बदलावों और चुनौतियों के बावजूद अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं.''
राजसी कायापलट
राजे-रजवाड़े आधुनिक दुनिया में खुद को नए सिरे से गढ़ने का जतन कर रहे हैं. 1980 और '90 के दशकों की बॉलीवुड फिल्मों में दुष्ट और शोषणकारी दिखाए गए जमींदारों और राजाओं का अब लोकप्रिय संस्कृति में जश्न मनाया जाता है. पूर्व राजे-रजवाड़ों के अब कॉन्क्लेव सर्किट, पॉडकास्ट और चैट शो में नियमित आने के साथ उनकी सार्वजनिक छवि भी बदल गई है. बड़ौदा राजघराने की राधिका राजे गायकवाड़ को हाल में एक अखबार ने उस हालिया ओटीटी शो के बारे में लिखने के लिए आमंत्रित किया जिसमें उन जैसे लोगों की बहुत हितैषी तस्वीर नहीं दिखाई गई है.
वे कहती हैं, ''प्रलोभन तो निश्चित रूप से है और यह तब शुरू हुआ जब यूरोपीय राजघरानों को कवर कर चुकी हेलो सरीखी पत्रिकाएं भारत आईं. उन्होंने राजघरानों को अपने आवरण पर पेश किया और उनके पन्नों पर महलों के दरवाजे खुल गए जिनसे लोग उन्हें आरपार देख सकते थे. सोशल मीडिया ने भी बड़ी भूमिका निभाई क्योंकि यह राजघरानों को मनचाहे ढंग से अपनी कहानी कहने का मंच देता है.''
कम्युनिकेशन और ब्रान्डिंग पेशेवर अंशु खन्ना का कहना है कि पहले कोई चमकदार पत्रिका अगर किसी उद्योगपति, खिलाड़ी और पेशेवर को पेश करती थी, तो आज यह पूर्व राजघरानों को भी शामिल करती है. 2010 में शाही भारत को दिखाने वाले मंच रॉयल फेबल्स की स्थापना करने वाली खन्ना कहती हैं, ''तत्कालीन राजघरानों की युवा जमात के कई लोग विदेशी विश्वविद्यालयों से पढ़े हैं. लौटने के बाद अब वे वक्त के लिहाज से मौजूं करियरों में आगे बढ़ रहे हैं और उन्होंने नैरेटिव को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है.''
विश्वराज कहते हैं, ''हमारे परिवारों को अक्सर मूर्तिपूजा की राजनीति, नेताओं और मनोरंजन उद्योग की बेबुनियाद टीका-टिप्पणियों और गलतबयानी का शिकार होना पड़ता है. सच्ची पहचान तभी मिलेगी जब ऐतिहासिक और समकालीन अभिलेखों को तथ्यात्मक ढंग से पेश किया जाएगा और निजी या सियासी फायदे की खातिर हमारे परिवारों और पूर्वजों को बदनाम करने वाले लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे.''